माया क्या है और रावण क्या है?

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बाज़ार में एक मटका लेने जाओ तो कितनी बार ठोक-ठोक कर देखते हैं कि कच्चा है कि पक्का है? ठीक इसी तरह भगवान को जिसके हाथ में अढ़ाई हज़ार साल राज्य सौंपना हो विश्व का, तो कच्चे के हाथ में थोड़े देगा! उनको तो पक्के चाहिए। इसीलिए बाबा ऐसा कहते कि देखो तो सही कि ये कच्चा है या पक्का है!

बाबा के मधुर महावाक्य को हम सभी रोज़ सुन करके आत्मसात करते रहते हैं। परंतु बीच-बीच में कभी-कभी ब्राह्मणों को माया सताती है और तभी बाबा कहते हैं बच्चे खबरदार रहना है। रावण बड़ा जबरदस्त है, बड़ा दुश्मन है। तो मन में एक सवाल उठा कि माया और रावण एक ही है या अलग है? क्या कहेंगे! फिर बाबा कई बार कहते हैं माया मेरी आज्ञाकारी बच्ची है, रावण को तो कभी बच्चा कहा नहीं। तो एक ही है या अलग है? अभी कन्फ्यूज्ड़ हो रहे हैं… वास्तव में अगर देखा जाये तो माया और रावण दोनों अलग चीज़ हैं। एक नहीं हैं। तो माया किसको कहें और रावण किसको कहें? क्योंकि कई बार होता है रावण और हम कहते हैं माया आ गई, माना हल्का ले लिया। माया माना फीमेल कैरेक्टर के रूप में दिखाया, रावण माना मेल कैरेक्टर के रूप में दर्शाया। दोनों के ऊपर अगर हम चिन्तन करें तो दोनों अलग चीज़ हैं। बाबा भी जब कहता है कि माया मेरी आज्ञाकारी बच्ची है, जब भी कोई ब्राह्मण ज्ञान में चलता है तो बाबा माया को कहते, देखो तो सही कि ये कच्चा है या पक्का है? बाज़ार में एक मटका लेने जाओ तो कितनी बार ठोक-ठोक कर देखते हैं कि कच्चा है कि पक्का है? ठीक इसी तरह भगवान को जिसके हाथ में अढ़ाई हज़ार साल राज्य सौंपना हो विश्व का, तो कच्चे के हाथ में थोड़े देगा! उनको तो पक्के चाहिए। इसीलिए बाबा ऐसा कहते कि देखो तो सही कि ये कच्चा है या पक्का है! कभी-कभी ब्राह्मण शिकायत करते हैं कि भक्ति में भी इतनी परीक्षा नहीं देनी पड़ी, जितनी यहाँ देनी पड़ती है। क्यों? क्योंकि यहाँ बाबा को ऐसे बच्चे नहीं चाहिए जो थोड़ी-सी बात आये और सोडा वाटर हो जाये। बाबा को तो मजबूत बच्चे चाहिए। जो माया से, रावण से युद्ध करके विजयी हो जायें, ऐसे बच्चे चाहिए। इसीलिए प्रथम दिन से ही माया परीक्षा लेना चालू करती है, ठोकना चालू करती है येकच्चा है या पक्का है? जैसे ही कोर्स पूरा होता है, और रोज़ मुरली क्लास में जाने लगते हैं तो सबसे पहले घर वाले ही पूछना चालू करते हैं — क्या बात है, ये रोज़-रोज़ सुबह कहाँ भाग रहे हो? घर का काम-काज है कि नहीं? परीक्षा आती है कि नहीं आती है? माताएं अनुभवी हैं कि पहले दिन से ही परीक्षा चालू होती है। लेकिन फिर भी निश्चयबुद्धि होने के कारण डट के रहे। फिर धीरे-धीरे उन्होंने समझ लिया कि ये रोज़ जाने वाले हैं। बोलना बंद किया। उसके बाद जैसे ही प्याज़-लहसुन छोड़ा तो फिर परीक्षा शुरू होती है कि ये कौन-सा नया धर्म आया है? ये कहाँ लिखा हुआ है कि ये सब छोड़ दो! अब जो कच्चेहोंगे वो तो छोड़ के चले जायेंगे। बाबा कहते, मुझे तो पक्के बच्चे चाहिए। जो पक्के होते हैं, अपने दृढ़ता में रहते हैं वो उन परीक्षाओं में भी सहज, सहनशील होकर के भी, मजबूत बन कर के भी पार कर जाते हैं। इसीलिए देखो रामायण के अन्दर अगर देखा जाये तो पहले फीमेल कैरेक्टर्स आती है रावण तो बाद में एंटर होता है। पहले तो शूर्पणखा, मंथरा यही सब आती हैं। रावण तो बहुत बाद में आया। इसीलिए ब्राह्मण जीवन पूरी रामायण है। जिससे हम गुज़रते हैं, वो ब्राह्मण जीवन है। जिसको हम रामायण के रूप में, महर्षि वाल्मीकि ने लिखा कि ब्राह्मण जीवन कैसा होता है…! तो कहानी आरंभ होती है दशरथ से। और दशरथ से जब कहानी आरंभ होती है, यानी बाबा ने भी हमें सबसे पहले दशरथ बनाया, सतयुग में। संगमयुग के पुरुषार्थ से हम दशरथ बनते हैं अर्थात् स्वराज्य अधिकारी आत्मा। जिसका अपनी कर्मेन्द्रियों के ऊपर, दसों इन्द्रियों के ऊपर सम्पूर्ण अधिकार है। तो सतयुग के अन्दर हम ऐसी दशरथ आत्माएं थीं। सम्पूर्ण स्वराज्य अधिकारी- पाँच स्थूल इन्द्रियां और पाँच सूक्ष्म इन्द्रियां, ऐसी हमारी स्थिति हमने अन्त में बनाई थी। जिस कारण जो प्रालब्ध मिली, सतयुग और त्रेतायुग की, उसमें हम दशरथ होकर जीते थे। जिसका राज्य कहाँ था, अयोध्या। जहाँ कभी युद्ध नहीं हुआ। तो सतयुग और त्रेतायुग में