मुख पृष्ठदादी जीदादी प्रकाशमणि जीज्ञानी तू आत्मा का गुण है- समान रहना

ज्ञानी तू आत्मा का गुण है- समान रहना

बाबा हम बच्चों को यह बहुत बड़ा लेसन देते कि हे बच्चे इस ज्ञान की मंजि़ल पर चलेंगे तो सहन करने की शक्ति धारण करनी पड़ेगी। सहनशील बनने की थोड़ी तकलीफ लेनी पड़ेगी। यह सहनशीलता का गुण बहुत बड़ी शक्ति है, यह सर्व गुणों में महान गुण है। यह बाबा का बोल सुन सब प्रैक्टिकल चार्ट देखें कि मेरे में सहनशीलता का गुण है?
बाबा ने कहा बच्चे दु:ख-सुख, स्तुति-निंदा, मान-अपमान सबमें समान रहने की, एकरस स्थिति में रहने की, सहनशील होने की शक्ति चाहिए। तो यह शक्ति चाहिए या मुझ आत्मा का अथवा इस ज्ञान का पहला-पहला गुण ही यह है? ज्ञानी तू आत्मा का गुण है समान रहना। अगर ज्ञानी तू आत्मा में यह गुण नहीं तो वह प्रिय नहीं। जब अपने को ज्ञानी तू आत्मा देखते- माना हमारे अन्दर ड्रामा की सारी नॉलेज है। हर आत्मा के सतोप्रधान, सतो, रजो, तमो की स्टेजेस की भी नॉलेज है। जब नॉलेज है तो नॉलेज की शक्ति के आधार पर समान रहने की शक्ति स्वत: ही आ जाती है।
जैसे बाल से युवा, युवा से वृद्ध होते तो कभी यह नहीं कहते कि ओ नेचर तूने बाल से युवा व युवा से बूढ़ा क्यों बनाया? परन्तु जानते हैं यह प्रकृति का नियम है। चार ऋतुएं होना यह भी प्रकृति का नियम है। जब हम जानते हैं कि यह नियम है तो हम क्यों कहें ओ प्रकृति तुम हमें ठण्डी में व गर्मी में दु:ख क्यों देती! हम जानते हैं यह नेचर का गुण है। सर्दी के समय सर्दी, गर्मी के समय गर्मी होनी ही है। हमारे पास उससे बचने के साधन हैं तो उसे यूज़ करें। हम जान गये अभी की प्रकृति है ही तमोप्रधान। सतयुग में प्रकृति

सतोप्रधान है इसलिए सुखदाई है। अभी तमोप्रधान है इसलिए प्रकृति पर कभी गुस्सा नहीं आता। कभी भी हम ऐसे नहीं लड़ते- ए सर्दी तू मुझे दु:ख क्यों देती? किससे लड़ेंगे? जब बुद्धि में आता यह प्रकृति का धर्म है तो उससे लडऩे नहीं जाते। फिर जब कहते क्या करें यह परिवारिक परिस्थितियां आती हैं। वह तो आयेंगी ही। मैं उससे दु:खी क्यों हँू! जैसे प्रकृति का दु:ख सहन करते, वैसे यह परिवार का भी तो हिसाब-किताब है। मैं उससे क्यों लड़ंू! हमें उसमें अपनी स्थिति अप-डाउन नहीं करनी है।
कभी-कभी सोचते मुझे तो सबसे मान मिलना चाहिए। ये मुझे मान नहीं देता इसलिए गुस्सा आता। जब मेरा कोई अपमान करता तो मैं रंज होती लेकिन मैं सोचंू कि मैंने उसे कितना मान दिया है। एक है देना, एक है लेना। जब अपमान पर गुस्सा आता माना मैं मान की भूखी, प्यासी हूँ। मान की मांग है। मैं दाता बनंू या लेवता बनंू?
मुझे दान देना या लेना है? मैं वरदाता हूँ या आत्माओं से वर लेने वाली हूँ? मान मांगना अर्थात् आत्माओं से वर मांगना। बाबा कहता मांगने से मरना भला… मैं दाता की बच्ची हूँ तो लेवता क्यों बनते! यह सवाल हरेक अपने से पूछे।

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