पहले अपने संस्कारों में सतयुग लायें…

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देश में स्वास्तिक का बहुत महत्त्व है। इसे हर त्योहार पर और पूजा-पाठ में बनाते हैं। स्वास्तिक का अर्थ है क्रस्व का अस्तित्वञ्ज। ये हमारे सृष्टि चक्र के चार भाग हैं। पहले भाग में हाथ सामने है, दूसरे में हाथ नीचे गया, तीसरे भाग में हाथ उल्टी तरफ से सीधा हो गया और चौथे भाग में हाथ खड़ा बन गया। पहला भाग माना सतयुग है। हम दूसरों को दुआएं दे रहे हैं। इसलिए सतयुग में रहने वाली आत्मा को दिव्यात्मा कहा जाता है। इसलिए देवी-देवताओं के हाथ हमेशा देने की मुद्रा में दिखाए जाते हैं। अगला हाथ त्रेतायुग माना, हाथ नीचे हो गया। द्वापर युग में हाथ लेने की मुद्रा में आ गया। और कलियुग में हाथ खड़ा हो गया। ये है स्वास्तिक।
स्वास्तिक सिर्फ बनाने से शुभ नहीं होता, उसकी तरह बनने से शुभ होगा। वर्तमान समय हाथ खड़ा वाला युग है, मानकर चलते हैं कि मारने वाला युग है। पर हम सारा दिन सबसे ज्य़ादा किसको मारते हैं? अपने आपको मारते हैं। एक ही चीज़ हम सोचते जाते हैं, सोचते जाते हैं। खुद को कष्ट देते जाते हैं। सामने वाला हमें एक लाइन बोलता है, और हम कितनी लाइन बोलते हैं अंदर? फिर कहते हैं उसने मेरा दिल दुखाया। अब हमें कौन-सी दुनिया लानी है? हाथ देने की मुद्रा वाली दुनिया।
इसलिए हर एक को दुआएं देने का संस्कार बनाइए। मांगने का संस्कार खत्म कीजिए। मांगना मतलब आप मेरे से प्यार से बात करो, आप मुझे सम्मान दो, आप मेरा कहना मानो। देने वाली आत्मा बनिए। जो देने वाली आत्मा बनेगा, उसका सतयुग आज से शुरू हो जाएगा। सृष्टि पर भले कलियुग चल रहा हो, पर आपके संस्कारों में अगर सतयुग आ गया, तो आपकी सतयुगी दुनिया आज से शुरू हो जाएगी। क्या आप सभी तैयार हैं अपने जीवन को परिवर्तित करने के लिए? इसके लिए हमें सिर्फ स्वास्तिक याद रखना है और अपने जीवन को शुभ बनाना है। मांगना नहीं है किसी से।
हम जब एक नई ड्रेस भी पहनते हैं, तो इंतज़ार करते हैं कि कोई प्रशंसा करेगा। खाना बनाते हैं तो इंतज़ार करते हैं किसी ने बोला ही नहीं कि अच्छा बना है। कोई बोले तो बहुत अच्छा। लेकिन चाहिए कि मुद्रा में खड़े होना… एक प्रकार का नशा है। और हमें पता ही नहीं चलता है कि नाम, मान, शान, महिमा सबसे बड़ा नशा है। और वो ही नशा हमारी बुद्धि को मांगने वाला बनाता है। हम मांगने वाले नहीं हैं।
आप एक संकल्प करें कि मुझे किसी से कुछ नहीं चाहिए। आस-पास के सब लोगों की कल्पना करें, सामने लेकर आएं और उनको देखते हुए बोलें कि मुझे इससे कुछ नहीं चाहिए। मैं इन सबको देने वाली आत्मा हूँ। देेने वाली मतलब दुआएं देना, सम्मान देना, मान देना, और इन सबके बदले मैं कुछ भी उम्मीद नहीं करूंगा/करूंगी। हम जब सम्मान देंगे, दुआएं देंगे तभी हमारा जीवन अच्छा होगा। क्योंकि हमारा भाग्य सिर्फ और सिर्फ हमारे कर्म से बनता है। दूसरों का कर्म हमारा भाग्य न बना सकता है, न बिगाड़ सकता है।्र वो सिर्फ और सिर्फ हमारे कर्म से होता है। तो हमें ध्यान सिर्फ अपने कर्म पर रखना है। तो जैसे ही मन मांगने की मुद्रा में खड़ा हो, उसको जल्दी से बदलकर देने वाली मुद्रा में बना दो।

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