मैं-पन आने लगता है तो सेवायें सूखने लगती हैं, मुरझाने लगती हैं। सेवाओं में हरियाली नहीं रहती, न सेवा करने वालों को सुख-शांति, खुशी, और एक परम संतोष प्राप्त होता है। हम बचें इन चीज़ों से।
हम सभी ईश्वरीय कार्यों में संलग्न हैं। भगवान इस सृष्टि पर अवतरित हुए युग बदलने के लिए। और कहा कि मैं करनकरावनहार हूँ, तुम मेरे साथी निमित्त बन जाओ, तुम्हारे द्वारा मैं कार्य करूंगा। जैसे ब्रह्मा बाबा के द्वारा निराकार शिव बाबा ने कार्य किया, ज्ञान दिया। तो ब्रह्मा बाबा ये कभी नहीं कहता था कि ज्ञान मैं देता हूँ। प्रैक्टिकल में यही सत्य था। सारा कार्य शिव बाबा के द्वारा हो रहा है। ये यज्ञ भी उसने रचा, यज्ञ में जो समर्पित हो रहे हैं वो उसके ऊपर हो रहे हैं। हम सभी उसके कार्य को सम्पूर्ण करने में लगे हुए हैं। जैसे रामायण में है, हनुमान ने राम के सारे काज संवारे। जहाँ कोई काम नहीं कर सकता, हनुमान ने फटाफट कर दिया, बिना कहे कर दिया। हम भी हनुमान, महावीर हैं। माया को जीतने वाले भी और भगवान के कार्य को सफल करने वाले भी हैं। तो इस कार्य में हमें ये याद रखना है कि ईश्वरीय शक्तियां हमारे साथ काम कर रही हैं। ईश्वरीय ज्ञान हमें प्राप्त हुआ है। सद्विवेक हमें मिला है। हम केवल निमित्त मात्र हैं, कहीं हमें सफलता मिलती है तो उसकी शक्तियों के कारण, लेकिन हमारा उसमें खेल क्या है? कि हम जितने योग्य बनेेंगे, उतना ही वो हमें अच्छा यूज़ करेगा। अब किसी को बोलना ही न आता हो और भगवान उसके तन में आकर कहे कि मैं बोलूंगा तो मुश्किलात हो जायेगी ना। तो शिव बाबा ने हमें निमित्त बनाया ईश्वरीय कार्यों के लिए। हम याद रखेंगे, हम निमित्त हैं इस कार्य में। मैं और मेरा नहीं आना चाहिए। दुनिया में भी यही खेल चल रहा है। पॉलिटिकल पार्टी, दुनिया में हज़ारों संगठन हैं, उन सब में, बल्कि कहीं-कहीं परिवारों में, फैक्ट्रियों में, कम्पनियों में, मेरा नाम क्यों नहीं हुआ? मुझे क्यों नहीं पूछा गया? मेरे बारे में ये क्यों बोला, ये काम तो मैंने किया, इसका श्रेय तो मुझे मिलना चाहिए। ये काम केवल मैं ही करूंगा/करूंगी, मेरे सिवाय इसको कोई छू नहीं सकता। ये मैं-पन हमारे जीवन को अभिमान से भर देता है और हमारा तो सेवा का कार्य है। वैसे तो संसार में हर मनुष्य को हर कार्य को सेवा का कार्य मानना चाहिए। चाहे आप पॉलिटिकल पार्टी में हैं, अच्छे पदों पर हैं, हम समाज की, देश की, जनता की सेवा के लिए हैं। हमारा काम है सबको सुख देना, सबकी समस्याओं को हल करना, उनके बिगड़े हुए काम को संवारना। हम भी यही संकल्प अपने अन्दर रखें कि हम दाता हैं। देने के बाद हमें लेने की कोई इच्छा न हो, चाहे वो मान-सम्मान की बात हो, चाहे और कुछ लेने की बात हो। कुछ लेकर यदि मनुष्य कुछ देता है तो देने का महत्व घट जाता है, पुण्य भी कम हो जाता है। हम इस पर बहुत ध्यान देंगे। बाबा ने बहुत अच्छे महावाक्य उच्चारण किए - मैंपन आया और गुलदस्ता