स्वार्थपूर्ण भावनायें ही सम्बन्धों में लाती है टकराव

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जहाँ स्वार्थपूर्ण भावनाएं प्रबल हुईं और सब कुछ मटियामेट। स्वार्थ पूर्ति न होने पर मनुष्य आपसी स्नेह, नाते, पूर्वकाल के उपकार आदि सब कुछ भूल जाता है। स्वार्थी मनुष्य कितना निर्दयी बन जाता है- यह आज चारों ओर प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

वसुंधरा के प्रत्येक कोने से सम्बन्धों में बढ़ती हुई कड़वाहट की आवाज़ सुनाई देती है। मानव मन चीत्कार कर कह रहा है कि जिनके लिए मैंने जीवन भर इतना सबकुछ किया, उनका मुझसे ऐसा व्यवहार…असहनीय…निन्दनीय…। सम्बन्धों का सुख बाह्य रूप से तो दृष्टिगोचर होता है, किंतु अंदर झांककर देखने से विष और पीड़ा के ही दर्शन होते हैं। कोई किसी से खुश नहीं, कोई किसी से संतुष्ट नहीं,सदा ही दूसरों की शिकायतें, मनुष्य के मन को व्याकुल कर रही हैं।
पारस्परिक सम्बन्ध-जिनका प्रारंभ स्नेह रूपी बीज से ही होता है और जिनके बिना जीवन का कोई मूल्य ही नहीं रह जाता, क्यों बिगड़ गये? क्या गलती हो रही है? जबकि हम सभी जानते हैं कि जीवन में सभी को विविध सम्बन्धों में आना पड़ता है, विभिन्न संस्कारों के व्यक्तियों से व्यवहार करना होता है, जीवन कहीं भी अकेला नहीं है। जीवन के सुख व दु:ख, हार व जीत भी दूसरों पर आश्रित हैं। और यदि सम्बन्धों में कड़वाहट भर गई तो जीवन का सुख छिन जाता है, जीवन की शांति भस्म हो जाती है और मनुष्य प्रेम की प्यास में,प्यासी दृष्टि से चहुं ओर निहारने लगता है।
तो सम्बन्ध की शुरूआत प्रेम है, इसका मध्य जहाँ-तहाँ कड़वाहट से भरा है और अंत…? अंत लम्बे मध्यकाल पर आधारित रहता है। ज्यों-ज्यों मनुष्य सम्बन्धों को आगे बढ़ाता है, कुछ विकृतियां प्रवेश करके उन्हें जहरीला बनाने लगती हैं। हमें उनका एहसास होना चाहिए और सहज ही उन दीवारों को लांघ जाना चाहिए। तो प्रस्तुत है कुछ मूल कारण व निवारण सम्बन्ध बिगाडऩे वाला हमारा प्रथम शत्रु है- स्वार्थ…। जहाँ स्वार्थपूर्ण भावनाएं प्रबल हुईं और सब कुछ मटियामेट। स्वार्थ पूर्ति न होने पर मनुष्य आपसी स्नेह, नाते, पूर्वकाल के उपकार आदि सब कुछ भूल जाता है। स्वार्थी मनुष्य कितना निर्दयी बन जाता है- यह आज चारों ओर प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। माँ और बेटे का कितना निर्मल सम्बन्ध है। वह बेटा जिसकी माँ ने सच्चे दिल से पालना की थी, ज़रा-सी स्वार्थ पूर्ति न होने पर माँ को छोड़कर चला जाता है। पति,पत्नी का सम्बन्ध कितना सुखद है, परंतु दहेज की स्वार्थ पूर्ति के अभाव में पत्नियों को जि़ंदा ही अग्नि के सुपुर्द कर दिया जाता है। कितना भयावह है यह स्वार्थ! इसकी सत्य कहानियों के तो ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। जो आज अपने हैं, वही कल पराए हो जाते हैं।
अत: सम्बन्धों को सतत् मधुर बनाए रखने के लिए स्वार्थ का त्याग करना होगा, स्वयं से पूछना होगा कि स्वार्थ बड़ा या सम्बन्ध? धन बड़ा या स्नेह, पदार्थ बड़ेे या आशीर्वाद का हाथ बड़ा? परंतु जो ज्ञान विहीन पशु-तुल्य मनुष्य धन और पदार्थों को ही जीवन का आधार मानते हैं वे स्वप्न में भी सच्चे सुखों की अनुभूति नहीं कर पाते। सम्बन्धों के अमृत में ज़हर घोलने वाला दूसरा सूक्ष्म शत्रु है- मनुष्य का स्वयं का ही ज़हरीला स्वभाव, अंहकारी भाव, चिड़चिड़ापन अथवा स्वयं का कटु स्वभाव ही मनुष्य को