कर्म का आचरण किया जाना ही है…यथार्थ रूप में कर्मयोग

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भगवान ने एक बहुत सुन्दर बात कही कि कर्मयोग ये मानव का सनातन कत्र्तव्य है और इतनी सुंदर बात कहते हुए भगवान कहते हैं यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है, जिससे यज्ञ पूर्ण हो। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी मनुष्य करता है बंधन है। यज्ञ पूर्ति के लिए संगदोष से अलग रहकर कर्मों का आचरण करना है। जब यह बात सुनते हैं तो लोग सोचते हैं कि क्या रोज़ हवन करना होगा! दूसरी सोचने की बात तो यह है कि अगर युद्ध का मैदान हो तो अब युद्ध के मैदान में भगवान यज्ञ करने के लिए प्रेरणा क्यों देंगे? युद्ध करना है, प्रैक्टिकल बनने की बात है। तो वहाँ यज्ञ करने की बात क्यों आ जाती है? यज्ञ का मतलब यहाँ कुछ और है।
यज्ञ जब भी व्यक्ति करता है तो किसलिए करता है? हमेशा देखा जाता है कि जब भी संसार में, घरों में यज्ञ होता है तो शुद्धिकरण की प्रक्रिया के लिए ही यज्ञ किया जाता है। जैसे किसी ने नया मकान लिया,घर लिया तो घर में जाने से पूर्व यज्ञ करते हैं। क्योंकि घर के वातावरण का शुद्धिकरण होता है। घर का शुद्धिकरण करने के बावजूद भी देखा जाता है दूसरे दिन से ही कलह-क्लेश कभी-कभी आरम्भ हो जाता है। तो क्यों? वातावरण का शुद्धिकरण नहीं हुआ? ऐसा नहीं है लेकिन यहाँ जिस यज्ञ की बात की गई है वो है जीवन रूपी यज्ञ।
जैसे यज्ञ के अन्दर तीन चीज़ों को स्वाहा करना होता है – 1. जौं- जौं लम्बे होते हैं ये प्रतीक है हमारे तन का 2. तिल- सूक्ष्म होता है ये प्रतीक है हमारे मन का 3. घी- लिक्विड होता है ये प्रतीक है धन का। परंतु फिर भी प्रैक्टिकल में देखा जाता है कि जिस आस्था, विश्वास और मनोकामना के साथ यज्ञ हवन किया गया, कुछ समय बाद पुन: वो समस्याएं, परिस्थितियां खड़ी हो जाती हैं क्यों?
वास्तव में उसका सूक्ष्म भावार्थ है कि जीवन के अन्दर परिस्थितियां, समस्याएं कलह-क्लेश क्यों आता है? तो तन जो प्रतीक है जिस प्रतीक के लिए ही हम जौ को स्वाहा करते हैं यानी तन के द्वारा किए गए बुरे कर्म, बुरे संस्कार उसको स्वाहा करो। जब इन बुराइयों को स्वाहा करते हैं तब हमारे तन का शुद्धिकरण होता है। दूसरा मन के अन्दर जो बुरे विचार हैं उनको स्वाहा करो, तो मन का शुद्धिकरण होता है। और धन जो बुरे रास्तों पर, बुरी आदतों के पीछे जा रहा है वहीं घर के अंदर अशांति को ले आता है। तो बुरी आदतों को स्वाहा करो। जिससे धन का शुद्धिकरण होने लगता है। तन, मन और धन जो बुराई के मार्ग पर आगे बढ़ रहा है। उन बुराइयों को स्वाहा करो और जब इन तीनों का शुद्धिकरण होता है माना जीवन का शुद्धिकरण हुआ। इसीलिए भगवान ने कहा कि यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। भावार्थ- यह जीवन रूपी यज्ञ के शुद्धिकरण की प्रक्रिया में जो कर्म हम कर रहे हैं वो यथार्थ कर्म हैं। जिससे जीवन रूपी यज्ञ सम्पूर्ण होता है। इसके अतिरिक्त मनुष्य जो कुछ भी करते है वो बंधन में बांधने जैसा हो जाता है। और विशेष एक सावधानी देते हैं कि यज्ञ पूर्ति के लिए संगदोष से अलग रहकर कर्मों का आचरण करो।
बार-बार गीता में यह बात आयी है क्रक्रसंगदोष – संग एक दोष हैञ्जञ्ज। अक्सर हम यही समझते रहे कि मनुष्य का संग यानी बुरे लोगों के साथ हम संग ना करें, किनारा कर लें। कई लोग किनारा भी कर लेते हैं। परंतु आज मनुष्य का संगी-साथी कोई है तो वो है टेक्नोलॉजी। मोबाइल सबसे बड़ा संग है और उस संग के प्रभाव में जब आ जाता है, उसकी अधीनता में जब आ जाता है तो कभी-कभी व्यक्ति को यह भी समझ में नहीं आता है कि उस मोबाइल के माध्यम से जब वो सारी दुनिया से जुड़ जाता है तो कहाँ-कहाँ भटक जाता है। कौन-सी कौन-सी राहों में भटक जाता है कि जीवन का अशुद्धिकरण हो जाता है। पहले जब माँ-बाप देखते थे कि बच्चा इस व्यक्ति के संग में आ रहा है तो बच्चे को रोकने का प्रयास करते थे। बेटा ये संग ठीक नहीं है। लेकिन आज कल मोबाइल के अंदर वो बच्चा कहाँ-कहाँ घूम रहा है ये पता भी नहीं चलता और जब पता ही नहीं चलता है तो कितनी प्रकार की अशुद्धियां आ जाती हैं जीवन में। इसलिए भगवान कहते हैं जीवन पूर्ति के लिए संगदोष से अलग रह कर के कर्म का आचरण करना है।
भगवान कहते हैं प्रजापिता ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजा को रचकर कहा कि इस यज्ञ के द्वारा तुम वृद्धि को प्राप्त करो। ये यज्ञ जिसमें तुम्हारा अनिष्ट ना हो, विनाश रहित इष्ट संबंधी कामना की पूर्ति करेगा। इस यज्ञ के द्वारा देवताओं की उन्नति करो अर्थात् देवी संस्कारों की उन्नति करो।