किसी के जीवन में युद्ध नहीं था। क्योंकि दशरथ थे और जिनकी तीन साथियाँ थीं। तीन साथियाँ कौन-सी थी- सबसे पहली ‘कौशल्या’। कौशल्या माना सर्व कुशलताओं से सम्पन्न। अर्थात् बाबा ने हमें 16 कला सम्पूर्ण बनाया था, तो ये हमें 16 कला, ये सारी कुशलताएँ, हमें हासिल थी। ये पहली साथी थी हमारी। दूसरी साथी थी — ‘कैकेयी’, अर्थात् सर्व प्राप्ति सम्पन्न आत्मा। तो प्राप्तियाँ भी अखूट थी हमारे जीवन में। इसीलिए कहा जाता कि जब कैकेयी को पूछा गया कि- ‘माँगों तुम्हें जो कुछ चाहिए वोमिल जाएगा’। दो वरदान माँगने के लिए कहा था, तो उसने कहा मुझे किसी भी चीज़ की आवश्यकता नहीं है, सबकुछ है मेरे पास। आवश्यकता पडऩे पर कहेंगे लेकिन अभी तो कुछ नहीं चाहिए। ऐसी सर्व प्राप्ति सम्पन्न आत्माएँ सतयुग और त्रेतायुग में थे। और तीसरी साथी थी हमारी ‘सुमित्रा’। यानी सर्व के प्रति हमारा मित्रता का भाव एक ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना के साथ हम जीते थे। तो ये हमारी तीन साथियाँ थी, दशरथ आत्मा की। लेकिन धीरे-धीरे जैसे ही सतीयुग-त्रेतायुग पूरा होकर के द्वापर में भी तीन हिस्सा सुख मिला, लेकिन चौथे कलियुग के अन्दर कहीं-न-कहीं, कुछ-न-कुछ युद्ध शुरू हुआ जीवन के अन्दर भी। और उन युद्धों के कारण कहा की भाई घर में शान्ति बनी रहें। तो उसके लिए यज्ञ किया। और उस यज्ञ से जो फल माना ‘संगमयुग’ आ जाता है माना बाबा ने आकर के ये बेहद का यज्ञ किया और इस यज्ञ के फलस्वरूप चार बेटे हरेक को दिये। हरेक ब्राह्मण को चार बेटे मिले। जिसकी परवरिश हमें निरन्तर करनी है। और ये चार बेटे कौन-से है? तो ‘श्री राम’ अर्थात् ज्ञान। ज्ञानी तु आत्मा। ‘भरत’ माना ‘समर्पण भाव’। योग माना ही ईश्वर के प्रति ‘समर्पण’ भाव। लक्ष्मण माना जिसका लक्ष्य मन का इतना स्पष्ट और अविचलित, और ये लक्ष्य इसलिए था क्योंकि ‘त्याग’ की शक्ति थी। लक्ष्मन ने जैसा ‘त्याग’ किया वैसा त्याग किसी का नहीं दिखाते, राम का भी नहीं दिखाते है, ऐसा त्याग किया। अर्थात् जो धारणा मूर्त आत्मा है। और चौथा नम्बर ‘शत्रुघ्न’। जो सबकी सेवा करता है। सारी माताओं की भी सेवा करता है, सबकी सेवा करनेवाला सेवाधारी। तो ब्राह्मण जीवन के ये चार आधार — ‘ज्ञान’, ‘योग’, ‘धारणा’ और ‘सेवा’ ये चार बेटे है, जिसकी परवरिश हमें निरन्तर करते रहना है। जिसको मजबूत बनाना है। क्योंकि यही जीवन का आधार है। और उसको मजबूत करने के लिए उन्हें गुरुकुल में भेजा गया, शिक्षा-दिक्षा लेने के लिए। अर्थात् ये ब्राह्मन जीवन में भी इन चारों सब्जेक्ट को मज़बूत करने के लिए रोज पढ़ाई पढऩा अनिवार्य है तभी बाबा कहते है — मुरली कभी मिस नहीं करना है। क्योंकि मुरली से ही, शिक्षा से ही, ये चारों, जीवन के आधार को हम परिपक्व कर देेते है, मजबूत कर देते है। ताकि जीवन में कोई भी प्रकार की माया आई, या रावण भी आ जाये, तो भी हमें हरा नहीं सकता है। इसलिए ये चारों सब्जेक्ट को मजबूत करना बहुत आवश्यक है। क्योंकि नहंीं तो माया तो आते ही रहेंगी। और इसीलिए सबसे पहली माया जो दिखाई, वो थी ‘ताड़का’। सबसे पहली माया आती है। और वो माया क्या करती है? तो कहा जो ऋषी यज्ञ कर रहे थे उसमें विघ्न डालते थे, हड्डियाँ डालते थे, भावार्थ यह है कि जो आत्माएँ तपस्या कर रहीं थी भाईब्राह्मण जीवन में, उसके जीवन में ‘विघ्न’ डालने का काम ये माया करती है। कोई-न-कोई विघन् डालती ही जा रही है। और तब इस माया को भी जीतने के लिए ‘राम और लक्ष्मण’ दोनों मिल कर के जीतते है। भावार्थ यह है कि जब यह विघन् आता है, उस समय योग करने के लिए कहा जाए, योग नहीं लगता है। लेकिन उस समय ‘ज्ञान का प्रैक्टिकल अप्लिकेशन’ और ‘धारणा’ ही हमारे हर विघ्न को पार करने के लिए हमें सक्षम बना देती है, पॉवरफुल बना देती है। धारणा को कसने की आवश्यकता है। क्योंकि ये ताडका कहाँ से आती है जहाँ कहीं हमारी धारणाओं में हम लूज़ है, कमज़ोर है। चलता है, होता है, जहाँ इस तरह की भावना रखी तो कोई-न-कोई माया विघन् डालने का काम ज़रूर करती है। इसीलिए ‘ज्ञान’ और ‘धारणा’ को पॉवरफुल करो। योग से काम नही होता है विघन् को खत्म करने के लिए। लेकिन ज्ञान का अप्लिकेशन बाबा ने हर बात का अप्लिकेशन् हमें दिया हुआ है। कहा ड्रामा की प्वाइण्ट को अप्लाय करो, कहा कर्म फिलासाफी को अप्लाय करना है, तो