सबसे ज्य़ादा परेशान करता है। हम एक ऐसी नारी को जानते हैं जो सदा ही दूसरों पर दोषारोपण करती है कि ये-ये लोग मुुझे बहुत तंग करते हैं परंतु जब तक उसे यह एहसास न हो जाए कि परेशान वह अपने स्वभाव के कारण ही है, उसकी परेशानी दूर नहीं होगी। उस देवी का नाम है सुखदेवी। परंतु उसका अनुभव व काम वैसा नहीं है। न वह किसी को सुख देती और इसलिए न उसे सुख मिलता। तो स्वभाव को मृदुल व सरल बनाओ। मीठे स्वभाव से दूसरों के दिलों पर राज्य करो। परंतु यदि तुम ऐसा नहीं करते तो सम्बन्धों में बिगड़ाव का फल भुगतने के लिए तैयार रहो, फिर यह शिकायत न करो कि देखो आज की नई पीढ़ी कितनी बिगड़ गई… सबकी राह अपनी बन गई है। तुम भी सम्बन्धों का सुख ले सकते हो।
दूसरों से कामनाएं रखना भी सम्बन्ध बिगाडऩा है। एक माँ सदा ही अपने बड़े बच्चों से अनेक कामनाएं रखती है, अपनी बहुओं से उसकी अनेक कामनाएं रहती हैं। वे उसकी सेवा करें, वे उसके लिए सुख-सुविधा के सामान जुटाएं। क्योंकि वह स्वयं को इनकी अधिकारी मानती है। वह प्राय: कहा करती है कि हमने बच्चों को पाला-पोसा, बड़ा किया, पढ़ाया, क्या अब बच्चों का कत्र्तव्य हमारी सेवा करना नहीं है! वह कब से आह्वान करती थी कि घर में बहू आयेगी, मेरे पैर दबाया करेगी। परंतु बहु आती है आधुनिक, वह स्वयं कामना करती है कि सास मेरी सेवा करे। बच्चे अपने काम में व्यस्त हैं और माँ की कामनापूर्ति न होने से माँ कुढ़ती रहती है, सदा अपने भाग्य को कोसती रहती है। हमारे मन की कामनाओं से दूसरों की भावनाएं बदलती हैं। हमारी कामनाएं हमें कमज़ोर करती हैं। माँ की कामनाएं ही बच्चों को उनसे दूर करती हैं। परंतु यदि बूढ़ी माँ का विवेक यह सोचने लगे कि मैंने तो बच्चों के लिए अपना कत्र्तव्य पूर्ण किया है, न कि एहसान। अब मैं स्वयं ही स्वयं की सेवा करूंगी। तो उसका अथकपन, अनासक्त व स्वार्थ रहित भाव बच्चों में भी सेवाभाव पैदा करेगा, बहू में भी निर्माण भाव पैदा करेगा और सम्बन्ध मधुर हो जाएंगे।
पारस्परिक सम्बन्धों को स्नेहपूर्ण रखने के लिए कुछ छोटी-छोटी परंतु अत्यंत महत्वपूर्ण बातों पर भी ध्यान रखना परमावश्यक है। कभी-कभी हम दूसरों की किसी बीती हुई गलत बात को बार-बार उछालते रहते हैं। बार-बार उस बात को बीच में लाकर मजा किरकिरा करते रहते हैं कि हाँ मैं जानता हँू तुमने तब क्या किया था, मुझे समय पर मदद नहीं की थी, मुझे अमुक समय धोखा दिया था। परंतु यदि दूसरा स्वयं को सुधार भी चुका हो, तो भी हम उसकी वही पुरानी बात चित्त में धारण किये रहते हैं और उसे उसी दृष्टि से देखते हैं। यह गलत है। इसी प्रकार किसी के किसी विशेष अवगुण को चित्त में धरकर हम उससे वैसा ही व्यवहार बनाए रखते हैं। मंदिर में जाकर तो हम मुक्त कंठ से गा लेते हैं- हे प्रभु मोरे अवगुण चित्त न धरो, परंतु दूसरों के अवगुण चित्त पर धरने में हम ज़रा भी नहीं हिचकते। हमने देखा- एक परिवार में माँ क्रोधी स्वभाव की थी। उसके दो बेटे, दो बेटियाँ, बार-बार उसे यही कहते थे- माँ, तुम बड़ा क्रोध करती हो। यह सुनकर माँ का क्रोध बढ़ता था- वह कहती थी मुझे शिक्षा देते हो… परिणाम यह था कि घर में सदा मनमुटाव, सदा अशांति।
तो कई जगह हमें दूसरों के अवगुणों को नगण्य समझना चाहिए, उनको बार-बार याद दिलाना नहीं चाहिए। उनके अवगुणों को महत्व नहीं देना चाहिए, तब हमारे सम्बंधों में मिठास कायम रहेगी।

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