अभिमान कई तरह का हो सकता है लेकिन सेवा का भी एक अभिमान होता है। सेवा अर्थात् जिसमें दूसरों का भला करने का भाव समाया होता है, अपना त्याग करके दूसरों का लाभ करें, लेकिन उसमें भी माया का अभिमान आ जाता है। देह अभिमान एक प्रकार का अभिमान है, सेवा अभिमान दूसरे प्रकार का अभिमान है। इसीलिए सेवा करने के बाद कहते हैं कि अभी भी कर लो।
सबसे बड़ा त्याग है- देह अभिमान का त्याग। जब देह अभिमान का त्याग हो गया तो सब त्याग उसमें समा गये। जैसे कहते हैं हाथी के पांव में सबका पांव शामिल हो जाता है। अगर यह एक त्याग हमसे हो गया तो सब त्याग हो जायेंगे। बाबा रोज मुरली में कहते हैं- बच्चे, देही अभिमानी बनो, देह अभिमान छोड़ो। लेकिन हम इस पर अभी तक सफलता नहीं प्राप्त कर पाये हैं। यह हमारा आलस्य है, गफलत है। ऊंचे से ऊंचा पढ़ाने वाला हमें मिला है लेकिन हम इस पर अभी तक सफलता प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए बाबा ने इस पर महत्त्व देते हुए कहा है कि सबसे बड़ा त्याग है देह अभिमान का त्याग। अभिमान तो सब बुराइयों का मूल है। चाहे वह देह अभिमान हो, चाहे ज्ञान का अभिमान हो, चाहे अपने योगीपन का अभिमान हो कि मैं बहुत बड़ा योगी हूँ। अभिमान कई तरह का हो सकता है लेकिन सेवा का भी एक अभिमान होता है। सेवा अर्थात् जिसमें दूसरों का भला करने का भाव समाया होता है, अपना त्याग करके दूसरों का लाभ करें, लेकिन उसमें भी माया का अभिमान आ जाता है। देह अभिमान एक प्रकार का अभिमान है, सेवा अभिमान दूसरे प्रकार का अभिमान है। इसीलिए सेवा करने के बाद कहते हैं कि अभी भी कर लो। जैसे मेला मलाखड़ा करने के बाद काफी कूड़ा-करकट जमा हो जाता है, सफाई की ज़रूरत होती है, ऐसे ही सेवा के बाद स्वउन्नति के प्रोग्राम रखते हैं। हमें दत्तचित्त होकर, अटेन्शन से, सबको साथ में मिलाकर कोई भी सेवा करनी है। इससे सफलता होनी ही है। उसमें बहुत से लोगों ने दान का पैसा लगाया है, उन्होंने बाबा को सामने रखकर दिया है। तो बाबा उसको सफल तो करेंगे ही। जब उन्होंने शुभ भावना, शुभ कामना से दिया है तो वह फलीभूत तो होगा ही। जब वह फलीभूत होता है, सेवा का फल निकलता है, तब जो विशेष निमित्त बनते हैं उनकी लोग प्रशंसा करते हैं। उस प्रशंसा को सुनते-सुनते सेवा की भावना गौण होने लगती है और ”मैं भी कुछ हूँ”- यह भावना बढऩे लगती है। क्योंकि आत्मा देह में रहती है, देह के नाम से लोग हमें पुकारते हैं, देह के सम्बन्धों की चर्चा होती है, देह से बर्ताव करते हैं तो फल यह होता है कि देह अभिमानी बन जाते हैं।
इसी प्रकार सेवा में आते-आते जब प्रशंसा की बजाय कोई उसका उल्टा शब्द बोल देते हैं तो हम उसको अपना शत्रु समझ लेते हैं। हम समझते हैं कि यह हमारा विरोधी है। उससे हमारी अनबन हो जाती है, मन-मुटाव हो जाता है। त्याग भावना और तपस्या भावना छोडक़र यदि कोई सेवा करता है तो बाकी क्या रह जाता है? इसलिए जब देह अभिमान के बजाय सेवा अभिमान हो जाता है, चाहे प्रशंसा से या किसी कारण से तेरा-मेरा, मान-शान। और जैसे-जैसे समय बढ़ता जाता है, ड्रामा का अन्तिम समय नज़दीक आता जाता है, यह चीज़ें बढ़ती जा रही हैं। इसलिए हम जमकर सेवा करें। बाबा कहते हैं तो यहाँ सेवा का ताज पहनेगा, वहाँ राज्य का ताज पहनेगा। लेकिन सेवा के ताज के साथ अगर लाइट का ताज नहीं होगा, तपस्या का ताज नहीं होगा, त्याग का ताज नहीं होगा तो वहाँ राज्य का ताज नहीं मिलेगा। इसलिए त्याग पर ध्यान देने की बहुत ज़रूरत है।