कहाँ इन परीक्षाओं को समझते कौन-सी ज्ञान की प्वाइण्ट; फुल स्टाप लगाना है या वाह-वाह के गीत गाने है, ये सारे ज्ञान के जो विभिन्न शस्त्र है, इन शस्त्रों को यूज़ करना है और उस ताड़का को खतम् करना है। ‘धारणा’ को पॉवरफुल कर देना है तो ‘ताड़का’ समाप्त होगी। फिर जैसे-जैसे आगे बढ़े तो कहा जाता है कि सीता के साथ का वरण हुआ। शिव धनुष को उठाया। ज्ञानी-तु-आत्मा शिव धनुष उठाती है मतलब शिव धनुष कोन-सा है? शिव धनुष है — ‘ब्रह्मचर्य व्रत की पालना का धनुष’। और इसीलिए जो अहंकारी होते है वो इस धनुष्य को नहीं उठा सकते है, जो कमज़ोर होते है वो इस धनुष्य को नहीं उठा सकते है, लेकिन जो ‘ज्ञानी-तु-आत्मा’ जिसने अपने जीवन के अन्दर ब्रह्मचर्य व्रत की पालना की जो बहुत आवश्यक है, ब्राह्मण जीवन में, वो इस धनुष्य को सहज उठा सकते है और जब धनुष को उठाते है तब सीता के साथ का वरण होता है। अर्थात् सीता माना ‘पवित्रता की प्रतीमूर्ति’। की ब्रह्मचर्य व्रत के लिए बहुत सारी बातें आयेंगी जीवन के अन्दर। परशुराम भी पहुँच जायेंगा के भाई कैसे उठा लिया तुमने, इस धनुष्य को? कई प्रकार के महान बातें भी आपके सामने आयेंगी लेकिन जिसने इस ‘शिव-धनुष’ यानी प्रतिज्ञा को जीवन के अन्दर मज़बूत कर लिया, वहीं ‘सीता’ के साथ यानी पवित्रता के साथ ज्ञान का वरण होता है। और जब ज्ञान का वरण ‘पवित्रता’ के साथ हो जाये तो वह आत्मा बहुत मज़बूत हो जाती है। उसको कोई भी ‘माया’ या कोई भी ‘रावण’ जीत नहीं प्राप्त कर सकते है। तो ऐसी ये ब्राह्मण जीवन जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, फिर तीसरी माया आती है — ‘मंथरा’। ये ब्राह्मण जीवन में चलते, चलते, चलते हर कोई ये महसूस ज़रूर करता है; जैसे बाबा की पीछले सण्डे की मुरली थी — कि उस ‘घड़ी’ को याद करो जिस दिन आप ज्ञान में आए, जिस घड़ी में आप ने ज्ञान को वरण किया अपने जीवन के अन्दर, वह ‘घड़ी’ कौन-सी थी? जिस दिन ज्ञान में आये वो घड़ी कौन-सी थी? तो बाबा ने बहुत सुन्दर ये शब्द यूज़ किया ”वहीं घड़ी ‘वृहस्पती की दशा की घडी’ थी”। कि जिस समय, कि जिस समय वृहस्पति का आशिर्वाद आपके ऊपर आया, उसकी छत्रछाया में आप आये, तो वो घडी कितनी श्रेष्ठ, कितनी महान् थी। और इसीलिए उस घड़ी में, क्या से क्या बन गये। तो इसी तरह जैसे ही आज भी अगर याद करते है के जिस दिन हम ज्ञान में आये थे, तो कितनी सुन्दर घडी थी। जैसे उडने का अनुभव किया था। लेकिन चलते-चलते आज अगर पूछा जाये तो क्या हो गये? वो उमंग उत्साह! वही है, बढ़ा या कम हो गया? क्या हुआ? जिस दिन ज्ञान में आये उस समय जो सुहावनी घड़ी, वृहस्पती की घड़ी थी, उसके बाद वो उमंग उत्साह बढ़ा या कम हुआ? आ? कम हुआ। क्यों कम हुआ? क्योंकि मंथरा आने लगी। और मंथरा माना क्या? परचिंतन, परदर्शन, परमत के प्रभाव में आये। तो ब्राह्मण बनने के बाद जैसे ही सहजता से चलने लगे बहुत सहज हो गया, ये जीवन कितना सुन्दर हो गया, लेकिन वहा माया कौन-सी आती है, ब्राह्मण जीवन के बाद माया कौन-सी आती है? तो जो बाबा कहते है — ‘परचिन्तन पतन की जड़’ है। और इसीलिए ब्राह्मणों ही आपस में — ”सुना क्या हुआ?”, ”मधुबन में जाने के बाद भी ऐसा हुआ!”, ”अर्रे हम से पुराना! हम से सीनियर!” ”टीचर है फिर भी ऐसा!” और ये बातों मे कितना ‘टेस्ट'(ञ्जड्डह्यह्लद्ग, मज़ा) आता है, ये बाते, ये संसार-समाचार सुनने में कितना आनंद आता है? तो ये मंथरा के परवश हुए कि नहीं हुए? तो जो आत्मा सर्व प्राप्ति सम्पन्न! ब्राह्मण जीवन के लिए कहा जाता है — ‘के ब्राह्मण जीवन में, अप्राप्त नहीं कोई वस्तु; ब्राह्मणों के खज़ाने में’। इतना बाबा अखुट देता है। लेकिन जब ये मंथरा के परवश होने लगते है, ‘परचिन्तन, परदर्शन, परमत’ के प्रभाव में आये; के सारा नशा…. क्या होने लगा? सोड़ावाटर होने लगा की नहीं हुआ? तो इसीलिए वो खुशी नहीें है। जो खुशी पहले दिन की थी हमारी; वो खुशी आज क्यों कम हो गयी है? क्योंकि कहीं-न-कहीं हम इस माया के शिकार, ये बहुत बड़ी माया है। और जब ‘कैकेई’ भी इस माया के परवश हुई, तो कहा पहुँच गई? कहा पहुँच गई? ‘कोप भवन’ में पहुँच गई। ‘कोप भवन’ माना दु:खी, परेशान्। दु:खी और परेशान हो गये। बस मुझे चाहिए। ये चाहिए, माना कही-न-कही अप्राप्ति जो महसूस किया, उस अप्राप्ति की डिमांड शुरू हो गई— ‘के ब्राह्मण