गीता-भगवान् की वाणी

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गीता की यह एक मुख्य विशेषता है कि वह आत्मा और परमात्मा के मिलने के मार्ग का अर्थात् योग का सविस्तार परिचय देती है। गीता में आत्मा को न केवल योग के लिए पे्ररित और उत्साहित किया गया है बल्कि उसमें योग की विधि और योग से प्राप्त होने वाली सिद्धि यहाँ तक कि योग की पूर्ण सिद्धि प्राप्त होने से पहले शरीर छूट जाने पर भी प्राप्ति का बोध कराया गया है और सच्चे योगी के लक्षण क्या हैं, योगी की दृष्टि, वृत्ति, स्मृति और स्थिति क्या होनी चाहिए, उसे किन नियमों का पालन करना चाहिए और कौन-कौन से दैवी गुण धारण करने चाहिए, यह ऐसे मनोरम तरीके से बताया गया है कि इसे बार-बार पढऩे और सुनने का मन करता है और मनुष्य का मन ऐसी स्थिति प्राप्त करने को लालायित हो उठता है। बिना वायु के स्थान पर जैसे दीप शिखा स्थिर रहती है, वैसे ही मन उस परमपिता परमात्मा की स्मृति में कैसे स्थिर हो और उस अभ्यास के मार्ग में आने वाले विघ्नों को कैसे पार किया जाये, इसका भगवान् ने विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। गीता की त्रिवेणी की यह तीसरी धारा है जो मनुष्य के मन को शीतलता प्रदान करती है और पवित्र बनाती है।
इस प्रकार, गीता न केवल एक दर्शन-ग्रन्थ है बल्कि एक सर्वोत्तम नीति-शास्त्र भी है, एक योग-शास्त्र भी है और जीवन-दर्शन प्रशस्त करने वाली भी है। स्वयं गीता के हरेक अध्याय के अन्त में गीता को एक योग-शास्त्र और उपनिषद भी कहा गया है।
गीता-भगवान् की वाणी
परन्तु इन सब के अतिरिक्त गीता की सर्व प्रमुख विशेषता, जो अन्य किसी में भी नहीं है, वह यह है कि गीता-ज्ञान स्वयं भगवान् ने दिया और इसलिए इसका युक्ति-युक्त नाम क्रश्रीमद्भगवद्गीताञ्ज है और इसके वक्ता के लिए गीता में ”भगवानुवाच’ शब्दों का उल्लेख है। जो स्वयं भगवान् की वाणी हो, वह निश्चय ही ‘सत्यं, शिवं और सुन्दरम्’ होगी ही और सब शास्त्रों में शिरोमणी भी कहलायेगी ही। यों तो संसार में हरेक धर्म-सम्प्रदाय का अपना-अपना शास्त्र है परन्तु गीता की यह विशेषता है कि वह किसी सम्प्रदाय का प्रतीक न होकर एक सार्वभौम और शाश्वत धर्म का शास्त्र है क्योंकि वह सर्व धर्मों की आत्माओं के परम पिता परमात्मा की वाणी है। यही कारण है कि भारत में सभी धर्म सम्प्रदायों के अनुयायी गीता को मान देते हैं। यहाँ तक कि भारत से बाहर जो धर्म स्थापित हुए, वे भी गीता की महानता को स्वीकार करते हैं। अत: न केवल भारत में ही सभी आचार्यों ने गीता को सर्वोत्तम मान कर इस पर टीका लिखी है बल्कि ईसाई धर्म को मानने वाले कई दार्शनिकों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। उदाहरण के तौर पर आल्डॉस हक्सले ने कहा है कि संसार में जितने दर्शन-ग्रन्थ हैं, गीता उनमें सबसे स्पष्ट और सबसे अच्छा सुसंगत आध्यात्मिक विवरण है। गीता के एक शाश्वत धर्म शास्त्र होने के कारण ही इसके अनुवाद देश-विदेश की प्राय: हर मुख्य भाषा में हुए हैं और यह इतनी लोकप्रिय है

