परमात्म मिलन का ज़रिया… पवित्रता

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स्व-परिवर्तन से विश्व परिवर्तन अर्थात् स्वयं के कल्याण से ही विश्व का कल्याण होगा। अगर हम ऐसी शुभकामनायें लेकर आगे बढऩा चाहते हैं तो पहली शर्त ही है स्वयं का कल्याण करना। इसी संदर्भ में ‘स्व’ के प्रति सही मायने में अपने को जानना और उसे सच्चे रूप में समझना। अगर देखा जाये तो हम एक पवित्र आत्मा हैं, पवित्रता हमारी पर्सनैलिटी है, पवित्र रूप ही हमारी रीयल्टी है और रॉयल्टी भी।
स्व-हित के लिए पवित्रता का होना बहुत ज़रूरी है। हम इसे सूक्ष्मता से देखें, समझें व मूल में जायें तो उस निष्कर्ष तक पहुंचेंगे कि हमारी वृत्ति में क्या है। सबसे पहले हमारी वृत्ति ही वो केन्द्रबिन्दु है जहां से हमारी पर्सनैलिटी का निर्माण होता है। तब तो कहते हैं, जैसी आपकी वृत्ति होगी वैसी आपकी दृष्टि होगी और वैसी ही आपकी कृति होगी। तो मूल आधार वृत्ति है ना! वृत्ति को पवित्र करना, यही श्रेष्ठ पुरुषार्थ है। वृत्ति है बीज और बीज से ही तो वृक्ष निकलकर फैलता है ना! अर्थात् ये उसी की रचना हुई ना! अब हम इसे गहराई से समझते हैं।
पवित्र स्मृति व संकल्प हमें ऊर्जावान बनाते हैं। अर्थात् हम अपने को तरोताज़ा महसूस करते हैं। तो हमें अपनी वृत्ति को परखने और समझने के लिए अपने संकल्प और स्मृति को देखना होगा कि ये कैसी क्वालिटी के हैं। ये स्व-हितकारी हैं या अकल्याणकारी हैं। अगर स्व-हितकारी हैं तो पवित्रता का बल स्वयं ही स्वयं में अनुभव करेंगे। पवित्रता परमात्मा से मिलन कराने का ज़रिया बनती है। जितना हम पवित्र हैं उतना ही परमात्मा के नज़दीक हैं। पवित्रता परमात्मा का प्यारा बनने में एक श्रेष्ठ साधन है। पवित्रता अर्थात् पवित्र वृत्ति। पवित्र वृत्ति परमात्मा की दुआएं प्राप्त कराती है। न सिर्फ परमात्मा की दुआएं अपितु उसके आस-पास सारे वातावरण या साथियों के दुआओं के पात्र बनाती है।
हम विशेष तौर पर अमृतवेले परमात्मा के साथ मिलन मनाने के लिए बैठते हैं तब हम क्या करते हैं? सोचें ज़रा! यही तो करते हैं ना कि परमात्मा पवित्रता का सागर है, वो इतना प्योर है तब तो इतना शक्तिशाली है! और हम उनके बच्चे भी उतने ही प्योर हैं। यही तो करते हैं ना! परमात्मा सर्वशक्तिवान है तो हम मास्टर सर्वशक्तिवान हुए ना! अर्थात् जो परमात्मा में शक्ति व ऊर्जा है वो हममें भी है। माना हम सर्व शक्तियों के खज़ानों के मालिक हैं। ऐसी महसूसता हम विशेष तौर पर अमृतवेले करते हैं।
पर कभी-कभी हम अपने आपको देखने और जानने की कोशिश करते हैं तो अपने में कहीं न कहीं कमी-कमज़ोरी का एहसास होता है। ऐसा क्यों होता है? इस तरफ आपका ध्यान दिलाने की कोशिश करते हैं। कमज़ोरी महसूस करने के मुख्यत: तीन कारण हैं। पहला परचिंतन, दूसरा परदर्शन, तीसरा परमत। हम पुरुषार्थ के मार्ग में पवित्रता की स्मृति को व अपने स्वयं में मौजूद शक्तियों से विस्मृत हो जाते हैं तभी तो निर्बलता का एहसास होता है। परङ्क्षचतन का सीधा सम्बंध हमारी सोच से है। और सोच का केन्द्रबिन्दु हमारी वृत्ति है। जैसी वृत्ति है वैसा ही सोच व चिंतन हमारे चित्त पर आता है। वृत्ति माना वृत्त, गोल, वृत्ताकार। अगर बार-बार कमज़ोरी के संकल्प हमारे चित्त पर आते रहते हैं तो हमारी वैसी ही वृत्ति बनती जाती है। तो कहते भी हैं ना, परचिंतन पतन की जड़ है। यानी कि पतन की ओर हमें ले जाती है।
दूसरा है परदर्शन। माना पराया दर्शन। अर्थात् जो भी हम बाहर देखते हैं वो सोच व चित्र के माध्यम से हमारे मन के अंदर रिकॉर्ड होते हैं। और मन के द्वारा बारंबार ऐसा होने पर वो चित्र हमारे मानस पटल पर उभरता रहता है। उससे हमारा देखने का नज़रिया वैसा ही बन जाता है। मान लो कि हमने लक्ष्य विरोधी चित्र देखा है और उसी का मानस पटल पर बारंबार देख कर उसी की फीलिंग में रहते हैं तो हमारी वृत्ति वैसी ही बनती जाती है। उसी की टेस्ट हमें अपने अतीन्द्रिय सुख से वंचित करती है। इस जग में यदि सबसे सुंदर, श्रेष्ठ व शक्तिशाली कोई है तो सत्यम् शिवम् सुंदरम् ही है। उसके सामने सब फीके और नाशवान है। तो यदि हमें स्वयं को शक्तिशाली बनाये रखना है तो परदर्शन से स्वयं को बचाये रखना होगा।
तीसरा है परमत। परमत ने हमें कितना भटकाया है, इसके हम सभी अनुभवी हैं। शास्त्रों की मत, व्यक्तियों की मत, देहधारी गुरुओं की मत से हम बखूबी वाकिफ हैं। उससे न तो हमारा स्व-कल्याण हुआ और न ही औरों का। हम गिरते ही आये। अब परमात्मा हमें श्रेष्ठ मत दे रहे हैं क्योंकि हमारा कल्याण इसी में है और विश्व का भी। तब तो कहा, स्व-परिवर्तन से विश्व परिवर्तन। माना कि स्वयं की रीयल्टी से पर्सनैलिटी बनती और उससे रॉयल्टी आती अर्थात् व्यवहारिकता आती। तो इन सबका केन्द्रबिन्दु हमारी रीयल स्मृति, पवित्र वृत्ति ही है। हम इसे सही रूप से समझकर इसका विधिपूर्वक पुरुषार्थ व अभ्यास करते रहें तो ही विश्व परिवर्तक के टाइटल के योग्य बन पायेंगे। तो पुरुषार्थ में सम्पूर्ण पवित्रता को अपनाना ही होगा। अब इससे समझौता करना माना ही अपने आप को धोखा देना। अब समय हमारे परम कत्र्तव्य का इंतज़ार कर रहा है।

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