जीवण में मुझे भी यह चाहिए’। दशरथ और जैसे ही कोप भवन में पहुँची, वो परेशान, दु:खी हो गई, एकदम बाल-वाल सब बिखेर दिये, सब उतार दिये और जैसे ही डिमांड शुरू किया, तो आत्मा इतनी कमज़ोर हो गयी; दशरथ इतना कमज़ोर हो गया — कि उसका पिछला कर्मो का हिसाब सामने आ गया। पिछले कर्मो के हिसाब हमारे सामने तब तक नहीं आ सकते है, जब तक हम पावरफुल है। वो पिछला कर्म हमारा कुछ नहीं कर सकता है। लेकिन पिछला कर्मो का हिसाब हमारे सामने तब आयेंगा जब हम परचिन्तन-परदर्शन-परमत के प्रभाव में आते है, परेशान, दु:खी हो गये, कमज़ोर हो गये तो पिछला कर्म सामने खड़ा हो जाता है। दशरथ का भी पिछला कर्म कोन-सा था? श्रवन कुमार के प्राण जब गलती से भी लिये गये, एक क्रपाप कर्मञ्ज जो हुआ; वो क्रपाप कर्मञ्ज यानी वो मात पिता से जो श्राप मिले थे, जब तक वो पावरफुल स्थिति में था, क्रज्ञान-योग-धारणा-सेवाञ्ज चारों ही सब्जेक्ट बैलेंस रूप में थे, तब तक पिछला कर्म उसके सामने नहीं आ सका। लेकिन जैसे ही आत्मा कमज़ोर हुई परचिन्तन के कारण, इसलिए बाबा कहते है — क्रपरचिन्तन पतन की जड़ हैञ्ज। और वो परचिन्तन के प्रभाव में आने से ही आत्मा कमज़ोर हो गयी, दुृ:खी-परेशान हो गयी तो पिछला कर्म सामने खड़ा हो गया। अब हिसाब चुकाओं। अब हिसाब चुकाने में प्राण चले गये। कई बार ब्राह्मण जीवन से भी, मर जाते है। वापस दुनिया में चले जाते है वो आत्माएँ। जो एक समय में उड़ती थी। कई लोग वर्णन करते — इतना पावरफुल आत्मा था, इतना अच्छी तरह से उमंग उत्साह से चले; पता नहीं क्या माया आई? रामायण हमें बताती है क्या माया आती है। ये परचिन्तन, और वो इतना सूक्ष्म रीति से दिमाग को खाती है जो मनुष्य को अन्दर से ही कुतरती है, और वो माया उसको वापस दुनिया में ले जाती है, ब्राह्मण जीवन से मर जाते है। दशरथ मर गया। दशरथ मर गया। इसीलिए बाबा हम बच्चों को ये दो बातों से सावधान रहने के लिए कहते है पहली बात कहते है बच्चे क्रझरमुई-झरमुईञ्ज में मत जाओं, कितनी बार साकार मुरली में ये बात आती है – झरमुई-झरमुई नहीं करो। ये धुतीपणा नहीं करों। और दूसरा क्रपरचिन्तन-परदर्शन-परमतञ्ज के प्रभाव में नहीं आओं, पर-उपकारी बन जाओ। ऐसे समय पर जो हमें आन्सर मिले है, ज्ञान में — कि इस माया को जितना है, तो परउपकारी बन जाओ। ये माया को जीतने कि विधि है। लेकिन जो नहीं जीत पाया, ऐसे समय पर परउपकारी नहीं बन सकें, वो कमज़ोर हो गये, वो चले गये। उसके बाद जैसे ही, चलते रहे ज्ञान में, बन में चले गये। यानी एक प्रकार का वैराग भी आता है। जो चले, परदर्शन के मत में आए, परचिन्तन के प्रभाव में आये, परमत के प्रभाव में आए, तो फिर वो थोड़े समय के लिए टेम्पेररी जंगल में चले जाते है। है ना? ज्ञान, धारणा और हमारी पवित्रता जैसे ढ़ीली हो जाती है जंगल में चली गई, तो जंगल में चौथी माया आई। कौनसी माया आई? जंगल में कौनसी माया आती है? क्रसुपर्नखाञ्ज आती है। और सुपर्नखा क्या करती है? सुपर्नखा माना कौन? तो दैहिक आकर्षण। सुपर्नखा इतना अपना दिव्य स्वरूप लेकर के आई, प्रभावित करने का प्रयत्न करने के लिए, किसको? ज्ञानी-तु-आत्मा को। इसीलिए बाबा कहते है देह सहित देह के सर्वसम्बन्ध भूल, दैहिक आकर्षण से अपनी बुद्धि को ऊपर उठाओ लेकिन फिर भी, फिर भी ये दैहिक आकर्षण की माया आती ज़रूर है। और कई बार वो प्रभावित करने का प्रयत्न करती है। हमें साथी बना लो कोई बात नहीं ज्ञान में मिल के चलेंगे। है ना? कई कुमारों के सामने ये बात आती है, कुमारीयों के सामने भी ये बात आती है, कि भाई सेन्टर पर रहना मुश्किल है, लेकिन शादी करके ज्ञान में मिल कर के चलेंगे। ये सुपर्नखा के वश हो गये? हो गये कि नहीं हुये? सुपर्नखा के वश हो जाते है। तो उसी के लिए जैसे ही राम ने तो कह दिया, सबसे पहले तो राम के पास ज्ञानी तु आत्मा के पास गई तो राम ने तो कहा कि — मेरे साथ तो सिता है, तुम लक्ष्मण को ट्राई कर सकती है। है ना? तो बाबा भी कहते है — क्रज्ञान में तो जो आत्माओं ने पवित्रता के वरण किया वो हिलती नही हैञ्ज। लेकिन धारणा में जो कमज़ोर है उसको ट्राई करो। तो वो धारणा को भंग करने की कोशिश करती है ऐसी क्रसुपर्नखायेंञ्ज ये भी माया है। ये रावण नहीं है अभी तक रावण की एण्ट्री नहीं हुई है, ये माया ही है सारी। और इस तरह से जो दैहिक आकर्षण में फँसे, वो गये। कुछ समय पहले बाबा की मुरली आई थी — कि जब ऐसी दैहिक आकर्षण की बातें आती है, तो लक्ष्मन ने भी क्या किया सुपर्नखा को अपमानित कर दिया। उसका नाक ही काँट दिया। तो जो धारणा में पावरफुल है, वो उसका नाक हटा देते है, नाक काँट देते है, यानी अपमानित कर देते है। कि भाई तुम हमारे सामने किस मुँह से आई, जाओ। दुनिया में बहुत पड़े है, उनको ट्राई करो। तुम हमारे पास क्यों आई है? शादी करनी है तो आत्माओं से क रो बहुत आत्माएँ है। तो इसीलिए जो कहा कि — ये माया को भी जीतना है। क्रब्राह्मण जीवनञ्ज देखो रामायण पुरी ब्राह्मण जीवन है ना? फिर उसके बाद जैसे ही उसका अपमान किया, तो वो जाती है किसके पास? अपने भाईयों के पास। क्रखर और दूषणञ्ज। क्रदूषणञ्ज माना दूष्टता। फिर वो दूष्टता के साथ सामने आती है। क्रखरञ्ज याने अभिमान के साथ। उसका अभिमान को चोट लगी तो दूष्टता को लेकर, तो ये भी माया का स्वरूप है जो दूष्टका का व्यवहार आरम्भ कर देते है। या कैसे भी करके प्रभावित करने का या खत्म करने के लिये कई प्रकार की परीक्षाओं से गुज़रना पड़ता है। लेकिन जैसे ही उसको भी जीत लिया ज्ञान की शक्ति से और धारणा की शक्ति से। राम लक्ष्मण ने उनको भी जीत लिया, तो फिर रावण की एण्ट्री होती है, सुपर्नखा जाती है किसके पास? रावण के पास। कि भाई मेरा बदला ज़रूर ले अभी तुम। मेरी इज्जत का, तेरी इज्जत का ये सवाल है। तो इसीलिए तब ये रावण की एण्ट्री होती है। लेकिन रावण भी सीधा नहीं आता है। सबसे पहले मारिज़ को भेजता है और मारिज़ ने क्या किया सुवर्ण हिरण का रूप लेकर के वो सामने आता है, और वहा सिता प्रभावित हो गयी। उससे प्रभावित। अब क्रसोनी हिरणञ्ज कौनसा है ब्राह्मण जीवन में? ब्राह्मण जीवन में सोनी हिरण है क्रप्रलोभणञ्ज। प्रलोभण। और किसको उसने कहा कि मेरे को ये सोनी हिरण चाहिए? राम को ही कहा। मुझे ये सोनी हिरण लाकर के दो। किसलिए? मै जब वापिस जाउँगी ना! चौदा साल पूरा करके! तो माताओं के लिए ये उपहार लेकर जाऊँगी उसके चमड़ी का ब्लाऊज़ बना देंगे। मुझे अपने लिए नहीं चाहिए सिता ने कहा, माताओं को उपहार देने के लिए ये क्रसोनी हिरणञ्ज का चमड़ा चाहिए मेरे को। तो राम ने भी क्या कहाँ कि — क्रठीक है लाकर देता हूँञ्ज। तो अलग हुआ, अलग हुआ! भावार्थ यह है के जब ज्ञानी-तु-आत्मा के सामने भी, जो क्रपवित्र-मूर्तञ्ज आत्मा है, उसके सामने ये प्रलोभण, दूनिया के प्रलोभण आते है। तो कही-न-कही हमारी पवित्रता विचलित होती है। और व्यर्थ संकल्प चलते है, काश ये मिल जाये तो बहुत अच्छा। सेवा बहुत अच्छी कर सकेंगे, ये अच्छा होगा, वो अच्छा होगा। है ना? तो बहुत कुछ हम कर सकेंगे। तो पवित्रता प्रभावित हो गयी। इसलिए बाबा कई बार कहते है के — क्रक्रव्यर्थ या नीगेटिव सोचनाञ्जञ्ज ये भी एक प्रकार की अपवित्रता है। यानी इस प्रलोभण के वश होकर के व्यर्थ चिन्तन चलाना, ये चाहिए, वो चाहिए; ये होगा तो बहुत अच्छा होगा, ब्राह्मण जीवन में ये तो ज़रूरी है। मुझे अपने लिए थोडी चाहिए? सेवा के लिए चाहिए। है ना? अपने लिए नहीं चाहिए सेवा के लिए चाहिए। और आज की दूनिया में सबसे बड़ी प्रलोभण वाली चीज़ कौनसी है? मोबाइल। अपने लिये थोडी चाहिए? सेवा के लिए चाहिए। उससेहम कितनो को सेवा कर सकेंगे, कितनी अच्छे-अच्छे क्लासेस सुन सकेंगे। और हम भी किसको कहते है? राम को कहते है, शिव बाबा को कहते है। बाबा और कुछ नहीं चाहिए बस एक मोबाईल दिला दो। अच्छा वाला, अच्छा वाला एक मोबाईल मिल जाए बस्स। है ना? तो शिवबाबा (राम) भी मुस्कराता है, कि देखो ये बच्चे फँस गये। और इसीलिए कहता है अच्छा ठीक है लाके देता हूँ। बाबा को कहते है ना! योग मे कहते है और किसी को नहीं कहते। बाबा आप किसी को निमित्त बनाओं, बस मोबाइल दे देवे हमें गिफ्ट के रूप में। है ना? तो इस प्रकार के प्रलोभनों में; या बाबा इतना तो मेेरा जमा हो जाये कि मोबाइल खरिद सके हम। तो ये प्रलोभन में आ गया ना? तो ये भी माया है, मारिज़ तक माया है। रामायण के अन्दर मारिज़ तक; हर एक माया है। और इसीलिए जब उस माया में फँसे तो शिव बाबा हमसे दूर हुये। कैसे? कैसे दूर होते है? क्योंकि मन के अन्दर उस प्रलोभन के विषय में विचार चलने लगे तो उस समय बाबा याद रहेंगा? बाबा याद नहीं है। बाबा जब भी याद आता है तो बाबा को भी कहते है — बाबा आप कुछ करो ना! हमने और कुछ थोड़ेही मांगा! यही तो मांगा है। अपने लिए थोड़ेही! सेवा के लिए ही तो मांगा है। तो इस प्रकार से क्ररामञ्ज हमसे दूर होते है। ऐसे प्रलोभनों जब हम फँसते है तब। और जब वो हमसे दूर हुये तो मन का लक्ष्य विचलित हुआ। और मन का लक्ष्य विचलित होने कारण लक्ष्मण को भी उंट-पटाँग बाते बोलना शुरू कर दिया। तो कई बार हमारे मुख से भी जब मन परेशान है, उस प्रलोभन के पिछे है, नहीं मिल रहा है; तो मन का लक्ष्य विचलित होने कारण कुछ भी उंट पटाँग बाते बोलना हम शुरू करते है। और बोलना आरम्भ करते है, तो लक्ष्मण भी कहता है — क्रअच्छा मै भी जाता हूँञ्ज। क्रधारणाञ्ज कमज़ोर हो गयी। तो उसने लक्ष्मन रेखा खींच के गये। कि माँ इस रेखा से बाहर नहीं निकलना। भले मै जाता हूँ लेकिन तुम अन्दर रहना। तो कहा ठीक है रहेंगे अन्दर ही। लेकिन तब रावण की एण्ट्री आती है। और रावण ने जब देखा की लक्ष्मण रेखा इतनी पावरफुल है; कहे मै तो अन्दर नहीं जा सकूँगा लेकिन इसको कैसे भी करके बाहर निकलना है। और इसलिए कहा — क्रभिक्षाम् देदे भाईञ्ज, थोड़ा कुछ दे दो, मदत कर दो। सीता मदद करने के लिए आती है कि ठिक है। कहा मैं तो अन्दर नहीं आ सकता हूँ आपको बाहर आना पड़ेगा। भावार्थ यह है कि बाबा हमें रहमदिल बनने के लिए ज़रूर कहते है। लेकिन रहमदिल आत्मा भी बनो किसी को मदद करने की भावना भी रक्खो तो भी क्रमर्यादा के अन्दर रहकर मदद करनाञ्ज ये बाबा ने सिखाया है। क्रमर्यादा क्रास करके किसी को मदद करने का प्रयत्न नहीं करनाञ्ज। क्योंकि जहाँ कही पर भी मर्यादा क्रास करके किसी को मदद करने का प्रयत्न किया, तो रावण ज़रूर उठा कर ले जायेगा। तो रावण की एण्ट्री माना क्रकोई-न-कोई मर्यादा का उल्लंघन करानाञ्ज। अमृतवेले से लेकर रात्री तक जो बाबा ने हम बच्चों को जो मर्यादायें दी है, उन मर्यादाओं का उल्लंघन करते है, तो रावण आता है। इसीलिए अगर किसी को मदद भी करना हो तो मर्यादा कि लकिर में रहकर के मदत ज़रूर करो बाद में कह दो — भाई मेरी मर्यादायें इतनी है। बाकी आप जहाँ से भी मदद चाहे ले लो। तो मर्यादा की लकीर के अन्दर रहकर मदद करो, रहम भावना रक्खो, ये सब करो। नहीं तो रावण ज़रूर उठाकर ले ज़ायेगा। और रावण जब उठाकर ले गया, तो फिर सीता ने क्या किया? जटायु भी आया मदद करने के लिए; लेकिन उसको भी रावण घायल कर देता है रावण। माना मदद करने नहीं देता है। ऐसे ही, जैसे ही हम, परवश हुये, मर्यादा की लकिर को क्रास करके मदत करना माना परवश हो जाना। और परवश होना माना? कोई-न-कोई ग्राहचारी हमारे ऊपर बैठ जाना। आज भी बाबा ने मुरली मे कहा — राहू की ग्राहचारी सबसे कड़ी ग्राहचारी है। ये रावण है। समझना, ये माया नहीं है। ये माया नहीं है, ये रावण है। जो ग्राहचारी बैठ जाती है। तो ग्राहचारी जैसे ही बैठती है माना हमारा पुण्य क्षीण हुआ। तब ग्रहचारी बैठती है। पुण्य क्षीण होना। तो उसके लिए क्या करना पड़ेगा? तो सिता माता ने भी क्या किया? अपने अभूषण उतार-उतार कर के फेंकना चालू किया। सब उतार कर के फेंकना चालू किया। अर्थात् जब भी जीवन में कोई ग्राहचारी आये, तो ग्राहचारी के लिये यही कहा जाता है — क्रदे दान तो छूटे ग्रहणञ्ज। दे दान। दान करना शुरू करो। पुण्य क्षीण हुआ, और पुण्य क्षीण हुआ इसीलिए ग्राहचारी आई। तो पुण्य क्षीण हुआ तो उस पुण्य को बढ़ाने के लिए दान करो तो पुण्य वापस थोड़ा-थोड़ा करके, कुछ-न-कुछ पुण्य शुरू करो। चाहे दान करो, चाहे क्रज्ञानञ्ज दान करो; चाहे क्रयोगञ्ज दान करो, चाहे सहयोग दो, चाहे स्थूल दान करो, जो भी दान कर सको आप। तो उस ग्राहचारी हल्की होने लगेगी। फिर भी सम्पूर्ण रीति से नहीं उतरेंगी। और इसीलिए रावण लेके गया ज़रूर लेकिन अपने महल में नहीं रख सका। बगीचे में रखना पड़ा उसको। और उसके बाद स्पर्श तक नहीं कर सका। क्योंकि वो पवित्रता में वापिस मज़बूत हो गयी। लेकिन जो दान किया, चीज़े फेंकना शुरू किया, दान किया, उस दान से इतना ज़रूर होता है कि — कोई भी आत्मा $गलत कर्म नहीं करा सकती हमसे। $गलत कर्म नहीं करा सकती है। पुण्य क्षीण होने से रावण ज़रूर उठा कर ले जायेगा, लेकिन वो स्पर्श तक नहीं कर सकता है। परवश ज़रूर होंगे लेकिन हमसे गलती नहीं करा सकता है। और कम से कम वहा त्रिजट़ा ज़रूर मिल जायेगी। कोई-न-कोई ऐसी आत्मा मिलेगी हमें जो हमारी सहयोगी