संसार में हरेक वस्तु अथवा गुण की मात्रा के दो छोर होते हैं। एक छोर या सीमा को ‘कम-से-कम’ और दूसरे को ‘अधिक-से-अधिक’ कहा जाता है। उदाहरण के तौर पर प्रतिदिन के वातावरण के तापमान के बारे में भी हम क्रकम-से-कमञ्ज और क्रअधिक-से-अधिकञ्ज की चर्चा किया करते हैं। भगवान के प्यार का वर्णन करते हुए भी हम कहा करते हैं कि उसका प्यार सागर से गहरा और गगन से भी ऊँचा है। इस प्रकार हरेक गुण, अभ्यास इत्यादि की ‘निम्नतम सीमा'(लोएस्ट लिमिट) और’उच्चतम सीमा'(अपर मोस्ट लिमिट) हुआ करती है। इस बात को ध्यान में रखते हुए यह प्रश्न उठता है कि योगाभ्यास की निम्नतम सीमा क्या है, अर्थात् कम से कम कितने योग का हम अभ्यास किया करें ताकि हम ‘योगी’ कहलाने के अधिकारी बन सकें? दूसरे शब्दों में प्रश्न यह है कि हम प्रतिदिन कितना योग अभ्यास करें ताकि हम योगियों की श्रेणी में सम्मिलित हुए रहें, वरना तो हम योगी ही नहीं कहला सकेंगे। वास्तव में हमें कहा गया है कि हम निरंतर योग का अभ्यास करते ही रहें अथवा श्वासो-श्वास, चलते-फिरते, उठते-बैठते, हर कार्य करते हुए भी योग-अभ्यास करते रहें। इसी को ही दूसरे शब्दों में कहा गया है कि हम सदा आत्म-अभिमानी बने रहें। और सदा भगवान को अपना साथी बनाये रखें। यह भी कहा गया है कि ‘योग’ का अर्थ है सम्बंध जोडऩा और सदा सर्वथा हमारे सभी आत्मिक सम्बंध परमात्मा से जुटे रहें।
योगी निर्विकार होता है, वह निंदा-स्तुति, मान-अपमान, हानि-लाभ इत्यादि सभी परिस्थितियों में एकरस, आनंदमय स्थिति में रहता है। और हमारा योग भी ऐसा परिपक्व हो क्योंकि ‘योगी’ और ‘भोगी’ञ्ज में यह मौलिक अंतर है कि योगी अचल एवं स्वरूप स्थित एवं पवित्र होता है। जबकि भोगी, भोगों की कामनायें करता हुआ विचलित, चंचल या हलचल के स्वभाव वाला होता है।
यह भी कहा गया है कि ‘योगी’ एक परमपिता की ही आज्ञा(श्रीमत) का पालन करता है। और भगवान द्वारा बतायी मर्यादाओं तथा नियमों का भी पूर्णत: एवं सदा पालन करता है। जबकि भोगी मनमत, परमत इत्यादि पर चलता है और वह नियमों व मर्यादाओं का बारंबार उल्लंघन करता है।
यह भी कहा गया है कि योगी ‘इच्छा’ को ‘अविद्या’ञ्ज का सूचक मानता है और इसीलिए वह इच्छाओं का दास नहीं होता। जबकि एक परमपिता का संग प्राप्त करके सदा संतुष्ट होता है। ऐसा भी समझाया गया है कि योगी नकारात्मक चिंतन नहीं करता, उसकी दिव्य शक्तियों का व्यर्थ या अनर्थ या लीकेज नहीं होता। यह भी हमें समझाया गया है कि योगी विदेही स्थिति में रहता हुआ अपनी दृष्टि, वृत्ति, प्रवृत्ति और स्मृति को पवित्र बनाये रखता है। और आगे कर्म-बंधनों में नहीं फंसता। योगी वह है जो मरजीवा बनता है। पूर्णत: प्रभु-समर्पित होता है और लौकिक को भी अलौकिक में परिवर्तन करता है, ऐसा भी कहा गया है। यह भी कहा गया है कि योगी प्रन्यासी अर्थात् निमित्त(ट्रस्टी) बनकर कार्य करता है। वह परमपिता परमात्मा को करनकरावनहार मानकर, उसपर न्यौछावर होकर जीवन जीता है। आप देखेंगे, उनके जीवन में विशाल त्याग और वैराग्य होता है। जबकि भोगी में भोग-लिप्सा और संसार के प्रति आकर्षण होता है।
योग का कम से कम कितना अभ्यास हो, ये प्रश्न उठता है कि योग-अभ्यास की परंपरा में योग का निम्नतम अभ्यास क्या है? इस विषय में हमें यहां समझाया गया है कि हम कम से कम एक घंटा योग-अभ्यास करें। दिन में हर घंटे में पाँच मिनट योगाभ्यास करें। जब-जब ट्राफिक कंट्रोल का समय आता है, तब-तब सांसारिक संकल्पों की रेल-पेल को रोककर हम तीन-पाँच मिनट योग में टिकें। रात्रि को भी हम एक घंटा नित्य प्रति सामूहिक रूप से या व्यक्तिगत रूप से योग करें और विश्राम सय्या पर बैठकर या लेटकर, ईश्वरीय स्मृति में रहते हुए हम देह से उपराम हो विश्राम करें। दिन भर कार्य करते हुए हम स्वयं को निमित्त(ट्रस्टी) मानते हुए परमात्मा को मालिक समझकर उसे याद करते रहें। घर-परिवार में, सम्बंधों में हमें अपने अंतरमन में परमात्मा के साथ सम्बंध याद आये। कम से कम हम स्वदर्शन चक्र को चलाते ही रहें और इससे नीचे तो न उतरें। इस प्रकार तीन-चार घंटे तो हम न्यूनतम योगाभ्यास करें और समर्पित बुद्धि हों। यह योग के अभ्यास की न्यूनतम सीमा(लोएस्ट लिमिट) है। यह इतना भी हम अभ्यास नहीं करेंगे तो हमारी विदेही स्थिति, फरिश्ता स्थिति और आत्म-अभिमानी स्थिति कैसे होगी! हम विकर्मों को दग्ध करने का पुरुषार्थ क्या करेंगे! और योगी का जो अतीन्द्रिय सुख, आनंद इत्यादि गाया हुआ है, उसकी प्राप्ति कैसे कर सकेंगे! आप समझ ही गये होंगे कि क्रयोगीञ्ज कहलाने के लिए न्यूनतम आवश्यकतायें क्या हैं और कर्म में मनोस्थिति किस तरह बनाये रखनी है। तो हे योगी कहलाने वाले, आप अपने आप में चेक करें, जाँच करें, भीतर टटोलें और न्यूनतम से अधिकतम की ओर का पुरुषार्थ कर इस समय हमें जिस स्थिति की अनुभूति कर लेनी है उसमें लग जायें।