मुख पृष्ठब्र. कु. गंगाधरमन को मारा नहीं सुधारा जाता है

मन को मारा नहीं सुधारा जाता है

योग के लिए हठयोगी अनेक प्रकार की साधनाओं द्वारा मन को दमन करने की व्यर्थ चेष्टा करते हैं। वे समझते हैं कि मन में किसी भी प्रकार की कोई इच्छा ही उत्पन्न नहीं होनी चाहिए। और वे कामनाओं और इच्छाओं को ही मन की अशांति का मूल कारण मानते हैं। परंतु जब तक मनुष्य जीवित है, मन के संकल्प तो कभी बंद नहीं हो सकते। संकल्पों में इच्छायें व कामनायें समाई ही रहती हैं। संकल्प दो प्रकार के होते हैं, शुद्ध और अशुद्ध। शुद्ध संकल्पों से शुद्ध कामनायें और अशुद्ध से अशुद्ध कामनायें उत्पन्न होती हैं। शुद्ध कामनाओं की पूर्ति से मनुष्य ‘देवता’ कहलाता है। और अशुद्ध कामनाओं के कारण मनुष्य ‘असुर अथवा नीच’ बन जाता है। यदि मानसिक शुद्ध इच्छाओं का दमन कर दिया जाए तो मनुष्य जीवन ही निरर्थक हो जाए। अत: अशुद्ध कामनाओं का विरोध और शुद्ध कामनाओं की वृद्धि करना ही मानव जीवन का पुरुषार्थ है। जिस मनुष्य के संकल्प तथा कामनायें शुद्ध हों वो सदैव परोपकारी होता है। वह स्वयं भी शांत-चित्त और सुखी रहता है और दूसरों को भी आप-समान बनाता है। इसीलिए शुभ इच्छाओं को सदैव प्रोत्साहन देना चाहिए।
बुरे संकल्पों को रोकना तथा शुभ इच्छाएं व संकल्प उत्पन्न करना ही मन को सुधारना है। परंतु शुभ तथा अशुभ कामनाओं के भेद को कैसे जाना जाए? इस निर्णय के लिए बुद्धि शुद्ध चाहिए। यदि बुद्धि तमोगुणी तथा विकारी हो तो मन में अवश्य ही अशुद्ध संकल्प उत्पन्न होंगे और उनकी पूर्ति में लगा हुआ मानव सदैव दु:खी व अशांत बना रहेगा। जैसे घोड़े को सिखाया अथवा सुधारा जाता है ताकि वह सदैव अपने स्वामी की इच्छानुसार सीधी राह पर ही चले और अपनी इच्छा से इधर-उधर न भागता रहे, वैसे ही मन को भी सुधारना चाहिए ताकि वह सदैव शुद्ध संकल्पों तथा शुद्ध कामनाओं में ही रमन करता रहे और कभी किसी बुरे विकल्प की ओर न चले।
मानसिक विकार तो अनेक प्रकार के होते हैं, परंतु मुख्य विकार काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार ये पाँच माने जाते हैं। जिसमें अधिक मात्रा में इसका वर्चस्व(प्राबल्य)है उनका मन सदा चंचल रहता है, भटकता रहता है। इस भटकते मन को रोका जा सकता है बुद्धियोग बल से।
मन की चंचलता, अस्थिरता और मन का भटकना, बात एक ही है। जब तक किसी राही को न मंजि़ल का पता हो, और न सीधे सच्चे मार्ग का ही पता हो जो उसे मंजि़ल पर पहुंचा दे, तब तक वो राही भटकता ही रहता है, कभी इधर-कभी उधर जाता है। और बहुत समय भटकते रहने से अशांत तथा व्याकुल हो जाता है। वैसे ही अज्ञानी और पथ-भ्रष्ट मनुष्य जिसे मुक्ति तथा जीवनमुक्ति रूपी अपनी मंजि़ल का पता नहीं, और न ही उसे उस मंजि़ल पर ले जाने वाले सच्चे ईश्वरीय मार्ग का ही पता है, वह मन-मत, गुरु या शास्त्र-मत आदि के अनेक रास्तों पर चलकर भटकता रहता है। जो कहीं पहुंचाते तो नहीं पर उसे बहकाते व रुलाते अवश्य हैं। विकारों की वासनाओं में उलझा हुआ प्राणी निश्चय ही जीवन के वास्तविक लक्ष्य को नहीं जानता। एक गीत भी है, क्रकहां है तेरी मंजि़ल, कहां है ठिकाना, मुसाफिर बता दे, है कहां तुझको जाना।ञ्ज सचमुच आज का प्राणी मुक्ति तथा जीवनमुक्ति की मंजि़ल को भूल विकारों की राह पर भटक रहा है। विकारों से तृप्ति तो कभी हो नहीं सकती। जैसे-जैसे तृष्णा बढ़ती जाती है, विकारों में फंसकर उसके मन की चंचलता अधिकाधिक होती जाती है। मन की चंचलता को दूर करने के लिए मन को ठिकाना चाहिए। इस ठिकाने को जानना ही ज्ञान है। और योग वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य उस ठिकाने पर पहुंच सकता है। यहां योग से अभिप्राय आध्यात्मिक योग से है। योग अथवा सच्ची लगन ही वह अग्नि है जो विकारों और विकर्मों को भस्म कर देती है। जो मनुष्य भगवान के हाथ में हाथ देकर अर्थात् उस पथ-प्रदर्शक का हाथ पकड़कर तीव्र पुरुषार्थ करता है वह सहज ही जीवनमुक्ति रूपी लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। फिर मन की चंचलता सदा के लिए नष्ट हो जाती है। अत: मन की शांति के लिए योगी जीवन बनाना चाहिए। याद रहे कि मन की चंचलता को दूर करना ही मन को अमन अथवा सुमन बनाना है। हठयोगी की तरह मन का दमन करना ये व्यर्थ है किंतु ज्ञान और योग से मन को सुमन बनाना, यही समर्थ है। मन को मारा नहीं लेकिन सुधारा जा सकता है।

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