देवताओं के अंदर दिव्य संस्कार होते हैं। जब हम अपने अंदर वह दिव्य संस्कार जागृत करते हैं तो जीवन के अंदर आगे बढऩे लगते हैं। वे दैवी संस्कार, वे देवता तुम लोगों की उन्नति करेंगे। जीवन रूपी यज्ञ की शुद्धि के लिए दैवी संस्कार की वृद्धि करना आवश्यक है।
पहले के जमाने में जब कई परिवार इक_ा रहते थे, तब दादा अपने पोते को उंगली पकड़ कर मंदिर तक घुमाने ले जाते थे और जब वह हाथ जोड़कर प्रणाम करते थे तो ये देख कर पोता भी हाथ जोड़ कर प्रणाम करता। साष्टांग प्रणाम करते तो पोता भी करता और जब वे दान पेटी में एक रूपया डालते तो वो भी धोती खींचने लगता कि मुझे भी दान पेटी में पैसे डालने हैं और फिर थोड़ी देर मंदिर की सीढिय़ों पर बैठ कर वापस आ जाते थे। पहले दिन तन और धन गया दूसरे दिन शाम होते ही मन जाता है तो पोता दादा को कहता है चलो जाना है। अगर दादा ने मना किया तो दादी को ले जाता है। साष्टांग प्रणाम करके दादी को भी करने के लिए कहता है और 10 पैसे मांगता है। जब तक ना दो तो उधम मचाता है। इस तरह संस्कार दिए जाते थे।
आज कल माता-पिता शहरों में रहते हैं। दादा-दादी कहीं गांव में। माता-पिता दोनों ही काम पर जाते हैं। और जब काम से आते हैं तो पिता बच्चे से कहते हैं- बेटा पैसे लो और नीचे से सिगरेट लेकर आओ, बच्चा लाकर देता है। पिता सिगरेट पीकर कहते हैं- सर दर्द कम हुआ। पहले दिन तन और धन गया दूसरे दिन अपने आप बच्चे का मन जाता है और बच्चा कहता है मैं भी सिगरेट पी लूं सर दर्द कम होगा।
आज की दुनिया में ये संस्कार दिए जाते हैं इसीलिए जीवन रूपी यज्ञ अशुद्ध होता जा रहा है। जहाँ जीवन रूपी यज्ञ के शुद्धिकरण की प्रक्रिया में जो कर्म का आचरण किया जाता है वही यथार्थ रूप में कर्म योग है।

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