परमात्म ऊर्जा

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चाहना के साथ समर्थी भी चाहिए और समर्थी आयेगी स्मृति से। अगर स्मृति कमज़ोर है तो फिर जो संकल्प करते हो वह सिद्ध नहीं हो पाता है। जो कर्म करते हो वह भी सफल नहीं हो पाते हैं। तो स्मृति रखना मुश्किल है व सहज है? जो सहज बात होती है वह निरन्तर भी रह सकती है। स्मृति भले निरन्तर रहती भी है लेकिन एक होती है साधारण स्मृति, दूसरी होती है पॉवरफुल स्मृति। साधारण रूप में तो स्मृति रहती है, लेकिन पॉवरफुल स्मृति रहनी चाहिए। जैसे कोई जज होता है तो उनको सारा दिन अपने जजपने की स्मृति तो रहती है लेकिन जिस समय खास कुर्सी पर बैठता है तो उस समय वह सारे दिन की स्मृति से पॉवरफुल स्मृति होती है। तो डयूटी अर्थात् कत्र्तव्य पर रहने से पॉवरफुल स्मृति रहती है और वैसे साधारण स्मृति रहती है। तो आप भी साधारण स्मृति में तो रहते हो लेकिन पॉवरफुल स्मृति, जिससे बिल्कुल वह स्वरूप बन जाए और स्वरूप की सिद्धि क्रसफलताञ्ज मिले, वह कितना समय रहती है। इसकी प्रैक्टिस कर रहे हो ना?
निरन्तर समझो कि हम ईश्वरीय सर्विस पर हैं। भले कर्मणा सर्विस भी कर रहे हो, फिर भी समझो – मैं ईश्वरीय सर्विस पर हूँ। भले भोजन बनाते हो, वह है स्थूल कार्य लेकिन भोजन में ईश्वरीय संस्कार भरना, भोजन को पॉवरफुल बनाना, वह तो ईश्वरीय सर्विस हुई ना! क्रजैसा अन्न वैसा मनञ्ज कहा जाता है। जब भोजन बनाते समय ईश्वरीय स्वरूप होगा तब उस अन्न का असर मन पर होगा। तो भोजन बनाने का स्थूल कार्य करते भी ईश्वरीय सर्विस पर हो ना! आप लिखते भी हो- ऑन गॉडली सर्विस ओनली। तो उसका भावार्थ क्या हुआ? हम ईश्वरीय सन्तान सिर्फ और सदैव इसी सर्विस के लिए ही हैं। भल उसका स्वरूप स्थूल सर्विस का है लेकिन उसमें भी सदैव ईश्वरीय सर्विस में हूँ। जब तक यह ईश्वरीय जन्म है तब तक हर सेकण्ड, हर संकल्प, हर कार्य ईश्वरीय सर्विस है। वह लोग थोड़े टाइम के लिए कुर्सी पर बैठ अपनी सर्विस करते हैं, आप लोगों के लिए यह नहीं है। सदैव अपने सर्विस के स्थान पर कहाँ भी हो तो स्मृति वह रहनी चाहिए। फिर कमज़ोरी आ नहीं सकती। जब अपनी सर्विस की सीट को छोड़ देते हो तो सीट को छोडऩे से स्थिति भी सेट नहीं हो पाती। सीट नहीं छोडऩी चाहिए।
कुर्सी पर बैठने से नशा होता है ना! अगर सदैव अपने मर्तबे की कुर्सी पर बैठो तो नशा नहीं रहेगा? कुर्सी व मर्तबे को छोड़ते क्यों हो? थक जाते हो? जैसे आप लोगों ने राजा का चित्र दिखाया है – पहले दो ताज वाले थे, फिर रावण पीछे से उसका ताज उतार रहा है। ऐसे अब भी होता है क्या? माया पीछे से ही मर्तबे से उतार देती है क्या? अब तो माया विदाई लेने के लिए, सत्कार करने के लिए आयेगी। उस रूप से अभी नहीं आनी चाहिए। अब तो विदा लेगी। जैसे आप लोग ड्रामा दिखाते हो – कलियुग विदाई लेकर जा रहा है। तो वह प्रैक्टिकल में आप सभी के पास माया विदाई लेने आती, न कि वार करने के लिए।
अभी माया के वार से तो सभी निकल चुके हैं ना! अगर अभी भी माया का वार होता रहेगा तो फिर अपना अतीन्द्रिय सुख का अनुभव कब करेंगे? वह तो अभी करना है ना! राज्य-भाग्य का तो भविष्य में अनुभव करेंगे, लेकिन अतीन्द्रिय सुख का अनुभव तो अभी करना है ना! माया के वार होने से यह अनुभव नहीं कर पाते। बाप के बच्चे बनकर वर्तमान अतीन्द्रिय सुख का पूरा अनुभव प्राप्त न किया तो क्या किया!

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