बाबा ने ईश्वरीय अनादि नियम बनाया है-एक दो तो दस पाओ

0
265

ऐसे ही मैं कोई की बहुत मीठी सेवा कर रही हूँ, बहुत अच्छी तरह समझाती हूँ, समझाते-समझाते आत्मा की स्थिति में स्थित हो जाती हूँ, उसे भी अनुभव कराया, शान्ति का लाइट अवस्था का साक्षात्कार कराया, परन्तु दूसरे क्षण उसने मेरे देह-अभिमान की अवस्था देखी, तो एक तरफ हाइएस्ट स्टेज, दूसरे तरफ एक क्षण में लोवेस्ट स्टेज। तो क्या सोचेगा?

हम एक तरफ राजऋषि हैं, दूसरे तरफ संगम के सिंहासन पर बैठने वाली महारानियां। बाबा ने कहा है कि भविष्य के सिंहासन पर तो राजा-रानी बैठेंगे लेकिन मेरा दिल तख्त इतना विशाल है जो मेरे इस दिल तख्त पर सभी बच्चे बैठ सकते हैं, जिसने इस संगम पर सिंहासन जीत लिया उसने विश्व का सिंहासन जीत लिया। तो हरेक अपने दिल से पूछे कि मैंने दिलाराम के दिल का सिंहासन जीत लिया है? दिखाते हैं लव-कुश ने राम को जीता। यह भी हमारे सामने एक दृष्टान्त है। हम बच्चों ने दिलाराम के दिल तख्त को जीता है। दिलाराम बाप की दी हुई सेवा पर दिल से तत्पर हैं। दिल भी हमारी बुद्धि के अन्दर आती। जैसे प्राण माना आत्मा, वैसे दिल माना आत्मा।
गीता के महावाक्य हैं- क्रक्रनष्टोमोहा स्मृति स्वरूपञ्जञ्ज। मेरा यह सवाल उठता नष्टोमोहा बन सर्विस पर आये हैं या नष्टोमोहा बनने सर्विस पर आये हैं? स्मृति-स्वरूप बनकर मैंने सोचा यह पुरानी दुनिया क्या है, ये जीवन क्या है, इसमें मोह क्या रखें? ऐसा समझकर आये या मोह नष्ट करने के लिए आये?
मैंने स्मृति स्वरूप होकर स्वयं को सेवा में लगाया है, माना ज्ञान स्वरूप होकर सेवा में लगे हैं। उनके साथ ही अपने सर्व सम्बन्ध, माता, पिता, बन्धु… आदि सब हैं। बाबा कहने से बाबा के गुण, शक्ति, सारी महिमा सामने आ जाती है। बाप भगवान है माना नॉलेजफुल है, सर्वशक्तिवान है अर्थात् सर्वशक्तियों का वर्सा देने वाला है। ऐसे बाबा को सर्व सम्बन्धों से जानकर, सोच-समझकर मैं समर्पित हुई हूँ या पांव इस तरफ रखा सिर दुनिया तरफ है? भक्ति मार्ग में सिर झुकाते हैं, दण्डवत प्रणाम करते हैं, माना पूरा ही समर्पण करते हैं। तो स्वयं से पूछो- मैं पूरी झुकी हूँ अर्थात् पूरा समर्पित हूँ?
वरदान तब मिलता है जब पूरा दान करते हैं, बाबा ने ईश्वरीय अनादि नियम बनाया है, एक दो तो दस पाओ, धरती को एक दाना देते हैं तो 100 देती है, अब पूछो मैं पूरा दानी बना हूँ? भक्ति में भी ईश्वर अर्पणम या कृष्ण अर्पणम करते हैं, तुम किसी मनुष्य को दान नहीं देते, तुम सब मुझ शिवबाबा को दान करते हो तब मेरे से तुम्हें वरदान मिलता है। ज्ञान का, शक्ति का, गुणों का, यह खज़ाना तुम बांटते हो। जितना-जितना औरों को बांटते उतना स्वयं भी भरपूर होते हैं। एक दिया 100 पाया। इतना जमा होता है, जिसे कहते हैं वरदान मिलता है। तो बाबा हमें दान देकर फिर हमसे दान कराता है। फिर वह और ही 100 गुणा भरतू होता है। तो जो भरतू होता है वह है वरदान।
जैसे किसी गरीब को दान दिया उसने सिगरेट पी लिया तो हमारे ऊपर बोझ चढ़ा, इसी तरह बाबा ने मुझे दान दिया और मैंने बाबा के मिले दान का उपयोग अगर ठीक नहीं किया तो वरदान की बजाए श्राप हो जाता है। यह निर्णय शक्ति चाहिए। मान लो हमने किसको मुरली सुनाई, ज्ञान दिया, बाबा की याद का अनुभव कराया, जिससे आत्मा को बड़ी खुशी हुई, उसने हमें दुआ दी, यहाँ तक तो ठीक, लेकिन जब मैंने कहा ये मेरे से बहुत प्रभावित हुआ, बहुत खुश हो गया, तो यह जमा नहीं किया, स्वीकार कर गंवा दिया। अह्म भाव आया तो बैलेन्स बराबर। जो जमा किया वह माइनस हो गया, खत्म हो गया।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें