मुख पृष्ठब्र. कु. सूर्यलोभवश भटकते मन को रोकें... ब्र. कु. सूर्य

लोभवश भटकते मन को रोकें… ब्र. कु. सूर्य

मुझे तो भगवान से ही सब कुछ लेना है। मुझे तो स्वर्ग की राजाई चाहिए, इससे कम कुछ नहीं चाहिए। मैं तो नर से श्री नारायण, नारी से श्री लक्ष्मी ही बनँूगी। चाहे मुझे कितनी भी तपस्या करनी पड़े। इस तरह के सुंदर विचार मन को नयी दिशा देंगे।

संतुष्टता हमारे अनेक व्यर्थ संकल्पों को शांत कर देती है। एक योगयुक्त आत्मा का प्रमुख गुण है जो उसके जीवन से, व्यवहार से, चेहरे से, बोल-चाल से दिखायी देगा, संतुष्टता। योगी अगर संतुष्ट नहीं है तो उसका मन अवश्य भटकेगा। कई सन्यासियों की बातें भी हम सुना करते थे। बहुत पैसा भी लोग उन पर चढ़ाते थे, लेकिन वो झोपड़ी में ही रहे। पैसा जो भी आता था, भंडारा करा देते थे। उनको कुछ नहीं चाहिए। वही प्रसिद्ध हुए, वो ही दूसरों का कल्याण कर सके। जिसके मन में इच्छाओं का उबाल आता रहा है ये चाहिए, ये चाहिए…। जिसकी इच्छायें कभी शांत ही नहीं होती। कभी खान-पान की इच्छा, कभी पहनने की इच्छा, कभी इलेक्ट्रोनिक साधनों की इच्छा, सुंदर घर में रहने की इच्छा, प्लेन से यात्रा करने की इच्छा। इच्छाओं के तो सौ प्रकार हैं। इच्छाओं का फैलाव मन को कमज़ोर कर देता है। जो मनुष्य संतुष्ट नहीं है वो लोभी हो जाता है। कहावत आप ने सुनी होगी। क्रक्रलोभी नर कंगाल है, दु:ख पावत दु:ख लेतञ्जञ्ज। दु:ख देता भी है, दु:ख लेता भी है और वो कंगाल ही है सचमुच। कईयों के पास बहुत पैसे हैं लेकिन रहते ऐसे जैसे कंगाल, पेंट भी फटी हुई पहनेंगे। वैसे आजकल तो फटी हुई पेंट पहनना फैशन हो गया है, लेकिन कई बड़े लोग भी जो समझदार हैं वो आधुनिकता के चक्रव्यूह में नहीं उलझते। कपड़े पुराने-सुराने पहने रहेंगे। घर में भी साफ-सफाई नहीं करने देंगे, नौकरानी नहीं रखने देंगे। लोभी रहते हैं, पैसा बचाओ, पैसा बचाओ। इससे कोई फायदा नहीं होता।
मनुष्य क्यों कमाता है? परिवार को, स्वयं को सुखी रखने के लिए, तो हमें लोभ के वश नहीं होना है। देखिये, एक है इच्छायें, दूसरी होती हैं आवश्यकतायें। आवश्यकतायें तो जो हैं वो हैं। अभी आपको कोई बीमारी हो गई तो आपको दवाई की आवश्यकता है। ठंडी बढ़ गई आपको गर्म कपड़ों की आवश्यकता है। बहुत गर्मी हो गई आपको पंखे की, ए.