मुख पृष्ठब्र.कु. जगदीशसब कुछ मिल गया फिर भी!

सब कुछ मिल गया फिर भी!

म प्राय: कहते हैं कि ”हमें भगवान मिल गया है, इसलिए सब कुछ मिल गया है और उनको पा लेने के बाद तो बाकी कुछ भी पाने की तृष्णा नहीं रही।” परंतु हम व्यवहार में देखते हैं कि यह समझ लेने पर कि फलां मनुुष्य ने परमपिता परमात्मा का सत्य परिचय प्राप्त कर लिया है और वह परमात्मा में निश्चय बुद्धि है, तब भी मनुष्य की इच्छायें तो बनी ही रहती हैं। इतना ही नहीं, बल्कि दूसरे को जब कुछ प्राप्त होता है तो उसे स्वयं को यदि उस चीज़ की आवश्यकता न हो तो भी वह स्वयं को उससे वंचित महसूस करता है और उसके मन में ईर्ष्या उत्पन्न होती है। कम-से-कम ईर्ष्या तो उत्पन्न नहीं होनी चाहिए क्योंकि यदि दूसरा कोई व्यक्ति कुछ प्राप्त करता है, तब हमारे लिए भी प्राप्त करने को संसार में और बहुत कुछ है। संसार तो बहुत बड़ा है। उद्यमी के लिये तो कोई भी वस्तु अप्राप्य (न मिलने वाला) नहीं होती।
चलो किसी के मन में ईर्ष्या उत्पन्न भी हो, तब भी मान-शान,पद-प्रतिष्ठा, साधन-सुविधा, समाचार-सूचना, सम्मान-स्नेह, सहयोग-सद्व्यवहार— इस सबकी इच्छा अथवा अपेक्षा तो मन में बनी ही रहती है। यदि इनमें से कुछ न मिले तो लगता है कि मन को किसी ने ठोकर मार दी हो। न मिलने का दु:ख तो पहले ही होता है; अप्राप्ति की संतान जो असंतुष्टता है, उसका बोझ और गले पड़ जाता है। तब अवश्य ही यह जो कहा जाता है कि ”प्रभु मिल गया तो सब कु छ मिल गया”— इसके सही अर्थ को समझने में कुछ गुँजाइश है, वर्ना प्रभु के मिल जाने पर असंतुष्टता क्यों होती है?
वास्तव में जिस समय मनुष्य सांसारिक प्राप्तियों की उत्कट(तीव्र) इच्छा कर रहा होता है, उस समय वो प्रभु-मिलन नहीं मना रहा होता, अर्थात् वह मिलन की अनुभूति का रस नहीं ले रहा होता क्योंकि उसकी बुद्धि, जिस द्वारा ही आत्मा का परमात्मा से मिलन होता है, उस समय विषयों, व्यक्तियों या पदार्थों ही के ध्यान में लगी होती है और उनका ही रस उसे अपनी ओर खींच रहा होता है। जब यह बुद्धि परमात्मा की स्मृति में समाहित होती है, उसी समय ही अनुभव की गई स्थिति के लिए ही ये गायन है कि”हमें भगवान मिल गया तो सब कुछ मिल गया; अब हमें किसी अन्य चीज़ को प्राप्त करने की इच्छा नहीं रही।” जो विषय- पदार्थों अथवा सांसारिक उपलब्धियों में ही मन को लगाए हुए हैं, भला वह यह कैसे कह सकता है कि ”मुझे प्रभु मिल गया है” जबकि वह मिलन मनाने की स्थिति अथवा अनुभूति में होता ही नहीं उसका कथन ऐसा ही है जैसे कि कोई व्यक्ति अपने घर में आए हुए किसी महान व्यक्ति के पास बैठ कर न तो उससे बात करता है, न उससे मिलता है बल्कि और धन्धों में ही व्यस्त होते हुए अपने घर में आए महान अतिथि को केवल नमस्कार ही कर देता है और लोगों से कहता फिरता है कि ”वह महात्मा तो हमारे घर में आए हुए हैं और हमारा तो रोज़ ही उनसे मिलन होता और, इतना ही नहीं, बल्कि हम तो उनसे मिले ही पड़े हैं।” स्पष्ट है कि वह व्यक्ति ‘मिलन’ के लाभ को शायद अच्छी रीति जानता ही नहीं। मिलन का अर्थ है संपर्क, संसर्ग, संबंध, स्नेह का आदान-प्रदान और उससे प्राप्त होने वाले रस की अनुभूति में लगा हो, वही प्रभु-मिलन का अनुभव जानता है और वही स्थितप्रज्ञ है। जिसकी बुद्धि का परमात्मा से मिलन हुआ रहता है, वही तो सदा संतुष्ट है, वही तो महात्यागी है और सहज एवं स्वाभाविक रूप से वैरागी भी हैं।

