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अपने को निमित्त समझकर चलेंगे तो न्यारा और बाप का प्यारा स्वत: बन जायेंगे

कर्मेन्द्रियों से पवित्र हैं, शांत हैं, ये संयम तो हम सभी रखते ही हैं अपने आप में। अब हमारा लक्ष्य है कि मुझे पूर्ण शुद्ध आत्मा बनना है। विकार का कोई अंश भी न हो। मन्सा में भी कोई गंदगी न हो। इसी का पुरुषार्थ हम कर रहे हैं।

जब से हम बाबा के बने,यज्ञ से जुड़े तो अब हम व्यक्ति नहीं हैं,अब हम भी संस्था हैं यज्ञ हैं। क्योंकि लोग हमें अब व्यक्ति के रूप में नहीं देखते हैं ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारी के रूप में देखते हैं। ओमशांति वाले हैं इस रूप में देखते हैं। हम अपने स्वभाव-संस्कार, गुण-कमी के अनुसार कर्म करते हैं पर लोग क्या समझते हैं? क्या ब्रह्माकुमारी में ऐसा सिखाते हैं। वो विद्यालय का ही नाम लेते हैं ना! लोग इस नज़र से देखते हैं। तो मुझे अपने आप को कैसा देखना है कि मैं अब बाबा की बच्ची हूँ। बाबा की रिप्रेज़ेंटेटिव(प्रतिनिधि) हूँ। जब व्यक्तिगत रूप से हम अपने आप को नहीं देखेंगे तो मैंपन नहीं आयेगा, देह भान नहीं आयेगा। और अब तो हम सभी सिर्फ ब्रह्माकुमार नहीं योगी-तपस्वी हैं। भक्ति में जो साधना करते हैं उनका ये ध्येय होता है-आत्म शुद्धि, आत्म शुद्धि के लिए साधना करते हैं। हम भी इसके लिए ही योग करते हैं कि हम पूर्ण शुद्ध आत्मा बनें। हम सबका भी लक्ष्य सिर्फ कर्म का ब्रह्मचर्य नहीं वो तो हमारी प्राइमरी स्टेज पर ही धारण हो जाती है। हमारी मंजि़ल है सम्पूर्ण निर्विकारी बनना।
विकार का कोई अंश न रहे। जो कर्मेन्द्रिय से मुझे नहीं करना है वो मन-बुद्धि से भी नहीं करना है। पहले बाबा कहते थे ना कि माया के कितने भी तूफान मन में उठें लेकिन कर्मेन्द्रियों से कर्म नहीं करना है। अब वो तो हम बन गये हैं। कर्मेन्द्रियों से पवित्र हैं, शांत हैं, ये संयम तो हम सभी रखते ही हैं अपने आप में। अब हमारा लक्ष्य है कि मुझे पूर्ण शुद्ध आत्मा बनना है। विकार का कोई अंश भी न हो। मन्सा में भी कोई गंदगी न हो। इसी का पुरुषार्थ हम कर रहे हैं। चेहरे के हाव-भाव द्वारा हम विकर्म करते हैं, गलत कर्म करते हैं। किसी आत्मा को देखकर हम ऐसा-वैसा मुँह बनाते हैं। तो हर कर्मेन्द्रियों से विकर्म हुए हैं ना! बाबा कहते हैं जिस क्षण आप अपने आप से डिस्कनेक्ट होते हैं, बाबा से डिस्कनेक्ट होते हैं उस समय ही हम गलत उपयोग करते हैं कर्मेन्द्रियों का। भूलें तभी होती हैं जब हम अपनी सत्यता या मेरे बाबा की सत्यता को भूल जाते हैं। अब हर कर्मेन्द्रिय से आत्मभिमानी ताकत का तेज अनुभव होना चाहिए। ये है तपस्या। बाबा कहते हैं ना जितना योगी तपस्वी बनते हैं हमारी और क्षमता बढ़ती है। पहले हम सिर्फ लौकिक को निभाते थे लेकिन अब अलौकिक कत्र्तव्य भी हम निभाते हैं। डबल जवाबदारी सब ले रहे हैं। तो ना कॉन्शियस बनना है, ना अटैच होना है। इसलिए बाबा कहते हैं न्यारापन का अभ्यास बहुत ज़रूरी है। प्यारे बहुत जल्दी बन जाते पर न्यारा बनकर प्यारा बनना है।
देह भान, देह अभिमान जो हमारी विशेषता, गुण, कला, बुद्धिमता उसके अभिमान को देह अभिमान कहा जाता है। और जो हमारी स्थूल भौतिक उपलब्धियां हैं कि मैं बड़ी पोस्ट पर हूँ, धनवान हूँ, जमींदार हूँ, ये जो भी स्थूल भौतिक चीज़ों का अभिमान है वो अहंकार कहा जाता है। बाबा के बन गये अब उस प्रकार का- रूप का, धन का, पोस्ट-पॉजिशन अब वो अहंकार नहीं है। पर कई बार ये सूक्ष्म अहंकार आता है ज्ञान का अभिमान। मेरे जैसा विचार सागर मंथन किसी का नहीं। मेरे जैसा योगी कोई नहीं, मैं ही रोज़ क्लास करता हूँ, नहीं। किसी भी चीज़ का अभिमान नहीं। बुद्धि का अभिमान, कला का अभिमान मैं ही माइक अच्छा चलाना जानता हूँ। अभिमान आ गया तो बाबा कहते हैं ना वो गुण,अवगुण हो गया। अमृत में अभिमान के ज़हर की बूंद पड़ गई,वो पूरा अमृत बेकार हो गया। कोई भी गुण, कला, विशेषता, बुद्धि का अभिमान आता है तो बाबा कहते हैं गिरती कला शुरू हो जाती है। इसलिए बाबा हमें कहते हैं कि जो भी विशेषता है हमेशा ये समझो कि प्रभु की देन है। ये नहीं कि ये तो मेरे अन्दर पहले से ही था, नहीं।
हम सबका अनुभव भी है कि अंश गुण, कला को बाबा के कार्य में लगाते हैं तो बाबा हमें उसमें परफेक्ट बनाता है। थोड़ा-सा भोजन,टोली बनाने आता था और बनाते-बनाते मातायें मास्टर बन गईं। है ना हम सभी का अनुभव! तो बुद्धि में निमित्त।
मैं ये प्रैक्टिस करती थी। एकोमोडेशन देते थे तब। जब उस ऑफिस का उद्घाटन हुआ तो जगदीश भाई ने अपनी बुक में अपने शुभ वचन लिखे थे कि भल एकोमोडेशन कम भी हों पर अपने दिल में सबको एकोमोडेट करना। प्रैक्टिकल उस बात का ध्यान रखने के लिए रोज़ मैं वो पढ़ती थी और जब मैं अपना कार्य शुरू करती थी तो बुद्धि में याद कर लेती थी। बाबा मैं तो बीच में निमित्त हँू, यज्ञ आपका है, बच्चे आपके हैं। मुझे निमित्त बनकर देना है। इस अभ्यास के कारण ये कार्य बहुत अच्छी रीति मैं कर सकी। इसलिए जब अपने को निमित्त समझकर चलेंगे तो न्यारा और बाप का प्यारा स्वत: बन जायेंगे।

एक बार बड़ी दीदी ने हमें बताया था। बड़ी दीदी से पूछा कि दादी आप लोग तो कॉन्सटेंट एक के बाद एक कार्य में में बिजी़ रहते हैं तो बाबा को कब याद करते हैं। तो बड़ी दीदी ने बड़ा अच्छा बताया था कि एक पार्टी से मिलती हूँ, वो जाती है फिर दूसरी से मिलती हूँ उस बीच में मैं फिर से अपने आप को बाबा से जोड़ लेती हूँ। ये भी मैंने बहुत प्रैक्टिस किया। कोई मिलने आते हैं तो मैं और अन्दर से डिटैच हो जाती हूँ। अन्दर से और न्यारा हो जाना या आत्म स्मृति में या जो हमारे स्वमान, टाइटल बाबा ने दिए हैं वो याद करना। बाबा भी देखो ज्ञान में आये पहले सबको कमल बनाया। कमल फूल बनाया ना। कितनी बार बाबा कहते हैं भल घर में रहो पर कमल फूल समान बनो। कमल की क्या विशेषता है डिटैचमेंट, न्यारापन फिर बाबा ने आगे बढ़ाया कि कितने भी सतकर्म करो सेवा करते हैं ना हम सब तन मन धन लगाते हैं, मन वचन कर्म लगाते हैं कितने भी सतकर्म करो ट्रस्टी निमित्त। श्रीमत पर कारोबार करते हैं। तो बाबा ने ट्रस्टी बनाया। ट्रस्टी सबकुछ करता है पर मालिकपन नहीं आता है। हमें सबकुछ करना है पर मालिक बाबा है। तो मालिक के नियमानुसार करना होता है ना तभी ट्रस्टी कहा जाता है। और अब फरिश्ते। सतकर्मों में भी करते हुए भी आसक्ति नहीं। ऊपर की ऊंची लाइट माइट कीस्थिति है अब बाबा कहते हैं खुद को क्या समझो फरिश्ता। कितना भी महान बन जायें, आगे बढ़ जायें, अनन्य हो जायें, सर्विसएबुल बन जायें परन्तु न्यारापन। लाइट इसलिए ब्रह्मा बाप ने नम्बर वन आत्माने अपने जीवनभर का पूरा सार तीन शब्दों मे बताया। ये सामान्य बात नहीं है। नम्बरवन आत्मा ने अपने सम्पूर्णता की स्थिति पर ये तीन अनमोल वचन हमें कहे। निराकारी, निर्विकारी, निरहंकारी। कितना भी महारथी बन जायें परन्तु मैं बाबा का बच्चा हूँ कोई अभिमान नहीं। और अभिमान न रहने की निशानी बड़ी दादी ने हमे बतायी निमित्त भाव, निर्मान भाव। मैंपन तो क्या बहस करना भी नहीं आयेगा आपके जीवन में। निर्मान भावना और निर्मल वाणी। अहंकार