सी. की आवश्यकता है। वो तो आवश्यकतायें हैं, उनको तो पूर्ण करना ही होगा लेकिन कुछ मनुष्य कहीं भी तृप्त नहीं होते हैं। ये चीज़ मिल गई, दूसरे के पास देख लिया, उसके पास अच्छी है उससे अच्छी लूँगा, कपड़े अच्छे पहनने हैं, ज्वेलरी बहुत अच्छी है। दूसरों को वैसी पहने देख लिया तो सोचेंगे कि ये तो मजा नहीं आया, इससे अच्छी होनी चाहिए मेरे पास, मन भटकेगा। ऐसा न भी हो तो इकठ्ठा करने का प्लान बनायेंगे। ऐसे लोग दूसरों को धोखा भी बहुत देते हैं। गलत तरीकों से धन कमाते रहते हैं, वो भी एक चोरी है। व्यर्थ संकल्पों का तूफान मन में रहता है। वो अपने मन को एकाग्र करना चाहें तो नहीं कर सकते हैं, अनेक विद्यार्थी हमने देखें हैं। भिन्न-भिन्न कारणों से उनके मन की गति बहुत तेज़ हो जाती है तो चित्त शांत नहीं होता। एकाग्रता नहीं होती है। पढ़ाई-लिखाई भारी लगती है। टेंशन पैदा करती है।
इसलिए आज सभी अपने मन में संकल्प करें कि जब हम भगवान के बच्चे बन गये, उससे हमें सब कुछ मिल रहा है तो क्यों न हम उससे सब कुछ लें? सांसारिक इच्छायें, ये संसार की छोटी-मोटी प्राप्तियाँ, ये कई युगों से हमारे साथ रही हैं। सतयुग में तो क्या-क्या होगा हमारे पास, इतना ज्य़ादा होगा जो कोई इच्छायें ही नहीं होंगी। हम इतने सम्पन्न और भरपूर होंगे। तो क्यों न हम उस स्थिति की ओर चलें,लोभ पर ध्यान दें। ऐसा तो नहीं बहुत कुछ होते भी हमारा लोभ समाप्त नहीं होता है! आत्मा संतुष्ट हो ही नहीं रही है! संतुष्टता तो बहुत सुंदर चीज़ है भगवान के शब्दों में, संतुष्टता बहुत बड़ी प्रोपर्टी है और प्रसन्नता तुम्हारी पर्सनैलिटी है। जो व्यक्ति लोभी है वो तो चक्रव्यूह में घूमता ही रहता है।
केवल जो भगवान के बच्चे बन गये, जिन्होंने ईश्वरीय प्राप्तियों के बाद अपने चित्त को शांत और संतुष्ट कर लिया वे इस लोभ से मुक्त होकर अपने को शांत कर सकते हैं। तो चेक करेंगे भगवान को पाने के बाद भी हम इस संसार से और क्या पाना चाहते हैं। जबकि वो स्वर्ग की राजाई हमारे लिये लेकर आया है। जबकि वो हाईएस्ट स्टेटस देने आ गया है तो हम उसे छोड़कर किसके पीछे भाग रहे हैं? जो तृष्णायें हैं, जहाँ से आत्मा तृप्त होगी ही नहीं, जो व्यर्थ संकल्पों को जन्म दे रही हैं। अपने स्वमान को बढ़ायें- मैं भरपूर आत्मा हूँ, सम्पन्न हूँ। मैं तो दाता हूँ, देने वाली हूँ, इष्ट देव-देवी हूँ, मेरा दर्शन करके ही अनेकों की मनोकामनायें पूर्ण हो जाती हैं। मुझे माँगने का हाथ तो फैलाना ही नहीं है। मुझे अपने मन से इच्छाओं को कम करना है। एक लक्ष्य बना लें।
मुझे तो भगवान से ही सब कुछ लेना है। मुझे तो स्वर्ग की राजाई चाहिए, इससे कम कुछ नहीं चाहिए। मैं तो नर से श्री नारायण, नारी से श्री लक्ष्मी ही बनूँगी। चाहे मुझे कितनी भी तपस्या करनी पड़े। इस तरह के सुंदर विचार मन को नयी दिशा देंगे। उमंग-उत्साह देंगे, व्यर्थ से मुक्त रखेंगे। फिर धीरे-धीरे आप छह मास में अनेक इच्छाओं की गुलामी से मुक्त हो जायेंगे।

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