…तुम वही हो जाओ …जो तुम होने को आये हो

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जिस दिन हर घड़ी उसी का अनुभव होने लगे कि वही द्वार पर खड़ा है, वही सामने है, वही मेरा है, वही बाहें पसार कर अपना बनाने लिये आया है, उस क्षण फूल खुल जाता है। वही अनुग्रह है, उत्सव है, अहोभाव है। जब तक तुम वही न हो जाओ, जो तुम होने को आये हो, तब तक संतोष असंभव है। स्वयं सम्पन्न, सम्पूर्ण नहीं बने हैं, तब तक संतुष्टता हो नहीं सकती। स्वयं हो कर ही मिलता है परितोष।
जीवन जैसे-जैसे थोड़ा झुकेगा, वैसे-वैसे अहंकार थोड़ा-थोड़ा गलेगा। वैसे-वैसे अंधेरी रात में भी उसकी बिजलियां कौंधनी शुरु हो जाती हैं। आप झुके नहीं, कि उसका आना शुरु हुआ नहीं! उसका खुला आकाश सदा से ही मुक्त है।
परमात्मा दूर नहीं है, आप अकड़े खड़े हो, आपकी अकड़ ही दूरी है। आपका झुक जाना ही निकटता हो जाएगी। वैसे शास्त्रों में भी कहते हैं, परमात्मा दूर से दूर और पास से पास है। दूर, जब आप अकड़ जाते हो, दूर, जब आप कहते हो कि मैं ही हूँ, तू नहीं है। पास, जब आप कहते हो, तू ही है, मैं नहीं हूँ। जब आप आँख खोलते हो, जब आप अपने पात्र को, अपने हृदय के पात्र को… उसके सामने फैला देते हो तब आप भर जाते हो हज़ारों-हज़ारों-खज़ानों से।
प्रभु तो रोज़ ही आ सकता है, आता ही है। उसके अतिरिक्त और कौन आयेगा अपने बच्चों के पास! जब आप नहीं पहचानते, तब भी वही आता है। जब आप पहचान लेते हो, धन्य भाग्य। जब आप नहीं पहचानते, तब भी उसके अतिरिक्त न कोई आया है और न कभी आयेगा। वही आता है, ये निश्चय अपने में बिठाना, क्योंकि सभी की शक्लें उन्होंने ही बनाई है। सभी उसकी ही रचना है। सभी को उसने ही बनाया है। सभी को अपने नयन कमलों से सशक्त कर भरपूर किया है। तो अगर कभी एक बार ऐसी प्रतीति हो कि आगमन हुआ है, तो उस प्रतीति को गहराना, सम्भालना, उस प्रतीति को साधना, सुरित बनाना, फिर और धीरे-धीरे कोशिश करो और उस प्राप्त प्रेम को पहचानो, बांटो। और उसी भाव से सब को देखने का यत्न करो।
पौराणिक कहावत है, अतिथि देवता है। अर्थ है कि जो भी आये, उसमें परमात्मा को पहचानने की चेष्टा जारी रखनी चाहिए। मतलब कि वो परमात्मा का बच्चा है, परमात्मा ने इसको गढ़ा है, उस आत्मिक भाव से देखना है। चाहे हज़ार बाधाएं आएं, चाहे कठिनाइयां आये, चाहे कितनी भी गालियां खानी पड़े, चाहे कितनी भी मुश्किलातें आये, तब भी आपको समझना है कि वो वही है। दोस्त में तो दिखाई पड़ेगा ही, लेकिन शत्रु भी दिखाई पड़े। अपनों में तो दिखाई पड़ेगा ही, लेकिन परायों में भी दिखाई पड़े। रात के अंधेरे में ही नहीं, और जितने पदचाप आपको उसके सुनाई पडऩे लगें, उतनी ही पंखुडिय़ां आपकी खुलने लगेंगी।
चमन में फूल खिलते तो सभी ने देख लिए, सिसकते गुंचे(फूल की कली) की हालत किसी को क्या मालूम! रोती हुई कली की हालत और कली तभी फूल हो सकती है, जब अनंत(परमात्मा) के पदचाप उसे सुनाई पडऩे लगें। आप अपने से फूल न हो सकोगे। सुबह जब सूरज उगता है, और सूरज की किरणें नाच उठती हैं आकर कली की निकटता में, सामिप्य में… कली के ऊपर… जब सूरज की किरणों के हल्के-हल्के पद कली पर पड़ते हैं तो कली खिलती है, फूल बनती है। जब तक आपके ऊपर परमात्मा की किरणें न पडऩे लगें, उसके स्वर आकर आघात न करने लगें, तब तक आप कली की तरह ही