बाबा हमें दान देकर फिर हमसे दान कराता है। फिर वह और ही 100 गुणा भरतू होता है। भरतू होना माना वरदानमूर्त बनना। जैसे किसी गरीब को दान दिया उसने सिगरेट पी लिया तो हमारे ऊपर बोझ चढ़ा, इसी तरह बाबा ने मुझे दान दिया और अगर बाबा के मिले दान का उपयोग ठीक नहीं किया तो वरदान की बजाय श्राप हो जाता है। यह निर्णय शक्ति चाहिए। मान लो हमने किसको मुरली सुनाई, ज्ञान दिया, बाबा की याद का अनुभव कराया, जिससे आत्मा को बड़ी खुशी हुई, उसने हमें दुआ दी, यहाँ तक तो ठीक है, लेकिन जब मैंने कहा ये मेरे से बहुत प्रभावित हुआ, बहुत खुश हो गया, तो यह जमा नहीं किया, स्वीकार कर गंवा दिया। अहम् भाव आया तो बैलेन्स बराबर। जो जमा किया वह माइनस हो गया-खत्म। वह दान वरदान नहीं रहा। ऐसे ही मैं कोई की बहुत मीठी सेवा कर रही हूँ, बहुत अच्छी तरह समझाती हूँ, समझाते-समझाते आत्मा की स्थिति में स्थित हो जाती हूँ उसे भी अनुभव कराया, शान्ति का, लाइट अवस्था का साक्षात्कार कराया, परन्तु दूसरे क्षण उसने मेरे देह अभिमान की अवस्था देखी तो एक तरफ हाइएस्ट स्टेज, दूसरे तरफ एक क्षण में लोएस्ट स्टेज। तो क्या सोचेगा? वरदान भी दिया फिर वापस भी ले लिया – क्या हुआ? जमा तो नहीं हुआ ना।
हरेक अपने से पूछें कि मैंने अपनी जीवन त्यागी बनाई है? त्याग की परिभाषा बहुत बड़ी है, जितना हम त्यागी बनेंगे उतना ही तपस्वी बनेंगे। बाबा ने कहा योग न लगने का कारण नाम-रूप में फंसते हैं, देही-अभिमानी नहीं बनते, यह हमारी चाबी है, देखना है हम कहाँ तक देही अभिमानी बने हैं? अगर मेरे में जि़द्द का स्वभाव है, नाम तो है जि़द्द, लेकिन छोटा जि़द्द का स्वभाव क्या मुझे वरदान प्राप्त करायेगा? जैसे मुझे कोई कहता – ये कार्य करना है, मैं जि़द्द के स्वभाव के कारण कहती मैं नहीं कर सकती। लेकिन यह कार्य बाबा का है, वह मुझे करने के लिए कहता, उससे अनेक आत्माओं को हर्ष मिलता, उत्साह मिलता, कितना लाभ होगा, ना कर दिया तो उन सबका बोझ मेरे ऊपर चढ़ गया। नाम है जि़द्द, परन्तु उसमें कितना नुकसान हुआ।