नहीं आयेगा। वाणी में अहंकार नहीं आयेगा। कितना भी सहयोगी बन जायें दिखावा नहीं आयेगा। बाबा ने मौका दिया हमारे तन मन धन को सफल करने बाबा कहते है ना कि कभी संकल्प में भी न आवे कि दिया। जानते हैं पदम गुणा रिटर्न मिलना है तभी तो बाबा पर बलिहार जा रहे हैं। यज्ञ में कोई चीज़ लाकर दी, दे दिया माना हमारा कोई अधिकार नहीं। फिर सोचना नहीं है जो अलमारी दी थी वो कहाँ गई दिखाई नहीं देती। बहन जी ने बेच दी या क्या किया? नहीं। इसका मतलब हमने अभी तक पकड़ के रखा है। तो जमा तो हुआ ही नहीं। सफल किया पर जमा नहीं हुआ। ये दो हिसाब अलग अलग हैं। बाबा के कार्य में सेवा में लगाना सफल करना है। पर अगर बुद्धि में चला, वर्णन किया बार बार भई ये पंखे आपको पसंद आये? कहेंगे हाँ बहुत अच्छे हैं। तो हम कहेंगे मैंने लगवाये थे। इसलिए बाबा कहते हैं जमा कितना होता है और माइन्स कितना होता है मैंपन और मेरापन करने से। इतना सत्य ज्ञान देने के बाद भी बाबा ने हमारे पर अधिकार नहीं किया। गीता में भी सबकुछ कह दिया उसके बाद भी अर्जुन डिसकस करता रहा, आगर्यूमेंट करता रहा। तो भगवान ने क्या कहा यथेश्ची तथाकुरू तुमको जो चाहिए वो करो। मैंने अपना कार्य कर दिया। बाबा ने हमें कभी कुछ भी नहीं कहा। एक बार प्रोग्राम में एक मेहमान हमें कहने आये कि ये आये हुए मेहमान कितना भोजन फेंकते हैं आप लोग क्यों नहीं इन लोगों को कहते हो। तो हमने कहा कि पहले ही दिन हरेक की फाइल में सूचनाओं का कागज होता है सबको सूचना दे दी जाती है। उसके बाद भी क्लास में एनाउन्स किया जाता है। आपके घर कोई मेहमान ऐसा करे तो आप लड़ेंगे थोड़े उनके साथ। समझायेंगे। बाबा समझाते हैं भक्ति में तो गुरू कथाकार क्या कहते हैं जो हम कहते हैं वो सत वचन है। आपको वही मानना है कोई प्रश्न नहीं करना है। ऐसे ही बताते हैं ना। और बाबा हमें रोज़ बार बार समझाते हैं। दादियों को हम सबने देखा है तो ये हरेक की अपनी जागृति हो। कि मुझे देह भान का मैंपन और मेरापन नहीं लाना है। बाबा ने एक बार कहा था कि बच्चों का मैंपन और मेरापन ही प्रत्यक्षता के होने में पर्दा हो जायेगा। आयें हैं बाबा को प्रत्यक्ष करने और लगे हैं अपनी प्रत्यक्षता करने। हमें अपनी प्रत्यक्षता नहीं करनी है बाबा की प्रत्यक्षता। बाबा का नाम बाला करना है। यज्ञ का नाम बाला करना है। यज्ञ का नाम रोशन करना है। हमें व्यक्तिगत अपनी महत्ता नहीं बढ़ानी है। बाबा, बाबा का सत्य ज्ञान महत्त्वपूर्ण है वो हमें प्रत्यक्ष करना है। तो जितना आत्माभिमान का मैंपन और मेरापन लायेंगे, प्रैक्टिस में लायेंगे वो देह भान का मैं और मेरापन खत्म होता जायेगा। और इस आत्मभिमानी स्थिति में, बाबा में इतना सुख और आनंद उनके याद में अनुभव होता है और अपने आप हमें अन्दर वो अलौकिकता रूहानियत आती है कि हम गुप्त रहकर भी प्रत्यक्ष हो जाते हैं। अपने आप अनुभव होता है लोगों को। हमें देखे बाबा याद आवे हमें देखे आत्मभिमानी बन जाये, व्यक्त भाव वाला अव्यक्त हो जाये। यही तो सेवा करनी है हमें। हमें अपने आप से पक् का करना है कि बाबा ने जो कहा है वो बनना है नहीं बनना है। जो बाबा का कहा हुआ सहज लगा, अनुकूल लगा वो हमने कर दिया पर बाबा जो चाहते हैं वो मुझे करना है या नहीं ये अपने आप से पक् का करना है। अब बाबा को हमसे कौन सी मदद चाहिए? हमारी स्थिति की मदद चाहिए। करना है ना! अब बाबा को जो मदद चाहिए वो मुझे करनी है। हमारी स्थिति की मदद, हमारी सम्पन्नता की मदद, हमारी सम्पूर्णता की मदद चाहिए।

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