मुरझाया। सेवाओं का गुलदस्ता मुरझाया। किसी भी निमित्त आत्मा में यदि मैं-पन आने लगता है तो सेवायें सूखने लगती हैं, मुरझाने लगती हैं। सेवाओं में हरियाली नहीं रहती, न सेवा करने वालों को सुख-शांति, खुशी, और एक परम संतोष प्राप्त होता है। हम बचें इन चीज़ों से। हम तो महाभारत से सीखते थे, बचपन से सीखा था कि पाण्डवों के साथ ईश्वरीय शक्ति थी तो वो बहादुर थे, तब उनकी विजय हुई। जिन्होंने महाभारत देखी है तो वो जानते हैं कि अगर भगवान उनके साथ न होते तो वो जीत नहीं सकते थे। कर्ण भी बहुत बहादुर थे। तो भीष्म को मारना, हराना ये तो असम्भव था। द्रोणाचार्य भी बहुत बड़े योद्धा थे लेकिन ईश्वरीय शक्तियों के सहयोग से और गम्भीर कूटनीति से विजय हुई। हम भी ये भूलें नहीं कि हमारे साथ भी ये ईश्वरीय शक्ति है। और जिस दिन ये ईश्वरीय शक्ति हट जाती है, महाभारत के अन्तिम सीन में दिखाया, तो भीम की भुजाओं में बल नहीं रहा। युधिष्ठिर के पास धर्म का राज्य चलाने के लिए शक्ति नहीं रही। अर्जुन रास्ते में भीलों से ही हार गया। भीलों के पास वो छोटे-छोटे लकड़ी के बने तीर और कमान थे। और अर्जुन का गांडीव भी उनका कुछ नहीं कर सका। ईश्वरीय शक्ति थी तब विजय थी, तब बल था, तब विवेक था, तब धर्म की सत्ता थी। हमें ये बात बहुत गहराई से अपने अन्दर समा लेनी है। कई लोगों को बहुत दुविधा सी रहती है। हम बहुत सेवा करते हैं, हमें कोई जानेगा ही नहीं तो मज़ा कैसे आयेगा! नाम उनका हो रहा है जो कुछ नहीं करते, और जो बहुत कुछ करते हैं वो गुप्त हैं। लेकिन हमें याद रखना चाहिए, जो बहुत कुछ करके गुप्त हैं उनको बल बहुत मिल रहा है, उनको भाग्य बहुत मिल जायेगा। और जो थोड़ा करके नाम-मान के पीछे भाग रहे हैं उन्हें नाम-मान मिल रहा है लेकिन उनका बल और भाग्य वहीं समाप्त हो रहा है। दुनिया में भी हम इसी बात पर ध्यान देंगे। कर्मातीत होने में सबसे बड़ी दीवार मैंपन की ही है। ये रोकता है, ये हमारे सामने दीवार बनकर खड़ा है। ये अनेक व्यर्थ संकल्पों का कारण बन जाता है, तो क्रमैंञ्ज को भी छोडऩा है और क्रमेराञ्ज इसको भी छोडऩा है। तब नशा चढ़ेगा कि मेरा बाबा, यानी जो भगवान है वो मेरा है। जब तक हम इस संसार के तेरे-मेरे में लगे हुए हैं, न ईश्वरीय नशा चढ़ेगा, न उससे अपनेपन की फीलिंग होगी, न वो हमें अपना मान कर मदद करेगा, बल देगा। तो चाहे आप लौकिक में हैं, अलौकिक में हैं, ये क्रमैं-पनञ्ज हमें स्वमान से चेंज कर देना है। सबकुछ करके सबकुछ छुपा देना जैसे ब्रह्मा बाबा ने किया। बहुत बड़े-बड़े काम किए लेकिन सदैव कहा शिव बाबा कर रहा है। हम जानते थे ये ब्रह्मा बाबा ने ही किया है। लेकिन कहा नहीं, मैं तो निमित्त हूँ, मैं कुछ नहीं करता, और न ही मैं कुछ कर सकता हूँ। ऐसी निर्मानता, ऐसी निरहंकारिता, मनुष्य को निरन्तर आगे बढ़ाती है। बहुत अच्छे सुख-शांति का अनुभव कराती है। और एक ईश्वरीय बल अन्दर में बना रहता है। जो समस्याओं से लडऩे की ताकत देता है।