कि घर-घर में लोग इसका पारायण करते हैं। महात्मा
गाँधी ने कहा है कि मुझे भगवद्गीता से ऐसी सांत्वना मिलती है जो बाइबल के सरमन ऑन दि माउंट से नहीं मिलती। वे कहते हैं कि जब जीवन में मुझे निराशा होती है और प्रकाश की कोई किरण नहीं दिखाई देती तब मैं गीता ही की शरण लेता हूँ। स्वयं आद्य शंकराचार्य ने भी कहा है कि गीता सभी वेदों शास्त्रों का सार है और इससे सभी पुरुषार्थ सिद्ध होते हैं। डॉ. राधाकृष्णन् ने गीता पर अपनी टीका में बताया है कि गीता का बुद्ध धर्म की महायान शाखा पर विशेष प्रभाव पड़ा और चीन, जापान तथा जर्मनी में भी इसका विशेष प्रभाव पड़ा।
गीता का महत्व कम होने का कारण
अत: यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि जैसे भारत भगवान् की अवतार भूमि है, जैसे शिवरात्रि महारात्रि है, जैसे माला का मेरु और फूल सर्व प्रमुख हैं, वैसे ही सभी शास्त्रों में गीता स्वयं भगवान् की अमृतवाणी होने के नाते सभी शास्त्रों की जननी है और यह सर्व शास्त्र शिरोमणि है। परन्तु दो भूलें हो जाने के कारण लोगों की दृष्टि में इसकी महानता उतनी नहीं है जितनी होनी चाहिए। एक तो यह कि वास्तव में गीता ब्रह्मा, विष्णु, शंकर के भी रचयिता, देवों के भी देव, सभी आत्माओं के परमप्रिय माता-पिता ज्योर्तिबिन्दु परमात्मा ही की वाणी है जिन्हें कल्याणकारी होने के कारण क्रशिवञ्ज कहा जाता है और जिनका ही एक गुणवाचक नाम क्रकृष्णञ्ज है क्योंकि वे सबके लिए आकर्षणमूर्त हैं और आनन्द के सागर हैं, परन्तु समयान्तर में भ्रान्ति वश लोगों ने उसे विष्णु के साकार रूप श्री कृष्ण की वाणी मान लिया। यदि सभी लोगों को यह मालूम होता कि गीता ज्योति स्वरुप, जन्म-मरण से न्यारे परमपिता परमात्मा की वाणी है तो सभी धर्मों के लोग उसे शिरोधार्य करते और परमात्मा के स्वरुप के बारे में आज इतने मत-मतान्तर न होते।
दूसरी भूल यह हुई कि भगवान् ने काम, क्रोध, लोभादि विकारों के विरुद्ध ज्ञान-बल और योग-बल से होने वाला जो युद्ध सिखाया, उसके स्थान पर समयान्तर में लोगों ने एक हिंसक युद्ध मान, गीता पर हिंसा का दोष लगा दिया। यदि लोगों को यह मालूम होता कि गीता-ज्ञान विकारों से युद्ध कर भारत को स्वर्ग बनाने के लिए दिया गया था और गीता के बाद अहिंसक दैवी सम्प्रदाय और सतयुग की स्थापना हुई थी तो लोग गीता की मत पर चल कर मनुष्य से देवता बनने का पुरुषार्थ करते और यह भारत फिर से स्वर्ग बन जाता। इससे भारतवासियों को यह भी याद रहता कि एक गीता ही हमारा धर्म-शास्त्र है जिसका ज्ञान परमपिता परमात्मा ने ब्रह्मा द्वारा देकर सतयुग की और आदि सनातन देवी-देवता धर्म की स्थापना कराई थी।
निष्कर्ष यह है कि गीता सब शास्त्रों की माता है, गीता श्री कृष्ण की भी माता है। ज्योति स्वरुप परमात्मा ही सर्व आत्माओं के परमपिता हैं। उन्हीं परमपिता ने हम सब आत्माओं रुपी वत्सों के कल्याण के लिए गीता-ज्ञान दिया और वर्तमान धर्म-ग्लानि के समय अब वे फिर से गीता-ज्ञान देकर हम सबको कृतार्थ कर रहे हैं। यह आशा करते हुए कि प्रभु-प्रेमी बहनें और भाई अब उस सर्वोत्तम ज्ञान से अपना जीवन श्रेष्ठ बनायेंगे और जीवन में अपना ईश्वरीय जन्म सिद्ध अधिकार प्राप्त करेंगे। हाँ, यह कह दूँ कि विश्व में विकट परिस्थितियाँ आने में अभी थोड़ा ही समय शेष है और हमें चाहिए कि हम इसी बीच के समय में इस ईश्वरीय ज्ञान द्वारा अपने जीवन को सफल बना लें।

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