सहज योग कठिन कैसे बन गया…!!!

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योग है तो एक सहज योग ही, पर चलते-चलते मन के आकर्षण व बुद्धि के भटकाव ने उसे कठिन बना दिया। योग एक आनंद की अनुभूति का नाम है। किंतु हमारे लक्ष्य रूपी लगाम के विरुद्ध हमारी शक्तियों की लीकेज होने से ही योग असहज हो गया। अन्यथा योग तो अपने आप में ही सहज है। आइए जानते हैं उसको सहज बनाने के तरीके…

सहज योग बहुतों के लिए कठिन हो गया है। क्यों योग नहीं लगता? क्योंकि व्यर्थ संकल्प बहुत आते हैं। कहाँ से आ गये वो? अपने आप आ गये या हमने ही बनाये हैं? हम क्रियेट करते हैं, ये बात सभी को समझ लेनी चाहिए। दूसरी बात, क्यों सहज योग कठिन हो गया है? क्योंकि योग के लिए मन में श्रेष्ठ विचार और बुद्धि स्वच्छ होनी चाहिए। ये बहुतों की नहीं है। सोचना है सभी को। स्वयं ज्ञान के सागर आकर हमें रोज़ पढ़ा रहे हैं। पढ़ा रहे हैं या नहीं! मुरलियों में सुंदर विचार ही तो हैं। मुरलियों में वो विचार हैं जिनका संसार को अंदाज़ा भी नहीं है।
रोज़ बाबा कहते हैं, तुम निर्विकारी देवता थे। संसार में कोई शास्त्रवादी, वेदविद कोई नहीं जानता कि हम सतयुग में निर्विकारी देवता थे। ये श्रेष्ठ विचार है या नहीं! अगर इस विचार को दिन में थोड़ा-थोड़ा भी याद करेंगे तो अनेक व्यर्थ समाप्त हो जायेंगे। बुद्धि तीसरा नेत्र है। बुद्धि है विवेक शक्ति। जिसमें ज्ञान भर रहा है। अब ज्ञान की जगह किसी ने गंदगी भर ली हो, विवेक की जगह नफरत भर ली हो, ईष्र्या-द्वेष भर ली हो, चिंतायें और परेशानियां भर ली हों तो बुद्धि स्थिर होगी नहीं। ये नेत्र है हमारा। इसमें हम सबकुछ धारण भी कर रहे हैं। इसलिए बुद्धि की एक और डेफिनेशन, बुद्धि हमारी धारणा शक्ति भी है। जो कुछ भी धारण हो रहा है, पवित्रता, शक्तियां, सद्गुण, ज्ञान, वरदान, वो सब किसमें हो रहा है? बुद्धि में हो रहा है। तो हमने अपनी बुद्धि को सोने का बर्तन बनाया है या डस्टबिन? विचार कर लेना। डस्टबिन बना लिया होगा तो क्या फैलेगी? बदबू फैलेगी। और जहाँ बदबू फैलती हो वहां भगवान का वास होगा! लोगों ने तो ऐसे ही कह दिया, सब जगह है, कूड़ेदान में भी है भगवान। बैठेगा वहाँ! तो हमें पहला काम करना है, अगर योगी बनना है तो अपनी बुद्धि की सफाई करें। समझ लें, योग के बिना, अगर योग शक्तिशाली नहीं होगा, अगर योग चार घंटे तक नहीं होगा, बाबा तो मुरलियों में कहते कि बच्चे, कम से कम आठ घंटे मुझे याद करो, और सुनते ही हम क्या कह देते हैं कि ये अपने बस का नहीं है। हमें पता भी नहीं चलता कि हमने क्या सोच लिया! कह देते हैं या नहीं! इसलिए मैं चार घंटे की बात करता हूँ। चार घंटे भी बैठकर नहीं, आप भले एक घंटा भी न बैठो, आप बिल्कुल न बैठो, तो भी योगी बन सकते हैं।
योग की सिम्पल डेफिनेशन, स्मृति स्वरूप होना ही योग है। इसके लिए बैठने की ज़रूरत नहीं। मैं देवकुल की निर्विकारी आत्मा हूँ, ये सोचने के लिए बैठना पड़ेगा क्या! बिल्कुल नहीं। ये स्मृति आई माना हम योगयुक्त हो गये। मैं भगवान की संतान बहुत महान और भाग्यवान हूँ, ये स्मृति आई माना हम योगयुक्त हो गये। सहज कर दो इसको। योगबल बहुत ज़रूरी है आने वाले समय का सामना करने के लिए। जिनके पास योगबल नहीं होगा, वो परिस्थितियों में रोते ही रह जायेंगे। वो जिंदे और मुर्दे समान हो जायेंगे। दुनिया का हाल तो बहुत बुरा होगा ही, क्यों होगा, क्योंकि सभी को घर जाने से पहले अपने कर्मों का हिसाब-किताब चुक्तू करना ही होगा। कोई नहीं बच सकता। किसी को गाली भी दे दी है, उसका रिटर्न ज़रूर होगा। किसी का एक रुपया रख लिया तो सो देने पड़ेंगे ब्याज सहित। किसी को दु:ख दिया तो कई गुणा होकर वापस आ जायेगा। किसी का दिल दुखाया, बहुत कष्ट होगा। इससे कोई नहीं बच सकता। घबराने की बात नहीं, क्या करना है हमें, योगबल बढ़ाना है। विनाश की बाबा परिभाषा देेते हैं, ये दुनिया खाली हो जायेगी, इस भंभोर को आग लगनी है। लगते हुए देख सकेंगे? ऐसी भयानक आग लगेगी जो बुझेगी नहीं। तो हमें योगबल की बहुत ज़रूरत है। योगबल जिसके पास होगा, कई धारणायें उनके पास हो जायेंगी।