रहोगे। कली की पीड़ा यही है कि खिल नहीं पाई। जो हो सकता था, वो नहीं हो पाया। नियती पूरी न हो, यही संताप है, यही दु:ख है। आज आदमी की पीड़ा यही है कि वह जो होने आया है, नहीं हो पा रहा है। लाख उपाय कर रहा है, गलत, सही, दौड़-धूप कर रहा है, लेकिन पता है, समय बीतता जाता है और जो होने को मैं आया हूँ वो नहीं हो पा रहा हूँ। जब तक तुम वही न हो जाओ, जो तुम होने को आये हो, तब तक संतोष असंभव है। स्वयं सम्पन्न, सम्पूर्ण नहीं बने हैं, तब तक संतुष्टता हो नहीं सकती। स्वयं हो कर ही मिलता है परितोष।
तो सुनो प्रभु के पदचाप, जहाँ से भी सुनाई पड़ जायें और धीरे-धीरे सब तरफ से सुनाई पडऩे लगेंगे। जिस दिन हर घड़ी उसी का अनुभव होने लगे कि वही द्वार पर खड़ा है, वही सामने है, वही मेरा है, वही बाहें पसार कर अपना बनाने लिये आया है, उस क्षण फूल खुल जाता है। वही अनुग्रह है, उत्सव है, अहोभाव है। परमात्मा को मालूम है आपकी हालत के बारे में। जब आप होते हो सब तरफ, कहीं सुराग नहीं मिलता। टटोलते हो सब तरफ और चिराग नहीं मिलता।।
जि़ंदगी प्रतिपल बीतती चली जाती है, हाथ से प्रत्येक क्षण खिसकते चले जाते हैं, जीवन की धार वहीं चली जाती है- यही आई मौत, जीवन गया-और कुछ हो न पाये। पता नहीं क्या लेकर आये थे, समझ में नहीं आया, पता नहीं क्यों आये थे, क्यों भेजे गये थे, कुछ प्रतीति न हुई। गीत अनगाया रह गया, फूल अनखिला रह गया।
सुनो उसकी आवाज़ और सभी आवाज़ें उसी की हैं, सुनने की कला चाहिए। गुनो उसे, क्योंकि सभी को उसने ही बनाया है, गुनने की कला चाहिए। जागते, सोते, उठते, बैठते एक ही स्मरण रहे कि आप परमात्मा से घिरे हुए हो। परमात्म शक्तियों का सुरक्षा कवच आपके चारों ओर है। शुरु-शुरु में चूक जायेगा, भूल जायेगा, विस्मृति हो जायेगी, पर अगर आप धागे को पकड़ते ही रहे तो जैसा महान आत्मायें कहती हैं, आप फूलों के ढ़ेर न रह जाओगे, वही श्रुति का धागा तुम्हारे फूलों की माला बना देगा। जिस दिन आपकी माला तैयार है, वह खुद ही झुक जाता है, वह अपनी गर्दन तुम्हारी माला में डाल देता है। क्योंकि उस तक, उसके सिर तक आपके हाथ तो न पहुंच पायेंगे, बस हमारी माला तैयार हो, वह खुद हम तक पहुंच जाते हैं। मनुष्य कभी परमात्मा तक नहीं पहुंचता। जब भी मनुष्य तैयार होता है, उसमें देवत्व निखरता है, परमात्मा उसके पास आता है।
हे कलियां, जो तुम होने आये हो, जो तुम होना चाहते हो, जो तुम हो, उसे उघाडऩा है, परमात्मा को प्रेम के धागे में अपने इर्द-गिर्द पाना है। यही समय है आत्म और परमात्म मिलन का। उस वक्त को, उस क्षण को पकड़ लेना है। जब जान ही गये हो, समझ भी लिया है, वो हमारे लिए आया है, हमें सम्पन्न बना रहा है, खज़ानों को खोल दिया है और कहता है कि खज़ानों को लुटाओ। जो मेरे पास है, वो आपका है, मैं ही आपका पिता हूँ, आप ही मेरे बच्चे हो, आपका ही इस पर अधिकार है, ऐसी ऑफर भला कौन करेगा! क्यों रुके हुए हो, क्यों अभी भी औरों की तरफ झाँकते हो? अब जो चाहिए था, वो सुंदर दृश्य हमारे साथ घटित हो रहा है, उसका लाभ उठाओ। यही परमात्मा पिता की आश है, नया साल, नया वर्ष, इन खज़ानों के साथ आपका बीते। आपका चेहरा हमेशा खिला हुआ रहे, सुकून भरा रहे, औरों को भी सुकून देता रहे, यही मंगलकामना है।

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