आत्मा-दर्शन, परमात्म-दर्शन, सृष्टि चक्र-दर्शन, कर्म-दर्शन इत्यादि को जानने के बाद स्थितप्रज्ञ दर्शन को जानना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि इससे ही आत्मा लक्ष्य-सिद्धि की ओर बढ़ती है। वास्तव में पूर्वकथित सभी दर्शनों की उपयोगिता भी स्थितप्रज्ञ सिद्धि को प्राप्त करने में ही समाई हुई है। यदि हमारी प्रज्ञा स्वरूप-स्थिति नहीं होती और परमपिता परमात्मा की स्मृति में भी स्थित नहीं होती बल्कि चलायमान बनी रहती है तो फिर बाकी सभी दर्शनों का आत्मिक लाभ क्या है? अध्यात्म का मुख्य प्रयोजन बुद्धि की साम्य अवस्था अथवा मन की स्थिरता को प्राप्त करना ही तो है। हमारे पुरूषार्थ का लक्ष्य यही तो है कि हमारा मन एक ऐसे निर्मल झील की तरह हो जाए जिसमें न लहरें उठ रही हों और न बुलबुले पैदा हो रहे हों बल्कि जो शीतल और शांत हो।
यह बात तो समझना कठिन नहीं है कि ‘स्थितप्रज्ञ’ वह है जो निदंा-स्तुति, मान-अपमान, हानि-लाभ, सफलता-असफलता में एक समान रहता हो। जो साक्षी हो कर कर्म करता है और सृष्टि रूपी खेल में खिलाड़ी की भाँति भाग लेते हुए भी जय-पराजय को खेल का ही एक भाग मानता है और दोनों हालतों में द्वन्द्व रहित रहता है, वही स्थितप्रज्ञ है। जिसकी स्थिति में -उतार-चढ़ाव नहीं आता बल्कि जो एकरस और लवलीन स्थिति में सदा आनंद विभोर महसूस करता है, वही तो स्थितप्रज्ञ है। परंतु प्रश्न तो यह है कि ऐसी अवस्था प्राप्त कैसे हो?
स्थितप्रज्ञता का आधार है- सतुंष्टता
ध्यान देने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि स्थितप्रज्ञ वही हो सकता है जो सर्वदा और सर्वथा सतुंष्ट हो। जो सतुंष्ट नहीं होगा, वह अवश्य ही हानि, पराजय, तिरस्कार, इत्यादि अप्रिय अवसरों पर शोक, चिंता, भय, दु:ख, पीड़ा, खिन्नता, उत्तेजना इत्यादि उपलब्धियों के बावूजद भी उनकी और अधिक आक्रांत करता होगा और सफलता, प्रशंसा, विजय, यश इत्यादि उपलब्धियों के बावजूद भी उनकी और अधिक आकांक्षा करता होगा। इस प्रकार, असंतुष्ट व्यक्ति तो सदा चिंता, भय, शोक आदि की मझधार में ही हिचकोले खाता रहता है। वह सच्चे सुख की सांस तो ले ही नहीं सकता। वह शायद बहुत कम ही समय सन्तुष्टता के सुख का अनुभव लेता होगा। उसे शायद यह अनुभव होगा ही नहीं कि संतुष्टता का स्वाद सब स्वादों से निराला है; उसका सुख संसार भर के इन्द्रियों पदार्थों से प्राप्त होने वाले सभी सुखों के समूह से भी न केवल अधिक है बल्कि महान है और उन सभी से अलग ही प्रकार का है, इन्द्रियातीत है और मानसिक तथा बौद्धिक स्तर का ही है जिसकी उपलब्धि महायोगी ही को होती है।
संतुष्टता का आधार क्या है?
