आमतौर पर यह देखने में आता है कि जब कभी कोई विशिष्ट व्यक्ति ब्रह्माकुमारी बहनों से मिलते हैं, तब वे अपना अनुभव व्यक्त करते हुए कहते हैं कि इन बहनों के चेहरों से आन्तरिक सन्तोष, शान्ति तथा पवित्रता की रेखायें झलकती हैं। परन्तु शायद ही ये व्यस्त लोग कभी उन कारणों पर विचार करते होंगे जिनके फलस्वरूप आन्तरिक सामंजस्य, शान्ति तथा सन्तुष्टता से युक्त अवस्था बनती है। जबकि वे इन प्राप्तियों को अमूल्य समझते भी हैं तो भी वे इन्हें प्राप्त करने के लिए गंभीरता से प्रयास नहीं करते। अन्तर्निरीक्षण तथा शान्त मन से इस विषय पर विचार करने से यही निष्कर्ष निकलेगा कि उच्च कोटि व अधिक मात्रा में भौतिक पदार्थों की प्राप्ति से सन्तुष्टता नहीं मिलती। अज्ञानता की घोर रात्रि की समाप्ति के बाद ही सन्तुष्टता का उदय होता है। वर्तमान भौतिक जगत से होने वाली प्राप्तियां क्षणिक और विनाशी हैं यह अनुभूति ही सन्तुष्टता को जन्म देती है। जिसके मन से भौतिक जगत की प्राप्तियों की इच्छायें समाप्त हो जाती हैं, केवल वह व्यक्ति ही सन्तुष्ट हो सकता है। अत: सन्तुष्टता आध्यात्मिक ज्ञान की उच्चतम स्थिति का संकेतक है। जहाँ त्याग और सेवा भाव हो, और सम्पन्नता की अनुभूति हो, वहाँ ही सन्तुष्टता पनपती है। इसी प्रकार जब आन्तरिक द्वन्द्व समाप्त हो जाता है तथा मन और बुद्धि का सामंजस्य हो जाता है, तभी मानव को मानसिक शान्ति की अनुभूति होती है। जब चिन्ताओं, सांसारिक प्राप्तियों व अधिकारों की इच्छा से मानव उपराम हो जाता है, तब ही ‘शान्ति’ का जन्म होता है। पवित्रता ही शान्ति की जननी है। जब मानव वास्तविक तथा सतत् शान्ति की स्थिति में रहता है, तब उसके चेहरे तथा मस्तक पर पवित्रता की चमक होती है। सन्तुष्टता, पवित्रता तथा शान्ति- ये त्रिगुण ही जीवन को जीने-योग्य बनाते हैं। इनका जीवन में तभी पदार्पण होता है जब कोई व्यक्ति आध्यात्मिक ज्ञान तथा राजयोग का निरन्तर अभ्यास करता रहता है। योग तपस्या के बिना मानव आन्तरिक शान्ति का न अनुभव कर सकता है और न ही उसे कायम रख सकता है। परन्तु समस्या यह है कि लोग आमतौर पर यह समझते हैं कि आध्यात्मिक ज्ञान रूचिकर नहीं है, कठिन है और केवल श्रद्धा (कई जगह ‘अन्धश्रद्धा’) का विषय है और मंत्र उच्चारण तथा कर्मकाण्ड पर आधारित है। परन्तु वास्तविकता यह नहीं है। आध्यात्मिक ज्ञान उतना ही रूचिकर है जितना कि अन्य कोई विषय। योग भी न कोई कर्मकाण्ड है और न ही इसमें कोई संस्कृत के मंत्र रटने की आवश्यकता है। मनन करना, याद करना और अनुभव करना- यही सहज योग है। यह इतना ही सहज है। हाँ, प्रारम्भ में इसके लिए कुछ प्रशिक्षण लेने की आवश्यकता है। कुछ समय इसमें लगाना उसी प्रकार है, जैसे कोई मनुष्य अधिकाधिक कमाने व प्राप्त करने के लिए अपना धन व्यय करता है। इसके अभ्यास में कुछ समय लगाने से मनुष्य सन्तुष्टता और शान्ति रूपी जीवन के अनमोल उपहारों की प्राप्ति कर सकता है। आज हर प्राणी और हर समाज शान्ति या सामंजस्य की अनुभूति व प्राप्ति के लिए कितने समय, धन और शक्ति का व्यय करते हैं परन्तु ये सब प्रयास वे यह जाने बिना ही किये जा रहे हैं कि आध्यात्मिक ज्ञान पर आधारित योग और पवित्रता से ही शान्ति और सन्तुष्टता की प्राप्ति हो सकती है।