मुख पृष्ठलेखमन को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए तीन बातों से बचाएं…!

मन को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए तीन बातों से बचाएं…!

चेंज के लिए मनुष्य पहाड़ों पर छुट्टियां मनाने जाते, इसके पीछे का मकसद यह होता है कि रिफ्रेश होना, थोड़ा चेंज मिल जाए। यानी कि हम सुबह से शाम तक जो भी कर रहे हैं, चाहे दफ्तर में हैं या बिज़नेस कर रहे हैं इससे चेंज चाहिए। हम दिन में जहाँ भी कार्य कर रहे हैं उससे बदलाव के लिए हम वॉक पर जाते हैं ताकि हम उस वाइब्स से चेंज हों, फ्रेश हों। मनुष्य का नेचर है बदलाव या यूं कहें मन का नेचर है नवाचार। यानी कि जो कर रहे हैं उससे हटकर कुछ और। बदलाव की चाहत के पीछे कारण बहुत हैं परन्तु इनमें से कुछ तीन बातों पर विशेष समझने की कोशिश जोकि जीवन से जुड़ी हुई हैं, हमें बोझिल कर रही वो है मन के बैक व सूक्ष्म में चलने वाली क्रिया- क्वेश्चन, करेक्शन और कोटेशन। ये तीन बातें हमारे मन की शक्ति को क्षीण कर रही होती हैं।

क्वेश्चन करना गलत तो नहीं! – वॉकिंग पर हम जाते हैं तो रास्ते में या बगीचे में हरपल नए दृश्य हमारे सामने दिखाई पड़ते हैं और उस पर हमारी सोच चलती है। चलती है ना! फिर और सिलसिला चालू होता है उसके बारे में कि ऐसा क्यों? वैसा क्यों? इस तरह से चलना चाहिए। आज दुनिया बदल गई है, लेकिन ये लोग पुराने ही रवैये से ही चल रहे हैं। ना जाने कितने क्वेश्चन देखे हुए एक दृश्य के बारे में करते हैं। जिसका हमारे जीवन से कोई तालूक नहीं है बस क्वेश्चन्स की झड़ी मन में एक के बाद एक लगती जाती है। ऐसे करने से क्या मेरा मन रिफ्रेश होगा या और ही बोझिल? देखें ज़रा, तो पता चलता इतनी सारी मन की एनर्जी को डिप्लीट करना ये कोई समझदारी है हमारी? क्वेश्चन करना कोई गलत बात तो नहीं लेकिन उसके पीछे हमारे उद्देश्य की पूर्ति होती है जोकि हम चले थे अपने मन को तरोताजा बनाने लेकिन हुआ क्या?

करेक्शन करने की हैबिट! – मन में उठने वाले क्वेश्चन यहां तक ही नहीं रुकते बल्कि उसके बारे में सूझाव भी करता। ऐसा होना चाहिए, ऐसा करना चाहिए, इनको इतना भी अक्ल नहीं, कैसा पहनना चाहिए, कम से कम इतना तो शिष्टाचार होना ही चाहिए ना! माना कि हमारे अन्दर न सिर्फ क्वेश्चन करने की आदत होती बल्कि उसे करेक्शन करने से भी अपनी बहुत सारी एनर्जी खर्च कर देते हैं। वो भी अपने मत अनुसार। सच्चाई हो या न हो। सुबह से शाम तक अगर हम साक्षी होकर मन में चलने वाली सोच का निरीक्षण करें तो पता चलता है कि इसका मेरे जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं, कोई तालुक नहीं। बेवजह अपने आपको भारी कर देते हैं।

कोट करना— मजे की बात यह है कि हमने जो गुस्सा करते देखा, वो गलत था। लेकिन ये भूल जाते कि हमारा उससे लेना-देना नहीं फिर बिना मतलब उसको कोट करते हैं। जस्टिफाई करेंगे, गुस्सा करना तो गलत है ना! शान्ति से भी तो बात कही जा सकती है ना! सामने वाले को भी तो ऐसे वक्त पर शान्त रहना चाहिए ना! फिर वही गलत है, तो गलत कहना पड़ेगा ना! यह सोच का सिलसिला थमता ही नहीं। इससे क्या होता है कि मन हल्का होता या भारी? सोच-सोचकर और बोझिल हो जाते हैं, थक जाते हैं। गए थे खुली हवा में रिफ्रेश होने, लौटे और ही बोझिल होकर, भारी होकर।

हमारा मकसद है कि अपने आपको तरोताजा, उमंग-उत्साह में रखना। उसकी पूर्ति के लिए हम बदलाव चाहते हैं ताकि जहाँ हम जायें वहां कुछ चेंज मिले, पहले का सब भूल जाएं और हल्का हो जाएं। आपेही देखिए कि ऐसा हमारे जीवन में रोज़ हो रहा है। एक-एक पल जीवन को भारी कर रहा या हल्का! फिर शिकायत करते हैं पता नहीं कि आज क्यों ऐसा लग रहा है, आज मूड ही ठीक नहीं है, काम करने में मन ही नहीं लगता है, उन्होंने मेरा मूड ही खराब कर दिया। ऐसा होता है ना! दृश्य बाहर का, गलती वो कर रहे और मन की बैटरी खर्च हम अपनी कर रहे हैं, सोच-सोचकर। माना कि उनकी गलती का प्रभाव हमारे मन की बैटरी को डिस्चार्ज कर रहा है तो हम कितना सही कर रहे? सोचें ज़रा, उनकी गलती हमारी गलती बन गई। परिणाम ये हुआ जो निगेटिव है उससे हमारा मन भारी हो गया। ऐसा हर क्षण, हर दिन हम बेवजह से बाहर का बोझ ढो रहे होते हैं।

हमारा कहने का भाव यही है कि हमारे में ये आदत हो गई कि दूसरों के बारे में क्वेश्चन करना, गलत ठहराना, फिर उसमें करेक्शन करना और उसको जजमेंट देना कि यही सही है और वो गलत है। इनपर हमें काम करना होगा, नहीं तो मिला यह अमूल्य जीवन यंू ही निरर्थक कर बैठेंगे।

RELATED ARTICLES

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

Most Popular

Recent Comments