या सहारा ज़रूर बन जायेंगे। पुण्य करने से कम-से-कम ये प्राप्ति ज़रूर होगी। ये प्राप् ित की कोई-न-कोई त्रिजटा आयेगी और कहेंगी कि कोई बात नहीं बेटी मै तेरे साथ हूँ। है राक्षसिनी लेकिन फिर भी मददगार बन जाती है तो कोई-न-कोई एक आत्मा मददगार ज़रूर बनती है जब तक राम की सम्पर्ण सहाय्य प्राप्त हो, तब तक कोई आत्मा हमारी सहारा, सहयोगी ज़रूर बन ज़ायेगी। जो हमें अनेक प्रकार की मुसिबतों से कम-से-कम से$फ रखेंगी। पुण्य इसीलिए ज़रूरी है। ग्राहचारी जब भी जीवन में आई, समझ लों पुण्य क्षीण हुआ और इसीलिए कोई-न-कोई प्रकार से पुण्य कर्म करना चालू करो तो कोई-न-कोइ त्रिजट़ा आपकी सहारा बन जायेगी। और ऐसे समय में कोई-न-कोई सहारे की आवश्यकता है क्योंकि बाबा से योग कम होता है तो कम-से-कम अजपाजाप फिर शुरू कर दिया सीता ने भी। योग आरम्भ कर दिया, लेकिन योग भी कई बार वियोग का रूप ले लेती थी। माना उसमें दु:खी हेाने का अहसास। कई बार कई लोग योग लगाते है लेकिन योग में दु:ख या शिकायत अनुभव करते है। परेशानी को महसूस करते है। लेकिन कोई-न-कोई त्रिजट़ा समझो साथ में हो जाये उसके बाद राम ढुंढ़ते हुए कहाँ जाते है? जैसे ही जंगल में आगे बढ़ते है, तो उस तक वो आभूषण आदि पहुँचता है। माना हमारा दान किया हुआ बाबा तक भी ज़रूर पहुँचता है। पहुँचता ज़रूर है और इसीलिए पुण्य मिलता है। लेकिन वहाँ से जाते-जाते शबरी मिलती है। और शबरी माना — जिसने झुठे बेर इक्के कर के रख दिये, राम आयेेंगे तब खिलायेंगे, राम आयेंगे तब खिलायेंगे इतनी राम की याद में उसने झुठे बेर इके किये। है ना? $गरिब! बाबा भी $गरिब निवाज़ है। तो बाबा के बच्चे भी साधारण है। और इसलिए साधारण बाबा के बच्चे भी कुछ-न-कुछ इका करके बाबा के लिए, बाबा के पास जायेंगे तो वहा ज़रूर दे देंगे। तो बाबा के लिए इका कर-कर के रखते है, झुठे बेर भी इक_े करके रखते है। बाबा को ज़रूर देंगे, बाबा के यज्ञ में काम आयेंगा, बाबा को मिले। तो अन्दर से बाबा की लगन वाली आत्मायें और जैसे ही वो लगन वाली आत्माओं के सामने भगवान प्रकट होते है, कितनी खु्््शी उनको मिलती है और उनके एक-एक बेर को राम स्विकार करते है यानी जो ज्ञानी-तु-आत्मा है, साधारण आत्माओं का, $गरिब बाबा के बच्चों का, कभी अपमान नहीं करते। कभी अपमान नहीं करते। $गरिब बच्चों का जिसने अपनी…. कल की मुरली या परसों की मुरली में भी बाबा ने कहा था — गरिब का एक रूपीया, साहूकार का पाँच हजार, बराबर है। तो $गरिब का एक-एक रूपीया; वो $गरिब नहीं है, वो शबरी है। और इसीलिए उसके झुठे बेर भी ज्ञानी-तु-आत्मा को स्वीकार करना ज़रूरी है। और जब वो स्वीकार करते है यानी सम्मान देते है, उस आत्मा को भी, आत्मा रूप में सम्मान देना, के ये भी बाबा का बच्चा है। लेकिन राम ने तो स्वीकार किया, सम्मान दिया। लेकिन लक्ष्मन को गुस्सा आ रहा था अन्दर से। ये राम कहा बैठ गये, जा झुठे बेर खा रहे, अर्रे बेर ही खाना था तो मै जंगल से ले आता। मुझे कहते थे कम-से-कम अच्छे बेर ले आते। है ना? माता सीता को ढुंढऩे निकले और ये यहा टाइम वेस्ट कर रहा है। उसको गुस्सा आ रहा था। राम ने तो बेर स्वीकार किये, लक्ष्मण को कहा ले क्रबहुत मीठा हैञ्ज तु भी खा। लक्ष्मण को अन्दर से गुस्सा था तो क्या कर रहा था? लाता था, फेंक दिया; लाता था, फेंक दिया स्वीकार नहीं किया। कई बाबा के बच्चे भी उन $गरिब शबरियों का अपमान करते है। और जो अपमान करते है…. अपमान का फल भी रामायण के अन्दर दिखाया, के लक्ष्मण को मूर्छा आती है और जो जब मूर्छा आती है तो कौन-सी जड़ीबुटी काम आयी? वही झुठे बेर, झुठे बेर जो पेड़ बन करके निकले थे। पूरा पेड़ -का-पेड़ जैसे कि उसके लिए जड़ी-बुटी के रूप में काम में आया। तब वो मूर्छा से बाहर आया। इसलिए याद रखना कभी-भी कोई $गरिब बाबा के बच्चों का अपमान न हो जाये। क्योंकि अपमान हुआ तो मूर्छा ज़रूर आयेंगी। इतनी सुन्दर रामायण हमें बातें सिखाता है। हमारा ब्राह्मण जीवन है। जाने-अनजाने पण में भी हम ज्ञानी-तु-आत्मा का लक्षण यही होना चाहिए कि हर क्रआत्माञ्ज कोई साधारण हो, अमीर हो, साहूकार हो, कैसी भी आत्मा हो, लेकिन उसका अपमान हमसे नही होना चाहिए। उसका अपमान नहीं करो। है ना? उसकी, उसको ही इतना सम्मान दो। इसलिए श्री राम मो मूर्छा नहीं आयी। ज्ञानी-तु-आत्मा को मुच्र्छा कभी