सही मायने में पूर्ण ज्ञान न होना मनुष्य की पूर्णता में बाधक है इसीलिए चाहे स्वास्थ्य हो, चाहे सम्बन्ध हो, दोनों में अतृप्ति है, असन्तुष्टि है। माना कि हम नित्य प्रतिदिन योगासन, प्राणायाम निरोगी होने के लिए करते हैं लेकिन सम्पूर्ण स्वास्थ्य तो नहीं मिलता ना! परमात्मा द्वारा प्रदत्त सम्पूर्ण स्वास्थ्य की कुंजी जिसमें योग, योगासन और उसका प्रयोग शामिल है, जिसको राजयोग कहते हैं। इसी राजयोग से तन-मन-जन संतुलित होंगे और सम्पूर्ण स्वास्थ्य मिलेगा।
योग हमारी शारीरिक क्षमताओं को बढ़ाता तथा स्वास्थ्य लाभ देता परन्तु मनोबल बढ़ाने में असमर्थ है इसलिए राजयोग को योगा के साथ जोडऩा अति आवश्यक है। शान्ति, समरसता और मनोबल के लिए राजयोग से अच्छा कोई विकल्प नहीं है। योगी वो जिसका इन्द्रियों पर संयम हो, जिसमें सद्भावना और दयालुता हो। इसलिए आसन करना ही है हमें लेकिन साथ में हमें इन्द्रियों को भी नियंत्रित करना है तो परमात्मा प्रतिदिन हमें कहते हैं कि अपने को निरोगी बनाने के लिए मुझसे अपने सर्व सम्बन्ध जोड़ो। तो जैसा परमात्मा सोचते हैं वैसा हम भी सोचने लग जाते हैं। इसलिए ये दोनों एक-दूसरे के साथ समानांतर चलने वाली प्रक्रिया है।
योग (राजयोग) से मानसिक शक्तियां विकसित होती -> योग हमारी मानसिक शक्ति को बढ़ाता है। आज जहाँ एक ओर समाज में लोग डायबिटीज़, हाइपरटेन्शन, उच्च रक्तचाप का इलाज ढूंढ रहे हैं और वहीं दूसरी ओर वही बीमारियां लाइलाज बनती जा रही हैं। समाज में बढ़ता तनाव आज की युवा पीढ़ी झेल नहीं पा रही है। उससे छुटकारा पाने के लिए शराब, ड्रग्स आदि का सहारा ले रही है। ऐसे दौर में राजयोग एक ऐसी संजीवनी है जिससे हम अपने जीवन को सम्पूर्ण स्वस्थ रखते हैं। योग हमारी स्थिति को संतुलित करता है। अगर शरीर हम आत्मा का मंदिर है तो हम उसके अन्दर विराजित खूबसूरत चैतन्य मूर्ति हैं। इस जीवन को मंदिर-सा खूबसूरत बनाए रखने के लिए योग को दिनचर्या का हिस्सा बनाना बहुत आवश्यक है। योग बहुत ही फायदेमंद भी है बशर्ते अनुशाषित रूप से किया जाए। योग हमारी विशेषताओं का विकास करता है, योग्यता को बढ़ाता है और तनाव से मुक्त रखता है।
योग से आता है सामथ्र्य -> परमात्मा ने मानव मात्र को सभी शक्तियां वर्सें में दी हुई हैं। किसी को दिया, किसी को नहीं दिया ऐसा नहीं है। लेकिन जो उसके लालन-पालन की कला को जानता है वो उसको विकसित करने का अवसर प्राप्त करता है। परमात्मा ने हर इन्सान में वो जहाँ भी है वहाँ से ऊपर उठने की सहज इच्छाशक्ति दी हुई है। योग उस माहौल को पैदा करने का एक सही माध्यम है। लेकिन जिसको इसका अनुभव नहीं उसको शक होता है कि क्या ये योग से सहज हो सकता है! लेकिन जिसने बीज से वृक्ष बनने की कथा को समझा है उसके लिए सम्भव है। क्योंकि अगर बीज वट वृक्ष में परिवर्तित हो सकता है तो नर भी नारायण रूप में परिवर्तित हो सकता है।
सुख-शान्ति-समृद्धि के लिए करें योग -> मनोविज्ञान खोज कहती है कि मनुष्य सुख, शान्ति और सम्पत्ति चाहता तो है, लेकिन इसके लिए उसके पास पर्याप्त मानसिक शक्ति का अभाव है। मानसिक शक्तियों को बढ़ाने के लिए व उच्च-मानसिक अवस्था के लिए अधिक से अधिक ध्यान(अटेन्शन) की ज़रूरत होती है। यह निश्चित रूप से सम्भव है यदि इसकी सही विधि का पता चल जाए तो।
सबसे पहले जुड़ाव अपने मन से -> योग शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘युज’ शब्द से हुई है। जिसका अर्थ है जुडऩा या जोडऩा। अब यहां तो स्पष्ट है कि किससे जुड़ेंगे? शरीर के अंग तो पहले से ही जुड़े हुए फिर किससे और किसको जोडऩा है? इसका अर्थ तो यह हुआ कि जोडऩा अर्थात् कोई अलग-अलग अस्तित्व रखने वाली सत्ता के साथ सम्बन्ध जोडऩा। आज सभी योगासन, प्राणायाम द्वारा अपने मन को शान्त करने हेतु बहुत प्रयासरत हैं फिर भी असन्तुष्ट और अस्वस्थ हैं। कारण बड़ा ही साफ है कि जो मन को चाहिए वो नहीं मिल रहा है। मन में हमारा संसार बसता है। हम योगासन तो कर रहे होते लेकिन बीच-बीच में हमारा मन कहीं न कहीं चला जाता है। इसलिए सबसे पहले हमें अपने अर्थात् अपने मन से जुडऩा होगा।
स्वयं पर अटेन्शन ज़रूरी -> हमने योगासन कराते हुए गुरूओं को भी देखा है। जो कहते हैं कि आप इन अंगों पर ध्यान दीजिए, मन के विचारों को देखिए इत्यादि। तो सबसे पहले मन को योग से जुड़ाव चाहिए। इसके लिए बार-बार हमें अपने विचारों पर ध्यान देना होगा, अटेन्शन देना होगा कि मैं जो सोच रहा हूँ उससे हटके मेरा ध्यान कहीं और तो नहीं है! तो एक बात तो स्पष्ट है कि योग के लिए शरीर के अंगों पर ध्यान केन्द्रित करें, साथ-साथ मन के विचारों को भी सकारात्मक, रिलेक्स व शांत करें। क्योंकि मन के विचारों का असर भी शरीर के प्रत्येक अंग पर पड़ता है। इसलिए निगेटिव विचारों से बचायें।




