परमात्म महावाक्य सम्मुख सुनने की तड़प…!!!

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”बाबा परमधाम से आये होंगे, मुरली चलायी होगी और वो मुरली मैं मिस कर रहा हूँ। यह मैं कल्प-कल्प मिस करुँगा।” जब ऐसे मैं सोचता था तो मुझे बहुत फिल होता था, क्या मुझे हर कल्प उस मुरली को मिस करना हैं? बाबा को सम्मुख मिलने व उनको सुनने का संकल्प इतना तीव्र कि मैं उसको रोक नहीं पा रहा था। मेरे पांव उधर की तरफ आगे बढऩे को आतुर थे।

हम बाबा के पास पुस्तक लिखकर ले जाते थे पास कराने के लिए। उसको देखने के बाद बाबा हमेशा यही कहते थे कि लास्ट में यह लिखो-”अभी नहीं तो कभी नहीं। ”अत: राजयोग से ही हम स्वराज्य अधिकारी बन सकते हैं, वारिस बन सकते हैं और विश्व को पवित्रता, सुख, शान्ति, समृद्धि से सम्पन्न स्वर्ग बना सकते हैं। मैंने अपने जीवनभर यह स्लोगन – ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’- याद रखा और उसके अनुसार चलने की पूरी कोशिश की। मुझे अपने अलौकिक जीवन की शुरूआत में कई कठिनाइयाँ आयीं। क्वालिफाइड होने के बाद मेरी ट्रान्सफर हो गयी सोनीपत में, जो दिल्ली से 25 मील दूर है। वहाँ पर मेरी जि़म्मेवारियां बहुत थीं। वहाँ पर मैं हॉस्टल का अधीक्षक भी था और टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज का प्रिन्सीपल भी। इनके अलावा कुछ और भी जि़म्मेवारियां थीं। मुझे वह जगह छोड़कर रोज़ कहीं जाने की अनुमति नहीं थी। लेकिन रोज़ बाबा की क्लास में मुझे जाना ही था। इसके लिए मुझे बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। बहनों को चि_ी लिखता था कि मैं कल नहीं आऊँगा, फलाने दिन नहीं आऊँगा, क्योंकि आज मेरे पास शिक्षा मंत्री आने वाले हैं,आज मेरे पास शिक्षा निर्देशक आने वाले हैं। मैंने एक एज्युकेशन म्यूजि़यम बनाया था। उस समय वह भारत में उस तरह का प्रथम म्यूजि़यम था। इसलिए कई प्रान्तों से उसको देखने कई एज्युकेशन मिनिस्टर्स, एज्युकेशन डायरेक्टर्स आते थे। उनको देखना, खिलाना, पिलाना, घुमाना यह सब मुझे ही करना पड़ता था। ऐसे समय पर मैं मुख्यालय में नहीं होता तो अच्छा भी नहीं, सभ्यता भी नहीं। मैं बहनों को पत्र तो लिखता था लेकिन एक बात तो मुझे ज़रूर याद आती थी कि ”बाबा परमधाम से आये होंगे, मुरली चलायी होगी और वो मुरली मैं मिस कर रहा हूँ। यह मैं कल्प-कल्प मिस करुँगा।” जब ऐसे मैं सोचता था तो मुझे बहुत फील होता था, क्या मुझे हर कल्प उस मुरली को मिस करना हैं? बाबा की जीवन-कहानी सुनी थी, उसमें आता है कि जब बाबा का पूजा का समय होता था और उस समय कोई भी, कितना भी बड़ा मेहमान आने वाला होता था, चाहे नेपाल का महाराजा भी हो फिर भी स्टेशन पर स्वागत करने के लिए बाबा और किसी को भेजते थे। कहते थे कि