आजकल संसार की जो दुर्दशा है और यहाँ जो आसुरी लक्षण तथा तमोगुण की प्रधानता है और ज्ञान तथा योग का प्राय: लोप है, उस पर विचार करें तथा आज की परिस्थितियों का गीता से मेलान करके लोग यह तो सोचते हैं कि वर्तमान समय हूबहू वही परिस्थितियां हैं जो 5000 वर्ष पूर्व गीता के भगवान के अवतरण के समय थीं। अत: वह आज के समय को धर्मग्लानि का समय तो निश्चित करते हैं और यह भी मानते हैं कि गीता में भगवान के जो वचन हैं, उनके अनुसार अब धर्म की पुन:स्थापना के लिए परमात्मा को पुन: अवतरित होना चाहिए और अधर्म का विनाश भी कराना चाहिए। फिर जब उन्हें बताया जाता है कि भगवन के अवतरित होने की जो तुम आशा लगाये बैठे हो, वह पूर्ण हो चुकी है और विनाश की सामग्री भी तैयार हो चुकी है। तो वे आश्चर्यान्वित होते हैं और प्रश्न करते हैं कि कैसे माना जाये कि भगवान अवतरित हो चुके हैं? अत: ऐसे महानुभावों के शुभचिन्तक होकर, निज अनुभव के आधार पर ईश्वरीय विवेक का आश्रय लेकर यहाँ कई-एक युक्तियां प्रस्तुत की जा रही हैं जिनके प्रयोग से यह जाना जा सकता है कि भगवान का अवतरण हुआ है या नहीं।
बात यह है कि परमात्मा का अवतरण क्योंकि धर्मग्लानि के समय होता है अत: उस समय बहुत से दम्भी लोग स्वयं को भगवान का अवतार कहने कहलाने लगते हैं। इस कारण, मनुष्य को कुछ युक्तियां ज्ञात होनी चाहिए कि जिनसे वह ठीक पहचान कर सकें ताकि वह छल में न आ जायें। यहाँ जो युक्तियां प्रस्तुत की जा रही हैं, वह ठीक हैं या नहीं, इसकी परख गीता के मेलान से, विवेक से तथा परंपरा के ज्ञान से सहज हो जाती है : –
भगवान कहते हैं कि यह सृष्टि वृक्ष के समान है और मैं इसका बीजरूप हूँ
यदि कोई दम्भी मनुष्य स्वयं को भगवान का अवतार कहलायेगा तो देखने योग्य बात यह है कि वह अपने को इस सृष्टि रूपी वृक्ष का बीजरूप नहीं कह सकेगा क्योंकि बीज में सारे वृक्ष का ज्ञान तिरोभावित होता है परन्तु मनुष्यात्माओं को सृष्टि रूपी रचना का ज्ञान स्वत: होता ही नहीं। बीज तो वृक्ष का रचयिता होता है किन्तु कोई भी मनुष्य स्वयं को सृष्टि का रचयिता नहीं कह सकता, कारण कि वह तो स्वयं ही एक रचना है। अत: केवल गीता के भगवान, जिन्होंने ही इस सृष्टि की तुलना एक उल्टे वृक्ष से की है, ही ने स्वयं को इस ‘वृक्ष’ का बीजरूप कहा है और इस ‘वृक्ष’ का पूर्ण ज्ञान भी दिया है। अन्य किसी भी धर्मस्थापक ने न यह उपमा दी है और न ही इस वृक्ष का ज्ञान दिया है क्योंकि वे(मनुष्यात्मायें) तो स्वत: इस सारे ‘वृक्ष’ को जानते ही नहीं, सर्वज्ञ हैं नहीं। अत: यदि कोई अपने को परमात्मा का अवतार कहता है तो उसे सृष्टि रूपी वृक्ष(रचना) का ज्ञान होना चाहिए।
भगवान ही आत्माओं के आवागमन को जानते हैं
भगवान, जो ही जन्म-मरण से रहित; साक्षी आत्मा हैं, सब धर्मों की आत्माओं के आवागमन को जानते हैं। वह ही बता सकते हैं कि आत्मा ने उसके अवतरण काल तक कितने जन्म लिए। अत: केवल गीता के भगवान ही कहते हैं- ” हे वत्स, मैं तेरे पिछले जन्मों को जानता हूँ; तू नहीं जानता।” कोई भी मनुष्यात्मा अपने ही पिछले सारे जन्मों को नहीं जानती तो अन्य आत्माओं के जन्म जानने की तो बात ही दूर रही। अत: यदि स्वयं परमात्मा का अवतरण हुआ होगा तो वह मनुष्यात्माओं के पिछले जन्मों को भी जानता होगा और उनका भेद बताता होगा कि उन्होंने सतयुग, त्रेता, द्वापर इत्यादि में से हर एक युग में कितने जन्म लिए।
परमात्मा ही अपने तथा देवताओं के रूप, धाम, कत्र्तव्य इत्यादि का परिचय देता है
कोई भी मनुष्यात्मा देवताओं(ब्रह्मा, विष्णु, शंकर) का तथा परमात्मा का स्वत: ही परिचय नहीं दे सकती। इनका परिचय तथा रचयिता परमात्मा का ज्ञान तो परमात्मा स्वयं ही देता है। यही कारण है कि अन्य किसी भी धर्मस्थापक के शास्त्र में देवताओं का तथा परमात्मा के धाम, रूप इत्यादि का उल्लेख नहीं मिलेगा। एकमात्र गीता के भगवान ही हैं जो कहते हैं- ”इस आकाश तत्व के पार जो अन्य अव्यक्त तत्व ‘ब्रह्म'(अखण्ड ज्योति महतत्व है), मैं उस परमधाम में निवास करता हूँ, मैं अव्यक्त ज्योतिबिन्दु हूँ, इत्यादि-इत्यादि। यदि कोई मनुष्यात्मा दम्भयुक्त होकर ऐसा कहने का साहस करे तो भी आकाश के पार जो अव्यक्त, अविनाशी ज्योति महतत्व है, वह उसका और परमधाम का पूरा परिचय नहीं दे सकेगी, वहाँ आत्माओं और परमात्मा का जिस प्रकार निवास है, उसका पूरा चित्र नहीं बना सकेगी।
इसी प्रकार परमात्मा गुरु भी अपने अवतरण द्वारा अपना कर्त्तव्य करता और प्रत्यक्ष में उसका परिचय देता है। अन्य कोई भी मनुष्यात्मा नहीं बता सकेगी कि भारतवासियों का वास्तविक और आदि सनातन धर्म क्या है, किस ने स्थापन किया और कब। मनुष्यात्मा स्वयं भी उस धर्म में पूर्ण रूपेण स्वत: ही स्थित नहीं हो सकती – उस धर्म की पुन: स्थापना का महत्वपूर्ण कार्य करने का दम भरना तो उसके बस की बात ही नहीं।




