जो परमात्म श्रेष्ठ मत को समझ पाये…!

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अगर सेवा के दो अच्छे विचार हैं, उन्नति के हैं, चाहे वो पुरुषार्थ के हों, या सेवा के हों दोनों विचार अच्छे हैं तो बाबा ने हमें जो श्रीमत दी है कि बाबा ने अपने कार्य के लिए यज्ञ की तरफ से जिस आत्मा को निमित्त बनाया है तो हमें उनको रिस्पेक्ट(सम्मान) देना चाहिए।

अकसर सेवा में या कोई यज्ञ कारोबार में कई बार ऐसा होता है कि हमारी अपनी बुद्धि से जो राय आती है क्योंकि हम सभी नम्बरवार ज्ञानी तू आत्मायें हैं। हमें भी अच्छे-अच्छे विचार आते हैं, कई बार हमारी मत भी सही होती है और निमित्त आत्मा के द्वारा मिली हुई मत भी सही होती है। लेकिन दोनों अलग-अलग हैं। मान लो ये गुलदस्ता है मैं कहूँगी कि यहाँ रखना अच्छा लगता है लेकिन आप कहेंगे कि नहीं यहाँ रखना अच्छा लगता है, अब दोनों मत अच्छी हैं। आपकी बुद्धि में जो आइडिया आया वो भी अच्छा है, निमित्त की बुद्धि में जो आया वो भी अच्छा है। तो आप कहेंगे कि किसका हम मानें? मेरी मानूं तो आप मनमत क्यों कहते हैं और निमित्त कहे वो ही श्रीमत है तो ऐसा क्यों? इस प्रकार के प्रश्न भी मन में आते हैं लेकिन उसका भी रास्ता सरल हैं। अगर सेवा के दो अच्छे विचार हैं, उन्नति के हैं, चाहे वो पुरुषार्थ के हों, या सेवा के हों दोनों विचार अच्छे हैं तो बाबा ने हमें जो श्रीमत दी है कि बाबा ने अपने कार्य के लिए यज्ञ की तरफ से जिस आत्मा को निमित्त बनाया है तो हमें उनको रिस्पेक्ट(सम्मान) देना चाहिए। उनकी अच्छी मत को पहले स्वीकार करना चाहिए क्योंकि बाबा ने, यज्ञ ने, दादियों ने सेवा कारोबार के लिए उनको निमित्त बनाया है। जब हम ऐसे समझकर उनको, उनकी मत को सम्मान देते हैं तो वहाँ भी हमें श्रीमत के प्रमाण चलने में मूंझ नहीं होती। सबसे पहला श्रीमत पर चलने में जो विघ्न आता है वो हमारी अपनी बुद्धि के अभिमान का विघ्न आता है। हमें अपनी बुद्धि का जो नशा, इगो होता है वो सबसे बड़ा विघ्न होता है। इसलिए सबसे बड़ा समर्पण यही है कि हम अपनी बुद्धि को समर्पित करें और श्रीमत को स्वीकार करें तो बाबा की ये गैरन्टी है कि अगर हम श्रीमत पर चलेंगे तो रेस्पॉन्सिबल(जि़म्मेवार) स्वयं बाबा है। अगर हम श्रीमत पर चलेंगे तो बाबा रूचि से मदद करते हैं, साथ देते हैं। तो हम श्रीमत पर चलें और बाबा के साथ का अनुभव करें। इसलिए बाबा अभी भी हमें सम्मुख आकर श्रीमत देते हैं, मुरली के द्वारा हमें श्रीमत मिलती है और दादियों के द्वारा उनका प्रैक्टिकल स्वरूप कैसा होना चाहिए वो हमें दिखाई देता है। तो श्रीमत है आध्यात्मिकता और उसकी आचरण में जब धारणा आती है तो हमारे अन्दर नैतिकता धारण होती है तो ये दोनों चीज़ें ऑटोमेटिक हमारे जीवन में आ जाती हैं।

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