नहीं आयेंगी अगर सम्मान देंगे तो। लेकिन जहा अपमान किया वहा जीवन में मूर्छा ज़रूर आयेंगी, बेहोशी ज़रूर आयेंगी। वो नाग-पाश उसको ज़रूर डसेंगा। कई प्रकार के दुनिया के क्रनाग-पाशञ्ज हमें डसने का प्रयत्न करेंंगे। इसलिए ब्राह्मण जीवन सहज-सरल हो, तो उसके लिए हर आत्मा का सम्मान करों। क्योंकि कभी-कभी वो साधारण आत्मायें भी आगे के रास्ते दर्शाने के लिये निमित्त बन जाती है। और इसीलिए जब ज्ञानी-तु-आत्मा ने पूछा कि — अब आगे मुझे कहा जाना है? तो कहा कि ऋषीमुख पर्वत पर हनुमान आपका इन्तजार कर रहा है। आपका भक्त आपके इन्तजार में बैठा है। आगे के डायरेक्शन शायद कभी-कभी उनके मुख से भगवात ऐसी बात बुलवाते है जो बात हमारे लिए बहुत काम की हो जाती है। हमारे पुरुषार्थ के मार्ग में सरलता सहजता एक रियलायजेशन करा देती है। और इसीलिए ऐसी साधारण आत्मा का भी सम्मान करो। बाबा के जीवन कहानी में ये बात आती है के बाबा के सामने एक भीलनी होती थी, और भीलनी नहा-धोकर के स्वच्छ होकर के, बाबा के लिये कुछ-न-कुछ भोग बनाकर के लाती है। साकार बाबा के सामने। और बाबा ने स्वीकार किया था। और बाबा ने यही, कईयों ने बाबा को कहा कि बाबा — ये ‘भीलनी’ ले आई है, उसको आप कैसे स्वीकार करते है? बाबा ने कहा —उस बच्ची ने नहा धोकर के इतना स्वच्छ होकर के इतना प्यार से ये बनाया है, बाबा कैसे स्वीकार नहीं करेंगा? और तभी बाबा ये कहता है कि तो वो भीलनी जब भी एक रूपया बाबा मेरी भी ईंट लगा देना! उसी भीलनी का गायन है जो आज तक मुरली में आता है कि एक रूपया भी ईंट के लिए भेंज देती है और बाबा कहता है उसका एक रूपया साहूकार के पाँच हज़ार के बराबर हो जाता है। पाँच हजार क्या, कभी बाबा दस हज़ार कह देते है, कभी बाबा अन$िगनत कह देते है। इतनी बाबा ने व्यॅल्यु की। तो इसी तरह साधारण आत्मा का कभी भी हमें अपमान नहीं करना चाहिए। सम्मान ज़रूर करो और सम्मान करने के लिए आगे का रास्ता दिखाने के लिये कई बार वही निमित्त बनते। ऋषीमुख पर्वत पर जाते है और ऋषीमुख पर्वत पर जाने से ही वहाँ हनुमानजी मिलते है। हनुमान यानी महावीर। महावीर आत्मायें कहीं प्राप्त हो जाते है। महावीर कैसे होते है किसको महावीर कहते है? बाबा जिसने अभिमान और अनुमान का हनन किया है उसको कहा जाता है हनुमान। अभिमान और अनुमान अक्सर ब्राह्मणों में ये भी एक माया आती है। ज़रूर ऐसा होगा। अनुमान लगाने की ज़रूर ये ऐसी बात होंगी। तभी ये कहा। माना अनुमान अगर पनपने दिया तो हनुमान कभी नहीं बन सकते महावीर आत्मा नहीं बन सकते। तो जिसने अनुमान और अभिमान का हनन किया, वही हनुमान है। तो ऐसी महावीर आत्मा हमें बनना है। अभिमान रिंचक न हो तभी राम के यथार्थ रूप में मददगार बन सकते है। और कहा जाता है कि हनुमान अपनी स्मृति, विस्मृत हो गया था क्योंकि कितनी शक्ति और क्षमता है, तब सभी ने उसको स्मृति दिलाने का काम किया—अरे तेरे में तो अथाह शक्ति है। अनगिनत शक्ति है। तुम ऐसे हिम्मत नहीं हार सकते है। तुम्हें तो राम कैसे मददगार बनना है, असम्भव को सम्भव कर देना है। वो स्मृति स्वरूप जैसे हो गया वो स्वमान में स्थित हो गया, तो समुन्दर लाँघने का काम कर देता है। और जैसे ही समुन्द्र लाँघने जाता है तो फिर एक माया खड़ी हो जाती है। ब्राह्मण जीवन में फिर एक माया आती है? कौनसी? महावीर के सामने भी माया आती है कौनसी? ‘सुरसा और सिहिका’। समुद्र से निकल आई। भाई हमें ब्रह्माजी का वरदान है, और तुम्हें हमारे मुख से गुज़रना होगा, तो उस समय में हनुमान ने क्या किया? अपना रूप बहुत सुक्ष्म कर दिया। यानी बाबा जो कहते है ‘बालक सो मालिक’। कभी मालिक बन जाओ, कभी क्रबालकञ्ज। बालक बनकर छोटा हो जाओं, आज्ञाकारी बन चलो। महावीर के ये लक्षण बैलेन्स बहुत अच्छा है। और तब वो कब निकल आया पता ही नहीं चला। और उस माया के ऊपर विजय प्राप्त कर लिया। लेकिन लंका पहुँचा तो वहा लंकिनी थी। वहा छोटा रूप लेकर के जा रहा था तो कहा कि — अरे तु कहा जा रहा है? तो वहा बड़ा रूप कर दिया। और इतना बड़ा कर दिया वो उस लंकिनी को समाप्त। तो कहा बड़ा बनना है और कहा छोटा बनना है? ये बैलेन्स भी जीवन के अन्दर बहुत ज़रूरी है। और जैसे ही ये बैलेन्स रक्खा तब जाकर रावण के दरबार में पहुंच गया और पहुँचने के बाद! राव

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