हमारी इच्छा वो हो जिसमें लोक कल्याण समाया हो

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जब हम ज्ञान प्राप्त करते हैं तो उसका पहला परिणाम यह होना चाहिए कि हमारी जो हानिकारक इच्छायें थीं, अकल्याणकारी इच्छायें थीं, वे समाप्त होनी चाहिए और हमारी इच्छाओं में लोक-कल्याण हो, सबका भला हो, समर्पण भाव हो जिसको हम भगवान पर समर्पण कहते हैं।

मनुष्य कहते हैं कि इच्छा नहीं होनी चाहिए, लेकिन इच्छा न हो तो कोई काम हम नहीं कर सकते। अत: हमारी लोकसेवा की इच्छा हो और इच्छाओं को परोपकारी कामों में लगा दो। बाबा कहते हैं, सेवा भविष्य का ताज है। जो यहाँ सेवा का ताज पहनेगा, वही भविष्य में विश्व महाराजन बनेगा। बाबा ने हरेक चीज़ का सद्विनियोग(सही उपयोग) करने के लिए बताया है। इच्छा को दबाते क्यों हो? इच्छा खराब नहीं होनी चाहिए। बाबा कहते हैं कि अपने में खराब चीज़ नहीं होनी चाहिए। जो हैं उनका रूपान्तर करो, वेस्ट को बेस्ट बनाओ, न कि उस चीज़ को छोड़ दो। घोड़ा है, घोड़ा चलने के लिए है। घोड़े को चारा खिलायें, पानी पिलायें, उसकी सेवा करें लेकिन यदि उसको इस्तेमाल नहीं करें तो क्या फायदा? घोड़ा आपके पास इसीलिए है कि उस पर चढ़कर अपनी मंजि़ल पर पहुँचो। अगर इच्छा को दमन करके, बाँध करके रख दो, तो क्या फायदा? उसका सद्विनियोग करो। इच्छायें हमारी एनर्जी की अभिव्यक्तिहैं। इच्छा क्या है? मरे हुए आदमी को कोई इच्छा होती नहीं। इसीलिए कहते हैं ना कि जब तक जीवन है, तब तक इच्छा है ही। जिसमें इच्छा है, उसमें एनर्जी भी है। अगर इच्छा भी है, एनर्जी भी है तो हम नरक को स्वर्ग बना दें, पतित को पावन बना दें या संसार में किसी को सुख-शांति प्राप्त कराने के निमित्त बन जायें तो इससे बड़ा कार्य और क्या हो सकता है? इससे बड़ी सेवा और क्या हो सकती है? सेवा क्या है? इच्छा का ही तो प्रयोग है। अगर इच्छा नहीं है तो हाथ पर हाथ रखकर बैठा रहेगा। जिसको हम सेवा कहते हैं वह सेवा यही है कि सबसे पहले लोक-कल्याण के लिए हमारी इच्छा होगी। जहाँ हमारी इच्छा होगी वहाँ हम अपने पैसे भी लगायेंगे, समय भी लगायेंगे और मेहनत भी करेंगे। उसी शब्द का नाम सेवा है।
अगर मन में इच्छा को दबा देना चाहते हैं, तो उसके लिए भी इच्छा चाहिए ना! इच्छा दबाने की भी इच्छा होती है। कहते हैं ना कि आप सब कुर्सियों को उठा सकते हो, लेकिन जिस कुर्सी पर आप बैठे हो उसको तो नहीं उठा सकते हो ना! ऐसे इच्छा को उठाने के लिए भी इच्छा चाहिए। इच्छा तो रहेगी ही रहेगी। इसलिए क्यों नहीं उस इच्छा का सद्विनियोग किया जाये! इसलिए यह जो युवा अवस्था है, कुमार अवस्था है, इसमें, ज्ञान में आने से पहले, वे सोचते हैं कि हम यह भी कर सकते हैं, वो भी कर सक ते हैं। मैंने देखा है, एक साल में तीन-तीन इम्तहान पास कर लेते हैं। नौकरी भी करके आयेंगे, फिर ट्युशन पढ़ाने जायेंगे; समझेंगे हम पैसे कमायेंगे। कई काम करके वे लोग जीवन में आगे बढऩे की कोशिश करेंगे। समझते हैं कि जीवन है तो यही है। बाबा कहते हैं कि इस एनर्जी को चढऩे के कार्य में प्रयोग करो अर्थात् सेवा में लगाओ। इससे वह एनर्जी सफल हो जाती है। इच्छा ही चढऩे का कारण हो सकती है।
