अन्तर्मुख रहना… ये है ईश्वरीय मर्यादा

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मेरे जीवन का हमेशा लक्ष्य रहता बाबा की पहले दिन की श्रीमत है- आज्ञाकारी, फरमानबरदार, वफादार। दूसरा है त्याग, तपस्या और सेवा और इन सबका आधार है- श्रीमत। श्रीमत में रहने से हमारी तथा सर्व की सेवा है, इसमें ही कल्याण है।

रेक अपने से पूछो कि मैंने अपनी जीवन त्यागी बनाई है? त्याग की परिभाषा बहुत बड़ी है, जितना हम त्यागी बनेेंगे उतना ही तपस्वी बनेंगे। बाबा ने कहा योग न लगने के कारण नाम-रूप में फँसते हैं, देही अभिमानी नहीं बनते, यह हमारी चाबी है, देखना है हम कहाँ तक देही-अभिमानी बने हैं? अगर मेरे में जि़द्द का स्वभाव है, तो ये जि़द्द का स्वभाव क्या मुझे वरदान प्राप्त करायेगा? जैसे मुझे कोई कहता मैं नहीं कर सकती, लेकिन यह कार्य बाबा का है, वह मुझे करने के लिए कहता, उससे अनेक आत्माओं को हर्ष मिलता, उत्साह मिलता, कितना लाभ होगा। ना कर दिया तो उन सबका बोझ मेरे ऊपर चढ़ गया। नाम है जि़द्द, परन्तु उसमें कितना नुकसान हुआ।
बाबा ने हमें अमृतवेले से रात तक हर कर्म करने के जि़म्मेवार बनाया है, किसी कारण से अमृतवेले नहीं उठते। परन्तु ये भी सोचा कि मेरे उठने से कितनों को प्रेरणा मिलती है? ये प्रेरणा मिलना ही वरदान है। ऐसे ही अनासक्तपन की जीवन देखकर सब सीखेंगे। थोड़ी घड़ी के लिए मेरे में सुस्ती है, तबियत के कारण या मेरी नेचर सुस्त है, क्या मेरी सुस्ती की नेचर औरों को प्रेरणा देगी या उसे बेमुख करेगी? सुस्ती के कारण मैं किसी को बेमुख करूँ या मैं अपना मूड ऑफ अर्थात् स्विच ऑफ करके अंधकार कर दूँ, तो उसका कितना बुरा प्रभाव दूसरों पर पड़ेगा! कई तो बड़े फलक से कहते हैं कि आज मेरा मूड ऑफ है। जैसे बाबा ने कहा ओम शान्ति। हम कहते मूड-शान्ति। अगर कोई कारण से मूड ऑफ भी हुआ तो उसे बाबा की याद से सेकण्ड में खत्म कर दो। आज साइंस की शक्ति वाले सेकण्ड में अंधकार से प्रकाश कर देते हैं, हम साइलेन्स की शक्ति से मूड शान्त नहीं कर सकते?
हम सब ओपेन थियेटर में बैठे हैं, हमें सारी दुनिया देख रही है। हम बाबा के बच्चे हैं, नूरे रत्न हैं, आँखों के तारे हैं, बाबा ने हमें नयनों पर बिठाया है, हम आप साधारण नहीं हैं, लेकिन हम असाधारण अलौकिक हैं, हमारा बाबा निराला, हम भी निराले। बाबा हमेशा कहते बड़े ते बड़े छोटे सुभान अल्लाह। आप सब बाबा की छत्रछाया, शक्ति के नीचे बैठे हो, नहीं तो आज का ज़माना बहुत खराब है। आप सब एक दृढ़ संकल्प लेकर बाबा की गोद में आये हो। तो अपने से रुह-रिहान करनी है कि हमें बाप के समान बनना है, सम्पन्न बनना है, समीप रहना है।
जग को परिवर्तन करने वालों को पहले स्वयं को परिवर्तन करना है। मेरे जीवन का हमेशा लक्ष्य रहता बाबा की पहले दिन की श्रीमत है- आज्ञाकारी, फरमानबरदार, वफादार। दूसरा है त्याग, तपस्या और सेवा और इन सबका आधार है- श्रीमत। श्रीमत में रहने से हमारी तथा सर्व की सेवा है, इसमें ही कल्याण है।
ईश्वरीय मर्यादा कहती है तुम्हें अन्तर्मुख रहना है, मेरी पसन्दी है बाहरमुखता, अगर मैं अन्तर्मुख न रहूँ तो दूसरों को कैसे कहेंगे! तो ये कौन-सी मैंने सर्विस की? बाहरमुखता की मेरी नेचर है, अन्तर्मुखता बाबा की श्रीमत है, तो मुझे आज्ञाकारी बनना है। अगर नहीं रहती हूँ तो क्या मैंने आज्ञा का पालन किया या उल्लंघन किया? आज्ञा पालन करने में बाप की आशीर्वाद मिली, न करने में श्राप।

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