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दादी जी ने सभी को धैर्य, आशा और उमंग का पाठ पढ़ाया

दादी जी बाबा के निर्देशों को बड़ी तपस्या से अमल में लाती थीं। वे बाबा के निर्देश, श्रीमत तथा इशारे को तुरंत पकड़ती थीं और पूरा करके दिखाने में हमारे लिए मार्गदर्शिका की भूमिका निभाती थीं।

दादी प्रकाशमणी को मैं बचपन से जानती हूँ। सन् 1936 मेंं, सिंध-हैदराबाद में जब ओम् मण्डली की शुरुआत हुई तो एक स्नेहमयी, लगनशील, आज्ञाकारी कुमारी के रूप में उनका पदार्पण हुआ। आते ही उनके हृदय में ईश्वर तथा ईश्वरीय परिवार के प्रति भरपूर प्यार देखा। उनका मन-वचन-कर्म हमेशा विशेषता सम्पन्न रहा, कभी साधारण चाल-चलन की तो झलक भी नहीं आई। प्यारे बाबा ने भी उनको आते ही टीचर का पदभार संभलवा दिया। छोटे बच्चों की तो वे दिव्य शिक्षिका थीं ही, कुंज भवन में बड़ों के बीच भी टीचर की भूमिका बहुत अच्छी निभाते देखा। बारी-बारी से सबकी भोजन बनाने की सेवा आती थी तो अपनी बारी में वे भोजन भी बहुत अच्छा बनाती थीं। जीवन के हर कर्म में चाहे स्थूल हो या सूक्ष्म, उनको सदा कुशल ही देखा। बाबा द्वारा बताए गए नियमों के पालन में भी हमारे सामने सैम्पल बनकर रहीं। वे सरलता और स्नेह की मूरत बन मम्मा-बाबा तथा सर्व भाई-बहनों पर अपनापन उड़ेलती रहीं।

जब हम कराची में थे तो प्यारे बाबा उनको ईश्वरीय सेवा के विभिन्न निर्देश देते थे जैसे कि कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में ईश्वरीय संदेश भेजो, महात्मा गांधी जी को ईश्वरीय संदेश भेजो आदि-आदि। दादी जी बड़ी तत्परता से इन सभी को अमल में लाती थीं। वे बाबा के निर्देश, श्रीमत तथा इशारे को तुरंत पकड़ती थीं और पूरा करके दिखाने में हमारी मार्गदर्शिका की भूमिका निभाती थीं।

जब हम आबू में आये तो स्थान, वातावरण, परिस्थितियां बदलने के कारण भिन्न-भिन्न बातें परीक्षा के रूप में सामने आई पर दादी जी को हर परिस्थिति में अचल-अडोल देखा। कभी उनको व्यर्थ संकल्प, बोल में नहीं देखा।

सेवा के क्षेत्र में भी उनके जहाँ-जहाँ कदम पड़े, वहाँ-वहाँ स्थापना का नया इतिहास रचा गया। दादी जी ने कानपुर, लखनऊ, पटना, मुम्बई आदि अनेक स्थानों पर अनेकानेक आत्माओं को प्यारे बाबा के वर्से का अधिकारी बनाया। प्यारे बाबा के अव्यक्त होने के बाद, संगठन के किले को मजबूत बनाया। सभी को धैर्य, आशा और उमंग का पाठ पढ़ाया। यज्ञ परिवार में दिल से दिल मिलाने में और दिलाराम भगवान से दिल का प्यार पाने में पे्ररणाएं भरीं। बाबा के अव्यक्त होने पर मेरे मन में प्रश्न था कि अब मुरली कौन सुनायेगा? प्यारे बाबा ने कहा, दादी(प्रकाशमणी) मुरली सुनायेंगी और पुरानी मुरलियां दोहराई जायेंगी। सचमुच, दादी जी ने ऐसी मुरली सुनाई जो साकार बाबा की भासना हमें मिलती रही। सन् 1974 में दादी और दीदी, दोनों ने मुझे विदेश सेवा के लिए भेजा। प्यारे बाबा की श्रीमत और बड़ों की दुआओं से जर्मनी, अफ्रीका, कनाडा, कैरेबियन आदि स्थानों पर सेवा का बीज़ पड़ा। लंदन तो सेवा का प्रमुख केन्द्र था। उन दिनों पूरे 4 साल मैं मधुबन नहीं आई। हाँ, दादियां पास आती रहीं। सन् 1977 में दादी हमारे पास आई। वहाँ ठण्ड बहुत होती है, मैं अमृतवेला कमरे में ही योग में बैठ गई। दादी ने इशारा किया, बाबा के कमरे में चलो ना, तब से लेकर मैंने निरंतर ऐसी ही आदत बना ली है। दादी ने ही लंदन में ट्रैफिक कंट्रोल प्रारम्भ करने का इशारा दिया। जब दादी विदेश के दौरे पर आती थीं, मुझे यही भासना आती थी कि दादी नहीं, स्वयं बाबा ही आए हैं।

डबल विदेशी भाई-बहनों को देखकर दादी हमेशा ही कहती थीं कि बाप पूर्वजन्म में तो भारत में ही थे, इस अन्तिम जन्म में ईश्वरीय सेवार्थ आप इन भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में आ गये हो। दादी की नैचुरल रूहानियत, उनका ईश्वरीय प्रेम और कल्प पहले की स्मृति पक्की कराने की विधि बड़ी प्रभावशाली थी।

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