राजयोग का अभ्यास ही सुखदाई और मधुर है। परन्तु यदि राजयोग का अभ्यास करते हुए मन में अनायास ही कोई व्यर्थ संकल्प आ जाये तो उससे चिन्तित नहीं होना चाहिये। उसके निवारण के लिये दो ही तरीके हैं- एक तो यह कि उससे परेशान न होइये, मन को हल्का रखिये। दूसरा निराशा अनुभव न कीजिये। आप हल्के मन से फिर ईश्वरीय चिन्तन करने का पुरूषार्थ कीजिये। जैसे लोहे को लोहा काटता है, वैसे ही संकल्प को भी संकल्प ही काटता है। अत: उन अशुद्ध संकल्पों को काटने का सर्वोत्तम तरीका है- मन को श्ुाद्ध संकल्पों में व्यस्त कर देना। वरना, यदि कोई इन संकल्पों में उलझ जाता है कि पता नहीं मेरा मन टिकता क्यों नहीं, मेरे व्यर्थ संकल्प मिटते क्यों नहीं, तो एक व्यर्थ चिन्तन तो हो ही रहा था, अब उस चिन्तन के बारे में भी चिन्तन प्रारम्भ होगा तो इस श्रृखंला का अन्त कहॉँ होगा? अत: इन संकल्पों के स्थान पर ज्ञानमय संकल्प शुरू कर दीजिये।
राजयोग अभ्यास करते समय यदि अनायास ही मन किसी कारण से पुन: वहाँ से हट जाये तो उसे पुन: परमपिता परमात्मा के परिचय आदि के मनन-चिन्तन में लगा देना चाहिये ताकि स्थिति फिर से स्थूल न हो जाये। उदाहरण के तौर पर इस प्रकार का मनन कीजिये-”यह संसार तो एक मुसाफिर-खाना है। अब इस कलियुगी सृष्टि में कोई भी आसक्ति रखने की मेरी चेष्टा नहीं है… शिव बाबा, अब मेरी प्रीति तो आप ही से है जो कि मुझे परमधाम तथा वैकुण्ठ में ले चल रहे हैं, मुझे मार्ग-प्रदर्शना दे रहे हैं… मेरा वर्तमान जन्म तो अन्तिम जन्म है, अब मैं सृष्टि मंच पर अपना पार्ट पूरा कर चुका हॅँू अब मेरा पार्ट स्वयं परमपिता परमात्मा शिव के साथ है… शिव बाबा, आप तो अवढर दानी और भोले भण्डारी हैं… आपने मुझे ज्ञान तथा योग रूपी वरदान दिये हैं जिनसे कि सभी प्राप्तियाँ हो जाती हैं… शिव बाबा, आप तो सचमुच बड़े हितैषी एवं अपार सुख-शान्ति देने वाले हैं, अत: मैं आपको हृदय से बहुत ही प्यार करता हँू..आप तो बिगड़ी को बनाने वाले हैं, अत: मैं आपको हृदय से बहुत ही प्यार करता हँू… आप तो बिगड़ी को बनाने वाले और माया की गहरी नींद में सोये हुए को जगाने वाले हैं। मुझे भी आप दलदल से निकालकर पावन बना रहे हैं और 21 जन्मों के लिये स्वर्ग के राज्य-भाग्य के अधिकारी बना रहें हैं… आप तो बहुत ही कमाल करते हैं कि एक जन्म में सहज ज्ञान तथा सहज
राजयोग द्वारा पतित नर को पूज्य श्री नारायण तथा नारी को पूज्य श्री लक्ष्मी बना देते हैं… अत: मैं आपके उच्च कत्र्तव्य की कैसे सराहना करूँ? शिव बाबा, अब तो मैं भी दूसरों को आपकी वाणी सुनाऊं गा, उन्हें माया की नींद से जगाऊंगा तथा आपका मधुर परिचय देकर हर्षाऊंगा। शिव बाबा, अब मैं कभी भी विकर्म नहीं करूँगा बल्कि आपकी आज्ञानुसार चलकर अपना जीवन श्रेष्ठ बनाऊंगा…। इस प्रकार का मनन-चिन्तन करते-करते पुन: एकाग्रता पूर्वक शान्ति, शक्ति, प्रेम की धारा को धारण करते जैसे अनुभव में समाहित हो जाना चाहिए।
अशुद्ध संकल्पों का निवारण