अब प्रश्न यह है कि यदि स्थितप्रज्ञ का आधार संतुष्टता है तो संतुष्टता का आधार क्या है? अपने अनुभव का विश्लेषण करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि संतुष्टता का आधार क्रत्यागञ्ज है। यदि हम त्याग न करें तो हमारी सारी इच्छायें तो पूर्ण हो ही नहीं सकतीं और इच्छाओं के रहते हुए हम सर्वथा संतुष्ट हो ही नहीं सकते क्योंकि कोई न कोई इच्छा अपूर्ण रहेगी और अपूर्णता का एहसास हमें खटकेगा। जैसे दीमक लकड़ी को खा जाती है और उसे खोखला कर देती है, वैसे ही इच्छायें भी संतुष्टता को खा जाती हैं। इच्छा उत्पन्न ही वहाँ होती है जहाँ किसी चीज़ का अभाव हो और जहाँ किसी चीज़ की प्राप्ति का प्रश्न हमारे सामने हो। अभाव का खटकना ही तो असंतुष्टता है अथवा अभाव की अनुभूति और असंतुष्टता ये दोनों सहोदर ही तो हैं। इसलिए, जो व्यक्ति स्थितप्रज्ञ होना चाहता है उसे समझ लेना चाहिए कि संतुष्टता और त्याग के बिना स्थितप्रज्ञता को प्राप्त करने की कोशिश करना एक ऐसे ही प्रकार का प्रयास है जैसे कि वायु और ऑक्सीजन के बिना जीवित रहने का प्रयास करना। स्थितप्रज्ञ वही है जो क्रक्रइच्छा मात्रम् अविद्याञ्जञ्ज के अर्थ के अनुरूप जीवन जीता है।
साथ ही हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि त्याग के बिना संतुष्टता प्राप्त करना भी ऐसा ही है जैसे इन्द्रिय सुख के द्वारा इन्द्रियातीत आनंद को प्राप्त करने की कामना करना। जो त्याग नहीं कर सकता, वह लोभी होता है या विषय का दास होता है। जिसमें लोभ हो, उसमें मन में क्षोम(विचलिता) अवश्य पैदा होता है और जिसके मन में मोक्ष हो वह भला साम्य अवस्था में कैसे हो सकता है? अत: यह निश्चय हुआ कि त्याग वृत्ति से संतुष्टता की स्थिति की प्राप्ति होती है।
त्याग का आधार क्या है?
प्रश्न उठता है कि त्याग का आधार क्या है? अनुभव से विदित होता है कि क्रत्यागञ्ज का आधार है क्रवैराग्यञ्ज। जब तक मनुष्य की मनोवृत्ति में गहराई से वैराग्य की जागृति न हो तब तक वह चेतन अथवा अर्ध-चेतन मन से, अथवा जागृत अवस्था में या स्वप्न अवस्था में विषय पदार्थों के रस के अनुराग में पड़ कर उनको ही पाने का प्रयत्न करता रहेगा क्योंकि उनका रस उसके मन को अपनी ओर खींचता है। किंतु वैराग्य तब उत्पन्न होता है जब विवेक के जागृत होने से हाथ के कंगन की तरह ये स्पष्ट हो जाता है कि विषय क्षण-भंगुर हैं, परिवर्तनशील हैं और ये भोक्ता को भी भोग डालते हैं और इस तमोगुणी कलिकाल की इस अंतिम वेला में ये अपनी जर्जर स्थिति को प्राप्त हो चुके हैं और अपनी निकृष्ट अथवा तुच्छ अवस्था में हैं। वैराग्य तब उत्पन्न होता है जब हम भली-भाँति समझ जाते हैं कि कलियुग के इस अंतिम वेला की प्रकृति और संग साज-सज्जा सार-हीन है, रस-रहित अथवा मृग-तृष्णा के समान है। जब राजयोगी के मन में निश्चय हो जाता है कि आनंद का सार ईश्वरीय स्मृति ही में है और वह आनंद ही रस-राज है तब उसका मन इस संसार के विषय पदार्थों से स्वत: ही और सहज ही ऐसे ही हट जाता है जैसे दिन के प्रकाश में मनुष्य यह देखकर कि ये सरकारी नोट नहीं है बल्कि बच्चों को खुश करने के लिये किसी कंपनी द्वारा छपा हुआ 500 का नोट है, उस नोट को मूल्यवान नहीं समझता, न ही उससे आकर्षित अथवा प्रभावित होता है।