श्रीमद्भगवद्गीता सिर्फ शास्त्र ही नही हैं बल्कि वो जीवन को सार्थक और कर्मयोगी बनाने की ओर प्रेरित करता है। यहाँ ब्रह्माकुमारी बहनें गीता ज्ञान की स्वरूपा हैं। पहले मुझे भी भ्रम था इनके बारे में, परन्तु यहाँ आने के बाद देखा कि ये सभी अपने चरित्र बल, त्याग, तपस्या का अद्भुत संतुलन और दूसरों के लिए आदर्श हैं- ऐसा कहना था स्वामी शिवरूपानंद सरस्वती महाराज जी का। जो गीता ज्ञान सम्मलेन माउंट आबू में आये थे, उनके उद्बोधन के कुछ अंश कहें या उनका अनुभव कहें, उन्हीं के शब्दों में आप सबके सामने है… – महामंडलेश्वर शिवस्वरूपानंद सरस्वती महाराज जी,आचार्य पीठाधीश्वर महामंडेलश्वर ऋषिकुल धाम सेवा संस्थान ट्रस्ट, पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी
विश्व में धर्म प्रधान भारत देश। उसमें भी पुण्यतम्, पवित्रतम्, सतियों एवं रणबांकुरे की भूमि मारवाड़ राजस्थान के माउंट आबू में आयोजित कार्यक्रम में आये महामंडलेश्वर शिवस्वरूपानंद महाराज जी ने अपना अनुभव साझा करते हुए कहा कि संत बनना उतना सरल नहीं है और मैं यह सब सोचने पर मजबूर हो जाता हूँ कि हमारे जैसे पुरूष होने के बाद भी, पढ़े-लिखे होने के बाद भी, इंजीनियरिंग किए हुए हैं, डॉक्टरी किए हुए हैं उसके बाद भी हमको संसारी लोगों की बातों को इतना सुनना पड़ता है। तो कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि हमारी ब्रह्माकुमारी बहनें जब बाहर निकलती हैं, तो इनको क्या-क्या नहीं सहन करना पड़ता होगा! कभी-कभी इन बातों को सोचता हूँ। हमारे से बड़ी तपस्या इन बहनों की है। हमें पुरूष होकर ट्रेन में निकलना मुश्किल हो जाता है और यह बहनें तो ट्रेन में अकेली चलती हैं, पूरी दुनिया का भ्रमण करती हैं। सहन शक्ति कितनी होगी इनके अंदर! त्याग की भावना कितनी होगी इनके अंदर! गीता को सही मायनों में किसी ने उतारा है तो इन बहनों ने उतारा है और कोई नहीं उतार पाए।
इसलिए आज के परिवेश में गीता को जीवन में उतारना बहुत ज़रूरी है। ज्ञान के समान विश्व में कोई दूसरी चीज़ पवित्र है ही नहीं। इसलिए हमारे यहां विश्व में कोई संस्था नहीं है जो महिलाओं के द्वारा संचालित हो। केवल एक संस्था है और वो है ब्रह्माकुमारी संस्था।
ॐ नारायणं पद्मभुवं वशिष्ठं शक्तिं च तत्पुत्र पराशरं च। व्यासं शुकं गौडपदं महान्तं गोविन्दयोगीन्द्रमथास्य शिष्यम्।।
आदि नारायण से परंपरा चली है। नारायणम पद्म भुवम वशिष्ठ। कई लोग कपोल कल्पित कल्पनाएं करते हैं। ब्रह्माकुमारी में तो मन ग्रंथ सिखाया जाता है, मन ग्रंथ बताया जाता है। तरह-तरह की कल्पना हमारे मन में भी भरी गई थी पहले। बहुत कुछ भ्रांतियां हम लोगों के मन में भी थी। लोग तरह-तरह की बातें किया करते थे। वहां पर तो ऐसा होता है, वहां पर तो वैसा होता है। हम भी उनकी बातों में उलझ गए थे।
लेकिन जब राजिम कुंभ छत्तीसगढ़ में ब्र.कु. पुष्पा बहन हैं, वहाँ उनके संपर्क में आने के बाद वह अपने सेंटर ले गईं। वहाँ सब मैंने देखा, सारी स्थिति को समझा, उसके बाद मेरा झुकाव इस संस्था की तरफ हुआ। फिर लोगों की कही सुनी बातों पर मैंने ध्यान नहीं दिया। प्रत्यक्षम् किम् प्रमाणम्। प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है। और तपस्या करना इतना सरल काम नहीं है। किन्तु यहाँ के भाई-बहनों के जीवन से गीता की शिक्षा झलकती है। अब मुझे इस संस्था से जुड़े हुए तकरीबन पाँच साल हो गए हैं।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया: ।।
जहाँ नारियों की पूजा होती है वहां देवाताओं का वास होता है, देवता रमण करते हैं और जहाँ देवता रमण करते हैं वहीं सुख-समृद्धि और संपत्ति होती है। स्त्री हमारे जीवन में कितनी महत्वपूर्ण है! हमें इन बातों को समझना होगा कि हम कौन-से युग में हैं? गीता हमें क्या समझाती है? गीता के अनुसार कैसे चलना है?
यत कार्यम तद अनित्यम।।
जो बना है वह बिगड़ेगा, लेकिन जो बना ही नहीं वह बिगडऩे वाला भी नहीं है। इसलिए गीता का उपदेश, गीता का सद्-उपदेश हमारे लिए उतना महत्वपूर्ण है जितना हमारे लिए योग महत्वपूर्ण है। गीता भगवान की साक्षात वाणी है। गीता के ऊपर शपथ लेते हैं। इसलिए हमारे यहां गीता को उतना महत्व दिया गया है, जितना और किसी ग्रंथ को नहीं दिया गया।
गीता सिखाती है तुम्हें क्या करना है? इसलिए घर से निकल के तुम्हें सन्यास लेने की ज़रूरत नहीं है। जब वैराग्य होगा, गीता तुम्हारे अंदर होगी, गीता का अध्ययन होगा तब गीता का ज्ञान हमारे जीवन में उतरेगा और सन्यास ऑटोमेटिकली अंदर से आएगा। स्वामी विवेकानंद जी महाराज ने भी बताया है कि सन्यास बाहर से नहीं लिया जाता, सन्यास अंदर से लिया जाता है। बाहर का सन्यास पाखंडी बनाएगा और अंदर का सन्यास तुमको सन्यासी बनाएगा। इसलिए मैंने देखा यहां, हमारी बहनें अंदर से सब सन्यासी हैं। भले ही सफेद कपड़ों में हैं। सन्यास कपड़े से नहीं होता, सन्यास तो हम भी लिए हैं, कपड़े हम भी पहने हैं लेकिन सन्यास अंदर से है। इसलिए विवेकानंद जी के शब्द याद रखने होंगे हमें। इसलिए उपनिषद में आता है;
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।
कर्म करते हुए, कर्म योग को जीवन में धारण करते हुए, गीता के उपदेशों का ङ्क्षचतन करेंगे तब गीता तुम्हारे जीवन में उतरेगी। इसलिए कई लोग कहते हैं कि हम गीता को तो मानते हैं पर गीता की नहीं मानते।




