सम्पूर्ण मातृत्व, अद्भुत नारीत्व, दैवी जीवंत प्रतिमा… जगदम्बा

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अच्छा बना नहीं जाता है इस दुनिया में, हम अच्छे ही हैं, यही सोच हमें हर पल अच्छा बनाती है और बस इसी सोच से परमात्मा को याद करने का, उससे शक्ति लेने का, उसको शुक्रिया करने का एक अवसर मिलता है।

हम सभी जब कभी मंदिर में जाते हैं तो ज्य़ादातर प्रतिमा जो मंदिर में स्थापित है उसको नमन करते, थोड़ी आरती करते, फूल चढ़ाते और वापस आ जाते। भाव लेकर क्या गये थे कि एक सम्पूर्ण विश्वास है कि इससे हमें अवश्य कुछ न कुछ मिलेगा। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि जो प्रतिमा सामने होती है ना उसमें से लोगों को ऐसी भासना आती है कि ये सम्पूर्ण है, इसके अंदर अपनापन है, ये सभी को अपना समझती है, अपना मानती है, इसलिए इसके पास प्राप्ति अवश्य है।
ब्रह्माकुमारीज़ यज्ञ की स्थापना की आदि देवी जगदम्बा सरस्वती भी उसी दैवी जीवंत प्रतिमा की अप्रतिम उदाहरण हैं। जिन्होंने इनको देखा, इनके साथ रहे, जो इनकी पालना में पले, उनके मुख से यही सुनने में आता है कि सच में चैतन्यता की अद्भुत, पारखी आत्माओं को क्या चाहिए, उसका पूरा एहसास मम्मा में था। एक साधारण सी कन्या जो परमात्मा के घर में आई। पूर्ववत व्यक्तित्व, बिल्कुल ही आधुनिकता के साथ था। लेकिन बदलाव इतना बड़ा हुआ कि सम्पूर्णता को पाने का लक्ष्य ले लिया। इतनी सारी कन्याओं, माताओं ने जिन्हें अपनी आँखों से जीवंत रूप से जगदम्बा की तरह कर्म करते देखा, सबके मन में उनके प्रति वही वाले भाव उत्पन्न हुए और पूरा ही जो यज्ञ है, उनको मम्मा के रूप में एक बार में ही स्वीकार करने लगा। इसका मात्र एक ही कारण नहीं है कि वो सबकी पालना के निमित्त थीं, इसका दूसरा कारण है कि वो सच में परमात्मा के नज़दीक थीं। जैसे परमात्मा माता-पिता हमारा है और हमारी पालना करता है, वैसे ही साकार रूप से उसको अभिनय में नहीं वास्तविकता में करके दिखाया। पूरा विश्व जिस दुर्गा की, पार्वती की आरती कर रहा है, ये वही जगदम्बा सरस्वती हैं जिन्होंने अष्ट नवदुर्गा को अपने आप में समेटा हुआ है।
यज्ञ के आदि पिता प्रजापिता ब्रह्मा बाबा ने मम्मा को सर्वोच्च सम्मान दिया और कहा कि ये आदि देवी, विश्व की पालनहारनी, नौ दुर्गा, अष्ट शक्तियों से सम्पन्न देवी ही हैं जिनको आज तक लोग पूजते आये। मम्मा को देखकर ये लगता है कि उनके अंदर ये वाली शक्ति कैसे आयी होगी! क्योंकि उन्होंने सबकुछ परमात्मा को माना, परमात्मा की श्रीमत को ही सबकुछ माना, वही उनके लिए पत्थर की लकीर थी। एक भी कर्म परमात्मा की श्रीमत के विरुद्ध नहीं किया। तो सबसे बड़ी जो मिसाल है कि जो कोई भी परमात्मा के सानिध्य में सम्पूर्ण समर्पणता, सम्पूर्ण विश्वास के साथ ये मानता है कि यही सत्य है और सिर्फ यही सत्य है, तो वो परमात्मा के गुणों को सहज ही अपना लेगा। क्योंकि तर्क करने का उसके पास मार्जिन नहीं है। जहाँ पर भी हमने मार्जिन छोड़ा, तो हमारे अंदर गुण और शक्ति भी वैसे ही आते हैं। इस प्रजापिता ब्रह्माकुमारीज़ यज्ञ के आदि रत्नों से जब हम उनकी कहानी सुनते हैं तो उसमें ज्य़ादातर ये सुनने में आता है कि मम्मा को देखकर हम सब भी अपनी कमियां भूल जाते थे। एक मिसाल के तौर पर किसी ने कहा कि मम्मा आप क्या अभ्यास करते हैं? तो उन्होंने बहुत सुंदर उत्तर दिया कि अच्छा बना नहीं जाता है इस दुनिया में, हम अच्छे ही हैं, ये सोचती हूँ मैं। बस इसी सोच से परमात्मा को याद करने का, उससे शक्ति लेने का, उसको शुक्रिया करने का एक अवसर मिलता है। क्योंकि आज जो हम बने, उसी वजह से तो हम बिगड़े। जैसे कोई कहता है कि मैं जज बना, डॉक्टर बना, इंजीनियर बना, तो जो चीज़ बनती है तो उसी की वजह से तो अहम् आता है और आदमी हर समय, हर पल बिगड़ता चला जाता है। बन ही नहीं सकता। इसीलिए हम जिस चीज़ से बने हैं, जो हमारे आदि-अनादि गुण हैं, वो हमेशा हैं। और उसी की वजह से हम पूरे विश्व को याद दिलाकर उन्हें भी अपने जैसा बना सकते हैं। अपनी बुद्धि और विवेक का सही इस्तेमाल यदि किसी ने किया तो वो मम्मा हैं। इसीलिए धरती की आदि देवी जिनको नवरात्रि में नव दुर्गा के रूप में पूजा जाता है, उन्हीं का मिसाल है। उन्होंने कहा कि मैं कुछ नहीं सही, बस परमात्मा के प्यार में रही। यही है सम्पूर्ण बनने का एक आधार। इन्होंने साकार शरीर के द्वारा चौबीस जून 1965 को अपने अलौकिक और अव्यक्त स्थिति को प्राप्त किया और आज हम सबके लिए इस दुनिया में उदाहरण स्वरूप बनीं। तो क्या हम ऐसे व्यक्तित्व को अपने जीवन में उतारकर उनको सच्ची श्रद्धांजलि नहीं दे सकते…!

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