ईश्वरीय विद्यार्थी जीवन का प्रमुख विषय है ‘योग’। योग का अभ्यास करना, ये हमारे पुरुषार्थ का प्रमुख हिस्सा है। क्योंकि हमारा यह जीवन पुरुषार्थी जीवन है। बाबा(परमात्मा) इसको रेस कहते हैं। कई दफा तो बाबा यह भी कहते हैं कि यह अश्व दौड़(हॉर्स रेस) है। हम सभी इस रेस में शामिल हैं। कोई आगे बढ़ रहा है, कोई धीरे चल रहा है। हर एक के पुरुषार्थ की अपनी डिग्री है। और उससे जो प्राप्ति है वो अलग-अलग है। सब चाहते तो यही हैं कि अपनी सम्पूर्ण स्टेज को प्राप्त करें। हम सब चाहते हैं कि हम 36 दैवीगुण धारण करें। हम सब से आगे निकलें। ये भी जानते हैं कि ये समय बार-बार नहीं मिलता। सिवाय संगम के ये संभव भी नहीं है। लेकिन हम इस बात को भूल जाते हैं। हमारी बुद्धि पर पर्दा पड़ जाता है। इस बात को समझते हुए, इस महत्त्व को जानते हुए भी हम ढ़ीले क्यों हो जाते हैं, जितना ध्यान देना चाहिए, जितनी कोशिश हमें करनी चाहिए, वो क्यों नहीं करते! जब इतनी जबरदस्त प्राप्ति है, यह हमारी समझ में आ गया है, फिर गफलत क्यों करते हैं, क्या कारण है इसका? आपने कभी सोचा! परमात्म-महावाक्यों में बहुत दफा परमात्मा बताते हैं कि इसका क्या-क्या कारण है।
जब अपने पर ध्यान जाता है, गौर करते हैं तो उस निष्कर्ष बिंदु पर अवश्य पहुंचते हैं कि जन्म-जन्मांतर के विकर्मों का बोझ हमारे ऊपर चढ़ा हुआ है। आत्मा के ऊपर खराब संस्कार पड़ गये हैं, वे मन को इधर-उधर ले जाते हैं। पहले ये कर दूं या वह कर दूं, इस तरह मनुष्य आना-कानी करता है, गफलत करता है, पूर्ण ध्यान देता नहीं है, फिर हट जाता है। क्यों हट जाता है, क्योंकि कई दफा वह निराश हो जाता है। जीवन में सबसे खतरनाक चीज़ है, तो वो है निराशा। यह पुरुषार्थी जीवन में बहुत बड़ा विघ्न उत्पन्न करती है। अरे, छोड़ो भाई, सम्पूर्ण पवित्र बनना तो हमारे वश की बात नहीं है। हम पूर्ण पवित्र बन नहीं सकते। जितना बन जायेंगे, उतना बन जायेंगे। अरे भाई, यह क्या है, नींद छोड़कर, आराम छोड़कर रोज़ सुबह-सुबह जल्दी उठो, योग करो, यह हमारे से नहीं हो सकता। अरे, हम जैसे गृहस्थियों को सहज थोड़े ही है। छोड़ो इसको, क्या झंझट है। इस प्रकार निराश हो जाते हैं। बाबा ने कहा है कि यह ज्ञान मार्ग बहुत सहज है। बाबा भी नहीं चाहते कि बच्चे मुश्किल में पड़ें, मेहनत करें, लेकिन हमें मुश्किल लगता है। क्यों मुश्किल लगता है, क्योंकि हमें अमृतवेले अनुभव नहीं होता। होता है तो कभी-कभी होता है। और बहुत कम समय तक होता है। मन ज्य़ादा समय टिका नहीं, लाभ कुछ हुआ नहीं, नींद भी गंवाई और योग भी नहीं किया। अरे, आराम से सो भाई! योग तो बाद में भी लग सकता है। किसने कहा कि सुबह साढ़े तीन बजे योग लगता है! अमृतवेला यही है क्या! पूरा संगमयुग ही अमृतवेला है। कभी भी योग करो, उसमें क्या। योग तो किसी समय पर भी लग सकता है। आदमी अपने आप वकील और जज बनकर अपने आप को समझाने लगता है, गलत तरीके से। समझता तो यही है कि अपना भला सोच रहा हूँ, लेकिन गलत सोच लेता है। ऐसा क्यों सोच लेता है, क्योंकि निराशा होती है। निराशा क्यों होती है, क्योंकि कोई प्राप्ति नहीं होती उसको। अगर कोई व्यापारी है, दिनभर मेहनत करने के बाद भी उसको कुछ फायदा नहीं होता है, तो सोचेगा कि इसमें क्या रखा है। समेट लो इस धंधे को, इसमें नुकसान ही नुकसान है, प्राप्ति तो कुछ है ही नहीं। मन में निराशा उत्पन्न होने से आदमी में उत्साह कम हो जाता है। निराश होना उस व्यक्ति की पहली हार है। उसकी इच्छाशक्ति को कमज़ोर करती है। वह हार मान लेता है, कहना शुरु करता है कि छोड़ो भाई, जो होगा सो होगा। इससे वह इतनी ऊँची प्राप्ति नहीं कर सकता। ऐसे मन में आने वाले विचार अगर हैं तो समझ लो कि निराशा ने मुझे घेर लिया है।