जीवन में सबसे कड़वी चीज़ क्या!!!

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किसी ने रिसर्च किया कि दुनिया में कड़वी से कड़वी चीज़ क्या है? काफी समय इस खोज में लगाया। फिर भी उसकी रिसर्च पूरी नहीं हुई। आखिर वह घर आया और दरवाज़ा खटखटाया। उसकी पत्नी ने दरवाज़ा खोला और उसको खूब डाँटा कि इतने दिनों तक घर नहीं आया, घर का क्या हाल है, यह नहीं सोचा, घर पर बच्चे और औरत की क्या स्थिति है, तुमने इतने दिनों तक सोचा नहीं। उसने पति को खूब डाँटा। बेचारा पति हैरान हो गया। उसने सोचा था कि रिसर्च करके दुनिया को एक नयी पुस्तक दूँ। जब उसकी पत्नी उसके ऊपर बरसी तो उसको अनुभव हुआ कि संसार में सबसे कड़वी चीज़ यह है। उसने पत्नी से कहा, धन्यवाद, आपसे ही मेरी थेसिस पूरी हुई। थेसिस के अन्त में उसने यही लिखा कि संसार में सबसे कड़वी चीज़ मनुष्य की कटु वाणी है, उससे कड़वी चीज़ और कोई नहीं। अन्य लोगों ने भी बताया कि सबसे तेज़, तलवार से भी तेज़ घाव वाणी का है। तलवार का घाव भर सकता है लेकिन वाणी का घाव नहीं भर सकता। वर्षों तक वाणी का घाव भरता नहीं है। इसलिए कटुवचन, कटु वाणी बहुत तेज़ होती है। एक गरीब आदमी गुड़ के व्यापारी के पास गया। उसने कहा, श्रीमान जी, मेरे पास रोटी है, उसको किसके साथ खाऊँ! मुझे गुड़ दीजिए। उस ज़माने में आज के जैसी दुकानें नहीं होती थीं शीशे वाली, अलमारी वाली। गुड़ को, चीनी को बोरी में रखते थे। उन बोरियों पर मक्खी आदि बैठती थी तो उनको भगाने के लिए लोहे की छड़ी रखा करते थे। उस व्यापारी ने वो छड़ी दिखा कर उस व्यक्ति को कहा, यहाँ से भागता है या नहीं, एक मारूँ? तब उस गरीब व्यक्ति ने बोला, महाराज, गुड़ नहीं देते तो मत दो लेकिन गुड़ जैसा मीठा तो बोलो। मीठा बोलने के लिए खर्चा थोड़े ही लगता है? बोलने का वरदान हम इन्सानों को मिला है, हमें मीठे बोल, अच्छे बोल बोलने चाहिए। लेकिन लोग कटु बोल बोलकर दूसरों को भी दु:खी बनाते हैं और खुद को भी दु:खी बनाते हैं। फिर कहते हैं कि इस संसार में दु:ख ही दु:ख है। अगर यह संसार दु:खमय बना है या नरक बना है तो हमारे कारण से ही बना है, हमने ही इसको ऐसा बनाया है। इसलिए हमें ही इसको ठीक बनाना है। बाबा ने बताया है कि बच्चे, सिर्फ अपनी ही मुक्ति-जीवनमुक्ति के बारे में सोचना भी स्वार्थ हो गया। जैसे संसार में अनेक प्रकार के लौकिक स्वार्थ हैं ऐसे यह भी आध्यात्मिक स्वार्थ हो गया। इसलिए आपका उद्देश्य यह होना चाहिए कि मैं भी मुक्त-जीवनमुक्त होऊँ और भी सब मुक्त-जीवनमुक्त होवें। यह संसार ही दु:खमय न रहे। यह सारा संसार ही सुखमय बन जाये, शान्तिमय बन जाये। ऐसी सेवा करो। केवल अपने लिए ही सुखी संसार मत बनाओ। अपने लिए पैसा कमाया, कार-मोटर रखी, एक-एक नहीं, तीन-तीन। जहाँ भी आप जायेंगे लोग फूल माला पहनाते रहेंगे, जयजयकार करते रहेंगे। इससे खुश मत हो जाओ। यह देखो, मैंने कितनो को सुखी बनाया है? कितने रोते हुए लोगों के आँसू पोंछे हैं? कितने अशान्त लोगों को शान्ति दी है? आपके जीवन की सफलता इसी में है। आप जानते होंगे, जो दीर्घ आयु जीकर मरते हैं उनकी अर्थियां विशेष निकाली जाती हैं। उत्सव जैसे मनाया जाता है। उसमें बहुत लोग शरीक होते हैं, ठीक है, यह भी एक रीति रिवाज़ है। लेकिन हमें यह सोचना चाहिए कि कोई 90 साल 100 साल जीया, उसने इतनी लम्बी आयु तक केवल अपने लिए जीया या औरों के लिए कुछ किया? जीना उसका अच्छा है जो सिर्फ अपने लिए ही नहीं जीता, बल्कि दूसरों के लिए भी जीता है। अपना तन-मन-धन सिर्फ अपने लिए ही लगा दिया या उनसे दूसरों को लाभ दिया? यह एक सोचने की बात है। हमारा जीवन महान कार्य में लगना चाहिए, न कि साधारण कार्य में। कर्म तो हरेक को करना ही है। कर्म के बिगर कोई रह नहीं सकता। गीता में कहा हुआ है, हे अर्जुन! हरेक व्यक्ति जो इस कर्म क्षेत्र पर आया है, जिसने कर्मेन्द्रियों का शरीर लिया है, उसको कर्म करना ही पड़ता है, बिना कर्म कोई रह नहीं सकता। खाना-पीना यह भी कर्म है, सोचना यह भी कर्म है जिसको मानसिक कर्म कहा जाता है। मनसा, वाचा, कर्मणा इनसे कई किस्म के कर्म हो सकते हैं। हरेक कर्म तो ज़रूर करता है। भगवान ने यहाँ तक कहा हुआ है कि कर्म करने के लिए इस संसार में मुझे भी आना पड़ता है। अगर मैं नहीं आऊंगा तो संसार में अव्यवस्था आ जाती है। लोग धर्म से हटकर अधर्मी हो जाते हैं, अत्याचार, पापाचार में लग जाते हैं। कर्म मैं भी करता हूँ और मनुष्य भी करते हैं लेकिन मनुष्य कर्म, अकर्म और विकर्म की गुह्य गति न जानकर कर्म करते हैं इसलिए उनके कर्म विकर्म बन जाते हैं। इसलिए हमें कर्मों पर ध्यान देना चाहिए। हमारे कर्म सेवामय हों। हमारे कर्म महान हों, श्रेष्ठ हों, सुखदायी हों। आज ऐसे कर्मों की ज़रूरत है, ऐसी सेवा की ज़रूरत है जिससे संसार में शान्ति और सुख हो, सारी समस्यायें ही समाप्त हो जायें।

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