भारत में देसी वर्ष फाल्गुन की पूर्णमासी को समाप्त होता है। इसलिए फाल्गुन की पूर्णमासी को होलिका जलाने का अर्थ पिछले वर्ष की कटु और तीखी स्मृतियों को जलाना, अपने दु:खों को भुलाना और हँसते-खेलते नये वर्ष का आह्वान करना है। अत: भारत के उत्तर प्रदेश में कई लोग ‘होलिका दहन’ को ‘संवत जलाना’ भी कहते हैं। इसके अतिरिक्त पुराने वर्ष के अंत में इस त्योहार का मनाया जाना वृहद दृष्टि में इस रहस्य का परिचय भी देता है कि यह त्योहार पहले-पहले कल्प अथवा कलियुग के अंत में मनाया गया था। जिसके बाद सतयुग के सुख-शांति के दिन शुरू हुए थे। कलियुग के अंत में होलिका जलाने से मनुष्य के दु:ख, दरिद्रता, वासना तथा व्यथा सब दूर हो गए थे। परन्तु प्रश्न उठता है कि होलिका जलाने से मनुष्य के विकार और विकर्म तथा दु:ख और कलेष भला कैसे नाश हो सकते हैं?
स्पष्ट है कि लकडिय़ां तथा गोबर जलाना ही ‘होलिका दहन’ नहीं है। लकडिय़ों और गोबर को तो आज भी भारत के देहातों में रोज़ जलाया जाता है। परन्तु यहाँ दु:ख और दरिद्रता तथा अपवित्रता का प्रज्वलन तो हुआ ही नहीं बल्कि दिनों-दिन इनमें वृद्धि ही हो रही है। अत: विचार करने पर आप मानेंगे कि योगाग्नि प्रज्वलित करने से हमारी पुरानी कटु स्मृतियां मिट सकती हैं। हमारे दु:ख दूर हो सकते हैं और आने वाले नये वर्ष में हमारे जीवन में आनंद और उल्लास आ सकता है। इसीलिए होलिका के दिन गोबर और घास-फूस को अग्नि की ज्वाला में जलाना वास्तव में मन की उबड़-खाबड़ अथवा दूषित वृत्तियों को योगाग्नि द्वारा भस्मसात करने की प्रेरणा देता है। इसी कारण इस त्योहार को कई लोग ‘राक्षस विनाशक’ त्योहार भी मानते हैं। क्योंकि यह माया रूपी राक्षसी को ज्ञान रूपी हो-हल्ले से भगाने का त्योहार है।
कई लोगों का कहना है कि होलिका शब्द का अर्थ है ‘भुना हुआ अन्न’। होलिका के अवसर पर लोग अग्नि में अन्न डालते हैं और गेहूँ और जौ की बाली को भूनते हैं। योगियों की बोल-चाल में ज्ञान अथवा योग को अग्नि की उपमा दी जाती है। क्योंकि जैसे भुना हुआ बीज आगे उत्पत्ति नहीं कर सकता वैसे ही ज्ञानयुक्त और योगयुक्त अवस्था में किया गया कर्म भी अकर्म हो जाता है, अर्थात् वह इस लोक में विकारी मनुष्यों के संग में फल नहीं देता। अत: ‘होलिका’ शब्द भी हमें इस बात की स्मृति दिलाता है कि परमपिता ने पुरानी सृष्टि के अंत में मनुष्य को ज्ञान-योग रूपी अग्नि द्वारा कर्म रूपी बीज को भूलने की जो सम्मति दी थी हम उस पर आचरण करें। चंद लकडिय़ों को, उपलों को इकठ्ठा करके जलाने को ही हम होली न मानें बल्कि योगाग्नि में अपने पुराने एवं खराब संस्कारों को दग्ध करें। और आगे के लिए कर्मों को ज्ञानयुक्त होकर करें।
होली के अवसर पर एक-दूसरे पर रंग डालने की प्रथा भी इसी भाव को व्यक्त करती है, जैसे ज्ञान के अनेक नाम – अंजन, अमृत, अग्नि इत्यादि हैं, वैसे ही ज्ञान को रंग भी कहा गया है। ज्ञानी मनुष्य अपने रंग से दूसरों पर भी अपने ज्ञान का रंग चढ़ाता है। उनकी आत्मा रूपी चोली को भी परमात्मा की लाली में लाल करता है। जब तक मनुष्य स्वयं भी ज्ञान में न रंगा जाये और दूसरों पर भी ज्ञान की वर्षा न करे तब तक वह आनन्दित व प्रफुल्लित नहीं हो सकता और तब तक परमात्मा से उसका मंगल मिलन भी नहीं हो सकता।
अत: आज एक-दूसरे पर रंग डालने तथा छोटे-बड़े परिचित-अपरिचित सभी से प्रेम भाव से मिलन की जो रीति है इसका शुरू में यही रूप था कि परमपिता परमात्मा शिव से ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य ने ज्ञान पिचकारी से एक-दूसरे की आत्मा रूपी चोली को रंगा था और एक-दूसरे के प्रति मन-मुटाव तथा मलिन भाव त्याग कर मंगलकारी परमात्मा शिव से मंगल मिलन मनाया था। ज्ञान के बिना मनुष्य भला मंगल मिलन मना ही कैसे सकता है! अज्ञानी और मायावी मनुष्य अपने काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि राक्षसी स्वभाव से दूसरों का अमंगल करता है, उनके अधोपतन का निमित कारण बनता है; वह मंगल मिलन तो तभी मना सकता है जब ज्ञान अबीर आत्मा को रंगे और पुराने विचारों, आचारों, समाचारों और मनोविकारों को योग की अग्नि का ईंधन बना दे। इसीलिए होली को क्रहो-लीञ्ज के रूप में मनाना ही उसका यथार्थ रूप है। हो-ली माना हो चुका। उसको भूल जाना। होली का दूसरा अर्थ है पवित्रता। तो इसीलिए परमात्मा द्वारा लगाए गए ज्ञान रंग से व योग अग्नि से अपनी आत्मा रूपी चोली को होली बनाना है।
तो होली के अवसर पर एक-दूसरे पर रंग डालना, दूसरा, अंतिम दिन होलिका जलाना, तीसरा, मंगल मिलन मनाना तो इन तीनों के आध्यात्मिक रहस्य को लेकर ही होली को मनायें।