ओढऩे की इच्छा, पहनने की इच्छा, पढऩे की इच्छा, किसी सुंदर वस्तु को देखने की इच्छा, सुंदर वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा। ये भी इच्छायें हैं। ऐसी इच्छाओं को भूलने के लिए बाबा ने कहा, क्रइच्छा मात्रम् अविद्याञ्ज। इसको कहते हैं इनोसेंट बन जाना। इसी का नाम पवित्रता है। मन से भी हम पवित्र हो जायें। ये तो मरे पड़े हैं, ये तो मुर्दे हैं। बाबा ने कहा है कि ये सब कब्रदाखिल हैं। जो भी चीज़ें इन आँखों से दिखायी पड़ रही हैं, वो सब विनाश होने वाली हैं। जब एक बार बुद्धि से यह बात समझ जाते हैं, तब इन व्यर्थ बातों की इच्छा नहीं रहती।
ज्ञान क्या है?
हमारी इच्छा वो हो जिसमें अच्छाई हो, लोक-कल्याण हो। यही तो ज्ञान है। ज्ञान क्या है? जिसमें अच्छे और बुरे के अन्तर की समझ हो। यह जानकारी हो कि किसमें हमारा लाभ है और किसमें हमारी हानि है, किसमें हमारा कल्याण है और किसमें हमारा अकल्याण है। जब हम ज्ञान प्राप्त करते हैं तो उसका पहला परिणाम यह होना चाहिए कि हमारी जो हानिकारक इच्छायें थीं, अकल्याणकारी इच्छायें थीं, वे समाप्त होनी चाहिए और हमारी इच्छाओं में लोक-कल्याण हो, सबका भला हो, समर्पण भाव हो जिसको हम भगवान पर समर्पण कहते हैं। भगवान हमारा समर्पण लेकर क्या करेगा? उसको किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं है। हम समर्पण किसलिए करते हैं? लोक-सेवा के लिए, लोक-कल्याण के लिए। यह हमारी इच्छा है। यह इच्छा मेरे लिए नहीं, लोक-कल्याण अर्थ। हवन करते हैं ना, किसलिए करते हैं? सारा मंत्र पढ़कर क्या कहते हैं? यह अग्नि के लिए है, यह वायु के लिए है, यह आकाश के लिए है; मेरे लिए नहीं। उसका भाव क्या है? घी को अग्नि में डालेंगे। अग्नि में डालेंगे तो सूक्ष्म हो जायेगा। सूक्ष्म होकर सारे वातावरण में मिल जायेगा। घी किसी को पिला दो, उसको अग्नि में क्यों डाल रहे हो? वे उसकी व्याख्या देते हैं कि अग्नि में डालने से वह सूक्ष्म हो जायेगा और वह वातावरण में मिल जायेगा। हमारे में दूसरों का भला करने की, दूसरों का कल्याण करने की भावना आयेगी। खायेंगे तो हम थोड़े लोग खायेंगे, लेकिन वातावरण में मिल जाये तो सबको थोड़ा-थोड़ा मिल जायेगा। आज आदमी के पास पीने के लिए दूध नहीं है, लेकिन आग में डाल देते हैं। क्यों? क्योंकि शुरू में इसके पीछे भी त्याग भावना थी। वे बार-बार यही कहते हैं। अग्नि को भी भगवान मानकर उसको समर्पित करते हैं।

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