पहले मैं अपनी पूजा आदि करूँगा बाद में उनसे मिलूंगा क्योंकि मेरा यह समय परमात्मा के लिए रखा हुआ है। राजा हो या अधिकारी, वह तो मुझे नोट देता है, भगवान मुझे सब कुछ देता है। इस प्रकार, बाबा अपने धार्मिक कार्यक्रम को पहला महत्त्व देते थे। ट्रेन से ही मैं सोनीपत से दिल्ली जाता था। स्टेशन के सामने ही हमारा ऑफिस था। जब गाड़ी आती थी तो उसकी आवाज़ से मुझे पता पड़ता था कि गाड़ी आ गयी क्योंकि उस समय कोयले से गाडिय़ां चलती थीं। ऐसे ही एक बार मेरी गाड़ी मिस हो गयी। उस दिन मैं इतना व्यस्त था कि गाड़ी कब आयी मुझे पता ही नहीं पड़ा। जब चलने की सीटी बजी तो मुझे पता पड़ा कि गाड़ी जा रही है। जल्दी-जल्दी ऑफिस बन्द करके मैं स्टेशन पर पहुँचा लेकिन गाड़ी काफी दूर निकल गयी थी। गाड़ी स्पीड में थी, मैं उसको पकड़ नहीं पाया। उस समय मेरे ऊपर क्या गुजरी होगी! मेरे मन में वही चलने लगा कि शिव बाबा परमधाम से आये होंगे, मुरली चला रहे होंगे, उसको आज मिस किया माना कल्प-कल्प मुझे मिस करना होगा। मैं तो सिर्फ 25 मील दूर रहता हूँ, बाबा परमधाम से आते हैं! परमधाम कितना दूर हैं! बाबा इतनी दूर से मेरे लिए, मुझे पढ़ाने के लिए, मेरे ही कल्याण के लिए आते हैं। इतनी बड़ी अथॉरिटी मुझे शिक्षा देने के लिए इतनी दूर से आते हैं! वो करूणा के सागर, दया के सागर, कृपा के सागर अभी वहाँ आये होंगे। वह इतने बड़े शिक्षक और सद्गुरु मेरे लिए आये हुए हैं। उनके सामने मैं कुछ भी नहीं, फिर भी मैं नहीं जा पा रहा हूँ! वो आये होंगे मुरली सुना रहे होंगे! अरे, मैं इतना दुर्र्भाग्यशाली हूँ कि मैं मुरली सुनने जा नहीं सकता! वहाँ एक मालगाड़ी खड़ी थी, वो जाने की तैयारी में थी। वहाँ स्टेशन मास्टर खड़ा था। मैंने उससे कहा, मुझे दिल्ली जाना है, बस का समय भी खत्म हो गया, मुझे इस मालगाड़ी में भेज दो। वो स्टेशन मास्टर मुझे पहचानता था। उस समय सोनीपत उतना बड़ा शहर नहीं था। प्रिन्सीपल का पद तो बड़ा होता है। वहाँ सब ऑफिसर्स कोई-न-कोई कार्यक्रम में, मीटिंग में एक-दूसरे से मिलते रहते थे। वह मुझ से मज़ाक करने लगा कि आप कोई माल थोड़े ही हो मालगाड़ी में भेजने के लिए? आप तो इन्सान हो। मैंने कहा, आप मज़ाक छोड़ दो, मुझे अर्जेन्ट दिल्ली जाना है। वहाँ सब मुझे कहते थे- यह ‘मिस्टर अर्जेट’ है, ‘मिस्टर इम्पोर्टेन्ट’ है। उस समय भी मैं यही कहा करता था कि यह बहुत अर्जेन्ट काम है। इसीलिए उसने समझा यह हरेक काम बहुत ही अर्जेन्ट बताता है, इसकी नेचर है। मैंने फिर कहा, हाँ, मैं सच बोल रहा हूँ, मुझे अर्जेन्ट जाना है, मुझे इम्पोर्टेन्ट काम है, कैसे भी मुझे इस मालगाड़ी में भेज दो। वह कहता है, ”अजी, आपको मेरी यह वर्दी उतारनी हो, मुझे नौकरी से निकालना हो तो आप इसमें चले जाओ। आप तो मेरे दोस्त हो, मैं तो भेज भी दूँगा, लेकिन मेरी नौकरी खत्म।” मैंने कहा, ”ऐसी बात नहीं है। ऐसा कोई कानून भी होगा कि किसी एमर्जेंसी में प्रेसिडेन्ट आदि किसी बड़े को अर्जेन्ट जाना होता है तो। क्योंकि हर बात में एक एक्सेप्शन(अपवाद) होता है। ऐसा कोई नियम है तो देख लो।” वह मेरे से पूछने लगा, कौन-सा प्रेसिडेन्ट बीमार पड़ा है? कौन-सी लड़ाई चल रही है जिसमें आपको जाना है? कौन-सा आपातकाल आ पड़ा है जो आपको वहाँ जाना है? वह मज़ाक करता रहा। फिर मैंने गंभीर होकर कहा कि यह मज़ाक छोड़ो, यह गाड़ी भी निकल जायेगी, आप मेरी टिकट बनवा लो। फिर वह भी परिस्थिति को समझा और टिकट वाले को कहा कि इसकी एक एमर्जेन्सी टिकट बना दो, मेरे से हस्ताक्षर करा लो। टिकट बन रही थी, उतने में मालगाड़ी चल पड़ी। मैं गाड़ी के पीछे भागा। सबसे पीछे गार्ड का डिब्बा होता है। मैं उसमें चढ़ गया। गार्ड मुझे कहता है, ”भाई साहब, यह क्या कर रहे हो? गाड़ी क्यों चढ़े? यह पैसेन्जर गाड़ी है क्या? यह गार्ड का डिब्बा है, उतरिये।” मैं भी गाड़ी की जि़म्मेवारी को समझता था। वहाँ पैसेन्जर को प्रवेश की अनुमति नहीं होती। मैं उसकी बात सुनकर उतर गया। फिर मैंने कहा, भई, मैं तो टिकट बना रहा था, आप उतने में चल पड़े। आप दो मिनट रुको, मैं टिकट बना के ले आता हूँ। उसने पूछा, टिकट कौन बना रहा था? मैंने कहा, स्टेशन मास्टर। गार्ड कहता है, पागल है। वो खुद डिसमिस होगा और मुझे भी डिसमिस करायेगा। आप टिकट की बात छोडिय़े। ऐसा नहीं होता, आप इस गाड़ी में आने की आशा छोड़ दीजिये। वह नहीं माना तो फिर मैं उतर गया। उतने में फिर मन में आया- शिव बाबा परमधाम से आया होगा…मुरली चला रहा होगा… हर कल्प मुझे इस मुरली को मिस करना पड़ेगा…। फिर मैं भाग कर गार्ड के डिब्बे में चढ़ पड़ा। वह कहने लगा, अरे भाई, तुमको क्या हुआ है, मेरी बात मानता क्यों नहीं है? गाड़ी तेज होती जा रही है, जब मैंने तुमको समझाया था तब उतर गया था, फिर क्या हो गया, गाड़ी में फिर से चढ़ा? उतर जाओ भाई, मैं तुमको लेकर नहीं जा सकता।” मैंने कहा,”भाई बहुत ज़रुरी काम है।ञ्जञ्ज उसने कहा ”मैं समझता हूँ तुम्हारा बहुत ज़रूरी काम है, उतरो।” वह इतना कह रहा था तो मैं उतर गया। फिर मुझे वही ख्याल आया – शिव बाबा आया होगा…। मैंने बाबा से कहा, बाबा, मुझे क्लास में आना है, यह गाड़ी चढऩे नहीं दे रहा है, आप मुझे मदद करो। फिर मैं गाड़ी चढ़ गया। वह कहने लगा, क्रक्रअरे, तुम कैसे आदमी हो! उतरते हो, फिर चढ़ते हो। क्या मैं पुलिस को बुलाऊँ?” मैंने भी बहुत पेथेटिक वे(दयनीय रूप) में कहा, ”भाई, मेरी बात आप समझते क्यों नहीं हैं? मैं आपकी बात समझता हूँ इसलिए उतरता हूँ, लेकिन मेरी बात मुझे याद आती है तो फिर चढ़ जाता हूँ। आप मेरे से क्यों नहीं पूछते