ज्ञान के साथ-साथ ध्यान ज़रूरी है
श्रीमद्भगवदगीता में लिखा है कि मनुष्य विषय-पदार्थों का ध्यान अथवा चिंतन करता है। उस ध्यान से उसकी बुद्धि का ‘संग’ उनसे जुट जाता है। उस संग से पुन: वह उनके ही ध्यान में लगा रहता है। इस प्रकार के संग से मोह की उत्पत्ति होती है अर्थात् उन विषय पदार्थों में उसकी आसक्ति हो जाती है; वह अनेक रस रूपी रस्सियों में जकड़ा जाता है। मोह अथवा आसक्ति होने से पुन: – पुन: उसके मन में उनका संग अथवा रस प्राप्त करने की कामना पैदा होती है। वह कामना पूर्ण न होने पर उसे ‘क्रोध’ आता है। अत: याद रहे कि कामना से कामना ही पैदा होती है, तृप्ति पैदा नहीं होती और यदि हो भी तो वह क्षणिक होती है और बार-बार कामना पैदा होने पर, आज यदि कामना पूर्ण हो भी गई और क्रोध नहीं भी आया तो कामना की स्थायी रूप से पूर्ति न होने से कल उसे उस व्यक्ति अथवा परिस्थिति के प्रति या अपने भाग्य के प्रति, जिसे वो बाधा रूप मानता है, क्रोध आएगा ही। क्रोध से बुद्धि भ्रमित हो जाती है और मनुष्य स्मृति भ्रंश हो जाता है तथा उसका विवेक मारा जाता है और बुद्धि अथवा विवेक नष्ट होने से तथा स्मृति भ्रंश होने से सर्वनाश की ओर चल पड़ता है और उसका सब कुछ लुट अथवा मिट जाता है।
श्रीमद्भगवदगीता में कहा है कि ध्यान अथवा ‘ध्यान योग’ का अभ्यास तो भोगी भी करता है लेकिन वो प्रकृति के पदार्थों का ध्यान करता रहता है और अपनी बुद्धि की स्थिति को तथा ईश्वरीय स्मृति को गंवा बैठता है और संतुलन खो बैठने पर लुढ़कते-लुढ़कते विनाश के गर्त में जा पड़ता है और विषयों की धूल अथवा दलदल में लथपथ हो जाता है या विकारों की अग्नि में भस्मीभूत हो जाता है। परंतु योगी अपने ध्यान योग से अथवा बुद्धि योग से ईश्वर का संग करते हुए नष्टोमोह: हो कर और स्मृति प्राप्त करके अपने गंवाए हुए दैवी राज्य-भाग्य को प्राप्त कर लेता है। इसलिए योगाभ्यास करते हुए स्थितप्रज्ञ होने में ही कल्याण है और स्थितप्रज्ञ होने के लिए संतुष्ट होना, संतुष्टता को प्राप्त करने के लिये त्याग करना, त्याग के लिये वैराग्य का होना भी आवश्यक है और वैराग्य वृत्ति के लिये प्रकृति की जर्जर अवस्था और निस्सारता अथवा नीरसता में सम्पूर्ण निश्चय होना आवश्यक है और उसके अनुभव के लिये प्रभु का ध्यान करने की ज़रूरत है। इसलिए गीता में एक जगह आया है कि ज्ञान से भी ध्यान(ईश्वरीय स्मृति में स्थिरता) श्रेष्ठ है। उससे ही स्थितप्रज्ञता होती है।

RELATED ARTICLES

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

Most Popular

Recent Comments