संतुष्ट आत्मा बनना है। इच्छाओं के पीछे दौडऩा, इच्छाओं की गुलामी छोडऩी है। क्योंकि जब तक हम कर्मेंन्द्रियजीत नहीं बने तब तक सफल योगी नहीं बन सकते। कर्मेंन्द्रियजीत, कानों से व्यर्थ सुनने पर विजय। और एक विजय बहुत ज़रूरी है जिसको लोगों ने बड़ा कठिन कहा है, स्वाद इंद्री पर विजय। जीभ पर विजय। मुख पर विजय। मुख माना बोलना। बोलने का अर्थ ये नहीं कि हम बोलें नहीं, लेकिन क्या बोलें। सब जानते हैं क्या बोलें। जैसे बोल हम दूसरों से सुनना चाहते हैं, वैसे ही बोल बोलना सीखें। सुखदायी बोल, जो दूसरों के दिल को ठंडा कर दें। तो योग के लिए कर्मेन्द्रियों पर विजय।
योग के लिए बहुत आवश्यक है आत्मिक प्रेम और शुभ भावनायें। मोह नहीं, मोह तो मनुष्य को उलझा देता है। आत्मिक प्रेम और सद्भावनायें। आत्मिक प्रेम कब बढ़ेगा? जब आत्मिक दृष्टि की प्रैक्टिस करेंगे। इसलिए सभी भाई-बहनें अपने-अपने घरों से ही शुरु करें। अपने बच्चों को तीन बार, पाँच बार, परिवार के सभी सदस्यों को आत्मा देखें भृकुटी में। छोटी-सी प्रैक्टिस है और बहुत काम की प्रैक्टिस है। सभी को जानना चाहिए। आत्मिक प्रैक्टिस से अनेक चीज़ें ठीक हो जाती हैं। आप तीन दिन कर के देख लें कि मुझे आज जो भी सामने आयेगा उसे आत्मा ही देखना है। शाम तक आपके व्यर्थ संकल्प समाप्त हो जायेंगे। दैहिक दृष्टि, ये नहीं कि हम बुरी दृष्टि से किसी को देख रहे हैं, लेकिन दिखाई तो देह ही देता है ना! ये दैहिक दृष्टि हमारे व्यर्थ संकल्पों को बढ़ा देती है और आत्मिक दृष्टि घटाती चलेगी। इसकी प्रैक्टिस करेंगे तो आत्मिक प्रेम बढ़ेगा और साथ में एक परिवर्तन सबको करना है, किसी के लिए भी नफरत नहीं। चेक कर लें अपने को। कोई ये नहीं कह सकता कि मुझे किसी के लिए नहीं है। नफरत से मुक्त आत्मा का चित्त शीतल और निर्मल हो जाता है। क्या करेंगे इस नफरत को खत्म करने के लिए? कुछ तो करना पड़ेगा तभी तो जायेगी न! आपे ही जायेगी, धीरे-धीरे चली जायेगी, आत्मिक प्रेम बढ़ जायेगा । अवगुण देखने से नफरत पैदा होती है। अब समस्या ये है कि अवगुण तो दिखाई देते हैं। अब कोई गुस्सा ही कर रहा हो और हम कहें कि दिखता ही नहीं है, ये होगा! वो तो दूर-दूर दिखाई देगा। बाबा ने कहा कि बच्चों की आवाज़ तो सूक्ष्म वतन तक आ जाती है, बाप तक। तो दिखाई देता है, परंतु हम क्या संकल्प करेंगे? ये इस आत्मा का अपना संस्कार नहीं है। ये तो रावण का संस्कार है। ये आत्मा तो निर्मल, पवित्र, प्रेम से भरपूर है। दृष्टि को बदलेंगे ज़रा। तो सबसे प्यार अगर पैदा करना है, खास ईश्वरीय परिवार में, तो संकल्प करेंगे कि ये सब महान आत्मायें हैं। ये सब ईष्ट देव-देवियां हैं। ये वो सब हैं जो भगवान से बहुत प्यार करते हैं और जिन्हें शिव बाबा बहुत प्यार करते हैं। तो प्यार बढ़ जायेगा। टाइम लग सकता है क्योंकि ये चीज़ें एक-दो दिन में नहीं आती हैं, पर अगर हम इसे दृढ़ता से करेंगे, तो धीरे-धीरे नफरत समाप्त होगी, चित्त शांत होगा, योग बहुत अच्छा लगने लगेगा।

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