हैं कि तुम्हें क्या अर्जेन्ट है?” गार्ड कहने लगा, ”तुम्हारी बात सुनने का टाइम नहीं, अभी तुम उतरोगे या नहीं?” फिर मैंने कहा, क्रक्रमेरी बात तो सुनो, समझने की कोशिश करो।” फिर वह मेरी बात सुनने के लिए तैयार हो गया और कहा जल्दी एक मिनट में सुनाओ, क्या तुम्हारा ज़रूरी काम है।” मैंने कहा, ”मुझे सत्संग में जाना है।” उसने कहा, ”क्या सत्संग में जाना है? सत्संग में जाना कोई ज़रूरी काम है?” दुनिया की निगाह में सत्संग में जाना कोई ज़रूरी काम तो होता नहीं। उसको मैं यह तो नहीं बता सकता कि शिव बाबा परमधाम से आ रहा है…। वह हैरान होकर सोचने लगा और आखिर उसने कहा, ठीक है, बैठ जाओ। फिर रास्ते में पूछने लगा, कौन-से सत्संग में जा रहे हो जो इतना ज़रूरी है? वह बुजुर्ग था, सेवानिवृत्त होने वाला ही था। मैं तो मोटा-तगड़ा जवान था। उसने कहा, ”मैं समझा था कि दिल्ली में कोई नयी फिल्म आयी होगी, उसको देखने जा रहे होंगे। इतनी छोटी उम्र में वो कौन-सा सत्संग तुम्हें आकर्षित कर रहा है?” मैंने उसको रास्ते में संस्था का सारा परिचय दिया, बाबा का परिचय दिया। बाद में वह ज्ञान में भी आया, बाबा का बच्चा बनकर रोज़ क्लास में आने लगा। मैंने यह मिसाल इसीलिए सुनाया कि अगर हमारे मन में यह धुन सवार रहती है कि मुझे रोज़ अमृतवेले उठना ही है, प्रतिदिन मुरली सुननी ही है, बाबा की श्रीमत फॉलो करनी ही है, उनकी सेवा करनी है- तब बाबा की मदद मिल ही जाती है और बाबा के सपूत बच्चे, वारिस बच्चे सहज रीति से बन जाते हैं। बाबा तो सबकुछ देता है, देने के लिए बँधा हुआ है, वह खुद कहता है, मुझे यूज़ करो लेकिन लेने वाले चाहिए, हिम्मतवान चाहिए, दृढ़ निश्चय वाले चाहिए।

मैं स्टेशन पर पहुँचा लेकिन गाड़ी काफी दूर निकल गयी थी। गाड़ी स्पीड में थी, मैं उसको पकड़ नहीं पाया। उस समय मेरे ऊपर क्या गुजरी होगी! मेरे मन में वही चलने लगा कि शिव बाबा परमधाम से आये होंगे, मुरली चला रहे होंगे, उसको आज मिस किया माना कल्प-कल्प मुझे मिस करना होगा। मैं तो सिर्फ 25 मील दूर रहता हूँ, बाबा परमधाम से आते हैं! परमधाम कितना दूर हैं! बाबा इतनी दूर से मेरे लिए, मुझे पढ़ाने के लिए, मेरे ही कल्याण के लिए आते हैं।

जब मैंने तुमको समझाया था तब उतर गया था, फिर क्या हो गया, गाड़ी में फिर से चढ़ा? उतर जाओ भाई, मैं तुमको लेकर नहीं जा सकता। मैंने कहा,”भाई बहुत ज़रुरी काम है।” उसने कहा ”मैं समझता हूँ तुम्हारा बहुत ज़रूरी काम है, उतरो।” वह इतना कह रहा था तो मैं उतर गया। फिर मुझे वही ख्याल आया – शिव बाबा आया होगा…। मैंने बाबा से कहा, बाबा, मुझे क्लास में आना है, यह गाड़ी चढऩे नहीं दे रहा है, आप मुझे मदद करो। फिर मैं गाड़ी चढ़ गया।

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