यदि ये ज्ञान-युक्त चिन्तन भी नहीं हो पा रहा, मन में खलबली-सी मची हुई है, चित्त में भारीपन-सा है, आलस्य है या मानसिक उद्दण्डता एवं उद्विगनता है तो ज्ञान का अंकुश प्रयोग कीजिये। हमने काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईष्र्या, द्वेष, आलस्य, या इन्द्रिय आकर्षणों से होने वाले नुकसान को भली-भांति समझा है।उसको ध्यान में रखते हुए, जिस प्रकार के संकल्प मन में उठ रहे हों, उनका निवारण करने के लिये, उन्हें शान्त करने वाले ज्ञान-बिन्दुओं का मनन कीजिये। इस प्रकार की ज्ञान-गवेषणा से कुछ ही दिनों में आपके वे अशुद्ध संस्कार धीमे अथवा ‘तनु’ होते जायेंगे और क्षीण होते-होते, अन्तोगत्वा आपका पीछा छोड़ जायेंगे।
इस प्रसंग में एक बात को मन में पक्का कर लीजिये। वह यह कि कभी अपने पुरूषार्थ से निराश न होइये। निराशा आने से आलस्य और प्रमाद अथवा अलबेलापन आता है और उसका दुष्परिणाम यह होता है कि मनुष्य अभ्यास करना ही छोड़ देता है। यह बहुत हानिकारक है। निराशा का तो कोई कारण नहीं है क्योंकि पुरूषार्थ कभी भी शत-प्रतिशत निष्फल तो जाता नहीं। कर्म तो अविनाशी है, उसका प्रभाव चाहे कितना भी क्षीण क्यों न हो, पड़ता अवश्य है। क्या प्राय: यही नहीं देखते कि किसी दीवार को गिराने के लिये मिस्त्री या मज़दूर द्वारा अनेकानेक हथौड़े लगाने पड़ते हैं। पहले एक-दो हथौड़े से यद्यपि दीवार नहीं गिरती तो भी मिस्त्री हथौड़े लगाना छोड़ नहीं देता क्योंकि वह जानता है कि हथौड़े का हरेक प्रहार अपना काम कर रहा है। वह दीवार को कमज़ोर करता जा रहा है। यद्यपि दीवार अन्तिम हथौड़े के मार से गिरेगी तथापि उससे पहले की चोटें भी महत्त्वपूर्ण हैं- वे व्यर्थ नहीं हैं ठीक इसी प्रकार, हमारे प्रतिदिन का योगाभ्यास महत्त्वपूर्ण है। आज यदि किन्हीं विक्षेपों के कारण मन स्थित नहीं हो सका तो निराश होने की कोई बात नहीं क्योंकि हमारा हरेक संकल्प रूपी हथौड़ा हमारी कालिमा की दीवार को ढाने में महत्त्वशाली है।
दिनचर्या पर ध्यान
अभ्यास के प्रसंग में एक महत्त्वपूर्ण बात और भी कह दें। जब हम योगाभ्यास के लिये बैठते हैं, तो तन को तो एक स्वच्छ एवं आरामदायक आसन पर बिठा देते हैं परन्तु हमारे मन का आसन तो हमारे दिन भर के संकल्प-विकल्प ही होते हैं। हमारा मन उसी भूमिका में ही आगे चलता है। अत: उस भूमिका को ठीक करना ज़रूरी है। जो मनुुष्य दिन-भर देह-अभिमानी हुआ रहता है, देह-दृष्टि से ही सभी को देखता है, प्रभु को रिंचकमात्र भी याद नहीं करता, उसे योगाभ्यास के समय ईश्वरीय स्मृति में तन्मयता की स्थिति प्राप्त करने में बहुत समय लग जाता है। परन्तु जो मनुष्य दिन-भर भी आत्म चेतस रहता है, सभी को आत्मिक दृष्टि से देखता है, उसकी स्थिति स्थूलता एवं लौकिकता से ऊपर उठी रहती है और ईश्वरीय याद की यात्रा पर चलने में उसे अधिक समय नहीं लगता। बिजली का स्विच ऑन करने की न्यायीं वह सहज रीति से ही ईश्वरीय स्मृति में टिक जाता है।