हम अगर रोज़ अमृतवेले बाबा से मिलकर, बाबा से शक्ति लेके, बाबा से किरणें लेकर और लक्ष्य रखें कि मैं आत्मा तो हूँ लेकिन कौन-सी आत्मा हूँ! विश्व-परिवर्तक आत्मा हूँ, बाबा के दिलतख्तनशीन हूँ, विश्व कल्याणकारी हूँ… डायरेक्ट बाबा ने हमको अपना बनाया है, बाबा ने हमको चुना है। अगर ऐसे नये-नये स्वमान हम रोज़ स्मृति में रखें और सारा दिन ऐसे व्यतीत करें, तो एक तो वैराइटी हो जाएगा और दूसरा नशा चढ़ा रहेगा। निश्चय तो है पर नशा भी हो। इससे पुरुषार्थ में रमणीकता आ जाएगी और खुशी भी रहेगी। तो आत्म-अभिमानी होकर रहने से मज़ा आता है। जैसे सीट पर बैठने से खुमारी होती है भले डॉक्टर है लेकिन जब डॉक्टरी काम में है उस समय का नशा और जब घर पर रहता है, रिवाज़ी हो जाता है तो फर्क तो हो जाता है ना! तो सीट पर सेट रहो जिससे हमको आत्म-अभिमानी बनकर रहना या चलना बहुत सहज हो जाता है। इससे ही जो हमारे व्यर्थ संकल्प हैं वो खत्म हो जाते हैं क्योंकि हमने मन को बिज़ी रख दिया। मन अगर स्वमान में बिज़ी रहा तो व्यर्थ संकल्प भी हमारे कट हो सकते हैं क्योंकि व्यर्थ संकल्पों की आदत है, तो जब भी हम एकान्त में बैठेंगे, योग में बैठेंगे या कुछ शुभ सोचने के लिए बैठेंगे, तो व्यर्थ संकल्प ज़रूर उसमें विघ्न डालेंगे। व्यर्थ संकल्पों के कारण ही हमारा समय भी व्यर्थ जाता है। अच्छा बात सुनी, बातें तो बाबा ने कहा आयेंगी ही। जब हमारी स्थिति कभी-कभी ढीली हो जाती है तो व्यर्थ संकल्पों को चान्स मिल जाता है। और मैजारिटी या तो व्यर्थ संकल्पों का पेपर आता है या स्वभाव-संस्कार का पेपर आता है। लेकिन अगर हमारा मन स्वमान में स्थित है तो हम दूसरों को भी उसी स्वमान में देखेंगे। यादगार में देखो यह जो माला बनाई हुई है उसमें मणके सब समान होते भी नम्बरवार हैं। कहाँ एक नम्बर, कहाँ 108 वां नम्बर कितना अन्तर होगा। तो जब हमको पता है कि नम्बरवार होने ही हैं तो संस्कार भिन्न होंगे ही। जैसे मम्मा की विशेषता थी, जब किसकी रिपोर्ट मम्मा के पास जाती थी तो मम्मा उसको बुलाती ज़रूर थी, मम्मा की हैण्डलिंग पॉवर ऐसी अच्छी थी, जो हमको भी सीखना चाहिए। मम्मा कहती थी देखो हरेक में कमियां तो हैं, जिसकी कमी हमको दिखाई देती है उसकी चाल-चलन का प्रभाव पड़ता है। कमियां हैं लेकिन लास्ट बाबा का बच्चा भी बाबा को प्रिय है, क्यों उसमें विशेषता क्या है? भले धारणा नहीं है, उसमें विशेषता ये है जो बड़े-बड़े विद्वान, आचार्य साधारण तन में आये हुए बाप को नहीं पहचान सके लेकिन इस बच्चे ने बाप को पहचान कर मेरा बाबा तो कहा। विशेषता हुई ना! तो मम्मा पहले उनकी विशेषता का वर्णन करती थी, बच्ची आप में यह-यह विशेषता है, तो उन विशेषताओं के आगे ये छोटी-सी बात क्या है! तुम ऐसी हो, तुम ऐसी हो, ये नशा चढ़ा देती थी। तो मम्मा के आगे जाने से कोई डरता नहीं था। जैसे बाबा ने कहा था तुम सिर्फ शिक्षा नहीं दो, हम समझते हैं ये गलती करती रहती है इसको समझायेंगे नहीं तो कैसे होगा, लेकिन बाबा ने कहा शिक्षा के साथ सहयोग और स्नेह दो। जैसे रास्ते पर कोई गिरा हुआ हो तो बाप क्या करेंगे, उसको और ही लात मारकर जायेंगे या उसको उठाएंगे! तो जो अपनी मंजि़ल से गिर गया, उस समय तो वो और ज्ञान की बात समझेंगे नहीं। तो ये अटेन्शन देना है कि हम उसको सहयोग भी देते हैं, स्नेह भी देते हैं और शिक्षा भी देते हैं! अगर आत्मा का पाठ हमको पक्का करना है तो इसके लिए हमको ये बातें भी ध्यान में रखनी पड़ेगीं।
मन अगर स्वमान में बिज़ी रहे तो व्यर्थ संकल्प कट हो जाते
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