परमात्म ऊर्जा

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अगर कोई बड़े के हाथ में हाथ होता है तो छोटे की स्थिति बेफिक्र होती, निश्चिंत रहती है। तो समझना चाहिए – हर कर्म में बापदादा मेरे साथ भी है और हमारे इस अलौकिक जीवन का हाथ उनके हाथ में है अर्थात् जीवन उनके हवाले है। जि़म्मेवारी उनकी हो जाती है। सभी बोझ बाप के ऊपर रख अपने को हल्का कर देना चाहिए। बोझ ही न होगा तो कुछ मुश्किल लगेगा? बोझ उतारने व मुश्किल को सहज करने का साधन है- बाप का हाथ और साथ। यह तो सहज है ना! फिर चाहे बाप स्मृति में आये, चाहे दादा स्मृति में आये। बाप की स्मृति आयेगी तो साथ में दादा की भी रहेगी ही। दादा की स्मृति से बाप की स्मृति भी रहेगी। अलग नहीं हो सकते। अगर साकार स्नेही बन जाते हो, तो भी और सभी से बुद्धि टूट जायेगी ना! साकार स्नेही बनना भी कम बात नहीं। साकार स्नेह भी सर्व स्नेह से, संबंधों से बुद्धियोग तोड़ देता है। तो अनेक तरफ से तोड़ एक तरफ जोडऩे का साधन तो है ना! साकार से निराकार तरफ याद आयेगा। साकार से स्नेह भी तब पैदा हुआ ना जब बाप, दादा दोनों का साथ हुआ। अगर बाप, दादा का साथ न होता तो साकार इतना प्रिय थोड़े ही होता। जैसे बाप, दादा दोनों साथ-साथ हैं वैसे आपकी याद भी साथ-साथ हो जायेगी। ऐसे कभी नहीं समझना कि मुश्किल है। सहज योगी बनो। मुश्किल योगी तो द्वापर से लेकर बनते आये। हठयोगियों को तो आप कट करते हो ना! आप भी सहज योगी न बने और फिर मुश्किल कहा, तो एक ही बात हो गई। सहजयोगी बनना है। यथार्थ याद है, निरन्तर सहजयोगी हो। सिर्फ अपनी स्टेज को बीच-बीच में पॉवरफुल बनाते जाओ। स्टेज पर हो, सिर्फ समय प्रति समय इस याद की स्टेज को पॉवरफुल बनाने के लिए अटेन्शन का फोर्स भरते हो। उतरती कला अब समाप्त हुई ना, व अभी भी है? तब तो चढ़ती कला में आ गये हो ना!

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