आजकल एक शब्द हमारी बातचीत में बार-बार आता है कि यह आपकी दुआ है, इसके लिए आपकी दुआ चाहिए, यह बड़ों की दुआ है। दुआ शब्द का इतना प्रयोग पहले नहीं था। होते-होते अभी काफी अधिक हो गया है। चलो, यह मानकर चलते हैं कि हम योगी लोग हैं, पवित्र लोग हैं, भगवान के बने हैं, उसकी आज्ञा पर चलते हैं, उनकी दुआ काम करती है। वो कुछ हमारे प्रति अच्छी भावना रखें तो वो भी सहायक होती है। ऐसा मान लेते हैं। फिर इसका मतलब यह भी तो निकलता है कि कोई ब्राह्मण कुलभूषण किसी के प्रति कुछ बुरा सोचता है, उसकी बद्दुआ भी लगती होगी। अगर दुआ होती है तो बद्दुआ भी होती होगी। मन में किसी के प्रति ऐसा है कि इसने हमें बहुत दु:खी कर रखा है, हम इससे बहुत परेशान हैं, इसने हमारे जीवन में बहुत क्लेश पैदा किया हुआ है, यदि ऐसी भावना निकलती होगी तो बद्दुआ भी निकलती होगी। कोई-कोई दुर्वासा ऋषि भी होंगे। अगर हम किसी को शत्रु मान लेंगे और हमारे मन में उसके प्रति दुर्भावना आ जायेगी, सद्भावना की बजाय, शुभ-आशय के बजाय तो इसका उस पर असर तो होगा, हम चाहें या न चाहें। कइयों को हमने मुख से स्पष्ट कहते हुए देखा है, जिससे उनकी अनबन हो, जिससे उनको दु:ख होता हो, उसको बोल-बोलकर कहते भी हैं कि इसका ऐसा हो, वैसा हो। कई वचन तक नहीं कहते होंगे लेकिन मन में आता होगा कि उस आत्मा का, उस व्यक्ति का नुकसान हो। अगर दो-तीन, चार-पाँच साल तक उस व्यक्ति के प्रति इसने ऐसा सोचा तो यह बहुत घातक होगा। अगर आदमी किसी को तलवार मारता है तो सबसे पहले मन में सोचता है कि इसको तलवार मारुँ। बहुत लोगों ने कहा है कि जब आप मन में सोचें कि यह बुरा काम करें, तो वो बुरा काम हो ही गया। सिर्फ एक कदम का फासला रहा, अगर आपको मौका मिलता या और कोई रुकावट पेश नहीं आती तो आप कर ही डालते। इसका मतलब है कि मन से सोचना भी आधे करने के बराबर तो हुआ। किसी व्यक्ति के बारे में आपने बुरा सोचा माना उस व्यक्ति का आधा बुरा तो आपने किया ना? अगर किसी के प्रति शत्रुभाव रखेंगे, पाप करते रहेंगे और दु:ख देने के संकल्प करते रहेंगे तो बाबा ने कहा है कि दु:ख दोगे तो दु:खी होके मरोगे इसलिए न दु:ख दो और न दु:ख लो। फिर भी यदि हम उसको अपना शत्रु समझकर और ही दु:ख दे रहे हैं तो इसके परिणामस्वरुप उसके मन में भी हमारे प्रति दु:ख देने का चिन्तन चलता है। योग करके हम जो थोड़ी-सी कमाई, थोड़ी-सी शक्ति अर्जित करते हैं उस शक्ति से किसी का घात करने के लिए तुले हुए हों तो आप सोचिये योगी बनने का क्या फायदा हुआ? किसी को पिस्तौल दी जाती है सुरक्षा के लिए। परन्तु यदि वह घर वालों को ही बन्दूक मारने लगे तो क्या कहेंगे उसको? ऐसा ही हाल हमारा हो गया। अत: शत्रुता का भाव, वैर का भाव, घृणा का भाव, द्वेष का भाव, ईष्र्या का भाव, किसी के प्रति कटुता का भाव सबसे बड़ा खराब भाव है। आप कितनी भी कोशिश कर लीजिये, एक हफ्ता लगातार योग में बैठे रहिये लेकिन आप योग में टिक नहीं सकते। मन सिंहासन है, इस सिंहासन पर एक ही राजा बैठ सकता है। एक नगरी का एक राजा होता है। इस मन रुपी सिंहासन पर शिव बाबा को बिठा दीजिये या शत्रु को बिठा दीजिये। किसी व्यक्ति के प्रति शत्रु का भाव रखेंगे, घृणा-द्वेष का भाव करेंगे तो शिव बाबा वहाँ से चले जायेंगे। अगर आपने शिव बाबा को बिठाया तो शत्रु भाव आ नहीं सकता। क्योंकि बाबा ने कहा हुआ है, बाबा-बाबा कहोगे तो माया भाग जायेगी। अगर मन रुपी सिंहासन पर बाबा को बिठायेंगे तो शत्रु के लिए जगह ही नहीं रहेगी। अब आप ही सोच लीजिये कि दोनों में से आप किस को पसन्द करते हैं।
योगी व्यक्ति परमात्मा से योग लगाना चाहता है क्योंकि उसके मन का मीत वही है। उसकी बजाय यदि वह यह समझता है कि फलाने ने मुझे तंग किया है, फलाने ने मुझे परेशान किया है, फलाना व्यक्ति खराब है तो वह अपना ही अकल्याण कर लेता है। कहा गया है कि आत्मा अपना ही मित्र, अपना ही शत्रु है। हम स्वयं ही अपने से शत्रुता कर रहे हैं, और कोई नहीं कर रहा है। इसलिए सबसे पहली जो बात है हमारे योगी जीवन की, वो है सब के प्रति शुभ-भावना और शुभ-कामना। इसको हम साधारण बात समझते हैं। शुभ-भावना माना सबका भला हो। सबका भला हो, जब तक हमारे मन में यह भाव नहीं है, हम योगी ही नहीं हैं। इसलिए गीत में कहा गया है, योगी वही है जिसका कोई शत्रु नहीं है। यह हमें बिल्कुल पूरी रीति से पता होना चाहिए।