इस दुनिया में जितने भी बड़े-बड़े संगठन हैं, हर संगठन की नींव ट्रस्ट है, विश्वास है। एक-दूसरे के ऊपर इतना अटूट और अटल विश्वास है जिसके आधार से संगठन में बल आता है। लेकिन ट्रस्ट बनाना और खुद में खुद से अपने आप में ट्रस्ट होना दोनों अलग-अलग बात है। ट्रस्टी जीवन जीने का मतलब जो भी अपने लिए व संगठन के लिए उपयोग में लायेगा, उसमें भी न मेरापन और न ही मैंपन का भाव समाहित होगा। सिर्फ और सिर्फ निमित्त भाव और निर्मान भाव को लिए हुए जियेगा।
ट्रस्ट और ट्रस्टी को समझना और ट्रस्टी बनकर जीना इसे समझना बहुत ज़रूरी है क्योंकि ट्रस्टी होकर न रहें तो कोई न कोई बंधन अवश्य बनता है। अब हम इसे समझते हैं- जैसे एक उदाहरण आप ले सकते हैं कि जब हमको कोई भी संगठन की जि़म्मेवारी दी जाती है या कहीं पर रहते हुए हमको ये रिस्पॉन्सिबिलिटी मिल जाती है, जि़म्मेवारी मिल जाती है कि हमको ये कार्य करना ही है, तो हम सब उसको करते हैं। लेकिन जो कार्य देने वाला है वो ये भी देखता है कि किसका किसमें कितना इंट्रस्ट है। कौन कितना लगन से, मेहनत से काम कर रहा है, कौन अपना समझ कर रहा है, कौन ट्रस्टी समझकर कर रहा है और कौन सिर्फ कर रहा है, बहुत सारी बातें उसमें देखते हैं। तो ऐसे ही परमात्मा के बच्चे हम सब भी ट्रस्टी ही हैं, लेकिन ट्रस्ट,ट्रस्टी लाने का जो आधार है वो बड़ा गूढ है, रहस्यमयी है। उदाहरण के लिए कि इस दुनिया में हम सभी मनुष्य किसी को भी आप देख लेंगे सब किसी न किसी विकार से ग्रस्त हैं। और जब कोई न कोई विकार हमारे ऊपर हावी होता है, कोई भी इच्छायें, कोई भी तृष्णायें, कोई भी चीज़ हमारे ऊपर हावी होती है तो हम उसके अनुसार कार्य करते हैं, उसके अनुसार कार्य को अंजाम देते हैं। लेकिन जब धीरे-धीरे हमको ये ज्ञान मिलता है, ये समझ मिलती है, ये अंडरस्टैंडिंग मिलती है तो हमको ये समझ में आता है कि ये चीज़ें कुछ दिन के लिए हमारे पास हैं, फिर ये चली जायेंगी। हम अपने अन्दर एक विश्वास पैदा करते हैं कि मेरा इन सारी चीज़ों में इंट्रस्ट नहीं है, सिर्फ मुझे इनके साथ रहना है और इनका प्रयोग करना है और भूल जाना है। लेकिन ये बोलना जितना सहज है, करना उतना ही कठिन लगता है। कारण सिर्फ एक है क्योंकि बिना प्रैक्टिस के, बिना अभ्यास के सम्भव भी नहीं है। तो जो लोग खुद से इन सारी चीज़ों से बाहर नहीं निकल पाते वो सभी बड़ी रिस्पॉन्सिबिलिटी भी नहीं ले पाते। अगर उनको जि़म्मेदारियों में डाला जायेगा, उन जि़म्मेवारियों को दिया जायेगा तो करेंगे तो सही, लेकिन उसमें उनका खुद का इंट्रस्ट नहीं होगा,इसलिए ट्रस्ट भी नहीं होगा। इसीलिए उस चीज़ का सुख नहीं ले पायेंगे। जैसे दुनिया में कहा जाता है कि कोई चीज़ दूसरे की होती है तो हम उसको खूब एन्जॉय करते हैं, अपना होता है तो हम उसका बहुत ध्यान रखते हैं। ध्यान रखने का मतलब उसको उस हिसाब से एन्जॉय नहीं करते जिस हिसाब से करना चाहिए। उसका ध्यान भी रखते हैं, उसके साथ भी रहते हैं और उसका ध्यान रखते हुए आगे बढ़ते हैं ताकि टूटे-फूटे ना। लेकिन औरों के स्थान पर तो हम इतनी परवाह नहीं करते, एन्जॉय करते हैं और आ जाते हैं। ऐसे ही इस दुनिया में भी है, हमारे जो परमात्मा के कार्य में अपने आप को निमित्त रूप से मानकर चलते हैं। वो जब तक इस भाव से बाहर नहीं निकलेंगे ना तब तक वो सारी चीज़ें उनके अन्दर आयेंगी नहीं। हम सब भी इसी पगडण्डी को अगर पकड़कर चलें कि मेरा सिर्फ और सिर्फ इस दुनिया में रहने का उद्देश्य क्या है- कार्य करना है, उस चीज़ का प्रयोग करना है और उसके बाद उसको छोड़ देना है। इससे जो सहज भाव हमारे अन्दर उत्पन्न होगा वो सहज भाव से एक वातावरण बनेगा और उस वातावरण में जो कोई भी आयेगा उसको बहुत अच्छा फील होगा। तो हम अपने साथ जब तक ट्रस्ट डेवलप नहीं कर सकते तब तक हम ट्रस्टीशिप को भी नहीं समझ पायेंगे। क्योंकि ट्रस्ट एक बहुत बड़ी पॉवर है, एक बहुत बड़ी शक्ति है, और उसको अपने अन्दर ढालने के लिए, अपने अन्दर ले आने के लिए मुझे बहुत मेहनत करने की ज़रूरत है। तब जाके कार्य हमारा सम्पन्न होता है। इसीलिए सबसे पहले खुद पर इतना ट्रस्ट, इतना विश्वास कि मैं सिर्फ यूज़ कर रहा हूँ। इसको सिर्फ यूज़ करता हूँ और छोड़ देता हूँ और फिर आराम से सो जाता हँू। खा लेता हूँ, पी लेता हूँ जो भी हम कार्य करते हैं वो सहज रीति से करते जायेंगे। तो एक ट्रस्ट खुद का खुद में डेवलप होगा और फिर मुझे कोई रिस्पॉन्सिबिलिटी दी जायेगी तो उसमें मैं और मेरा, लोभ, मोह, अहंकार नहीं जायेगा। तो इसको करें और देखकर एक प्रयोग करें कुछ दिन करने के बाद धीरे-धीरे अपने आप एक पक्कापन आ जायेगा।