कलम दिखता है वहां तक ही न रुके… लेकिन जो देखना है वहां तक बढ़ायें

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मीडियाकर्मी एक ऐसा प्रबुद्ध वर्ग है जो जि़न्दगी की दशा और दिशा तय करता है। हमारी रचना आम मनुष्य के लिए भोजन की तरह है। हमारे हर शब्द में एक वायब्रेशन है जो हरेक पाठक तक पहुंचता है। शब्दों के पीछे हमारा इंटेंशन, भाव भी उनके दिलों को छूता है। इसीलिए हम कैसा समाज चाहते हैं, समाज को हम कैसा देखना चाहते हैं, ये हमारी रचना पर निर्भर है। इसलिए रचना रचने वाला मानसिक व शारीरिक दोनों रूप से संतुलित व स्वस्थ होना ज़रूरी है। तभी हम समाज को वैसा ही बना पायेंगे।
पहले की पत्रकारिता जीवन से जुड़ी हुई पत्रकारिता थी। यानी कि जीवन ही प्रोफेशन था। किसने लिखा है, किसने कहा है, उस आधार से प्रोफेशन था। जैसे कि लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय, महात्मा गांधी, ये सब उसी का उदाहरण है। जैसे गांधी बोलते ही हम अहिंसा से जुड़ जाते हैं, मदर टेरेसा कहते ही हमें दया और करुणा याद आ जाती है और शिवाजी का नाम लेते ही शौर्य के वायब्रेशन आते हैं। माना कि उनका जीवन ही पर्याय था। कहने का भाव यह है कि प्रोफेशन में पर्सनालिटी की झलक दिखाई दी। और उससे आम मनुष्य को उसी तरह जीवन बनाने का जज़्बा पैदा होता था, हिम्मत पैदा होती थी। और वो भी वैसा ही करने लगता जैसे सकारात्मकता के बीज उसमें पड़ते।
आज समय की मांग है कि पर्सनालिटी ही प्रोफेशन बने। आज एक पत्रकार की जीवनचर्या को देखें तो वो सुबह से शाम तक दौड़ता-भागता, इन्फॉर्मेशन कलेक्ट करने में ही थक जाता है। परिणामस्वरूप रात देर तक अपने कार्य को निपटाने में ही उसका जीवन बीतता है। देर से सोना, देर से जगना, ये उनके जीवन का हिस्सा बन गया है। इसके चलते आज व्यवस्था भी वैसी ही बन गई है। बनाई भी तो हमने ही है ना! अगर हम उसको परिवर्तित करना चाहते हैं तो पहल भी हमें ही करनी होगी।
हम बात करना चाहते हैं कि सकारात्मक परिवर्तन के लिए सकारात्मक मीडिया होना ज़रूरी है। हम सोचते तो हैं कि सकारात्मक होना चाहिए लेकिन उसका आरंभ कौन और कैसे करे, ये भी प्रश्न हमारे सामने आता है। आज हम जबकि सारे समाज और देश को सोच व दिशा देने वाले हैं तो बीड़ा हमें ही उठाना पड़ेगा। हम कैसा समाज देखना चाहते हैं, इसपर हमारा फोकस हो। न कि जो दिखता है उसपर। हम सुबह से शाम तक जो दिखता है हमारे आस-पास, उसे ही हम प्रकाशित करते हैं। पर हम समाज को जैसा देखना चाहते हैं, उस तरफ हमारा ध्यान बहुत कम है। होना उल्टा चाहिए ना! सशक्त मीडियाकर्मी के लिए सबसे पहले मीडिया धारक को स्वयं को सशक्त होना पहली शर्त है। अगर हम पंद्रह, बीस, पचास साल पीछे के इतिहास के पन्नों को देखें तो हमारे पूर्वज सुबह जल्दी उठते थे और शाम को जल्दी सोते थे। और वहां शांति और सुख दोनों ही ज्य़ादा थे आज की तुलना में। किंतु आज हमारे पास साधन सुविधाएं तो बढ़ी लेकिन शांति छिन गई। दुनिया की दूरी तो कम हुई लेकिन दिल की दूरियां बढ़ गईं। इसे हमें ठीक करना है।
इसके लिए सबसे अच्छा समय ब्रह्ममुहूर्त को माना गया है। ब्रह्ममुहूर्त में सारी रुकावटें, सारे मन-मस्तिष्क शांत मुद्रा में होते हैं, न कोई कर्म की खींच है और न कोई शोर। ऐसे समय में हमारा ब्रह्माण्ड की ऊर्जा के साथ जुडऩा बहुत सहज होता है। हम उस परमस्रोत परमात्मा के साथ जुड़ते हैं और अपने को सकारात्मक ऊर्जा से भर लेते हैं। फिर इसका हम अपने प्रोफेशन में उपयोग व प्रयोग करें।
जिससे हमारी कलम से वो रचना होगी जैसे हम समाज को बनाना चाहते हैं, देखना चाहते हैं। हम सब चाहते हैं कि समाज में खुशहाली हो, हर चेहरे पर मुस्कान हो, उसके लिए सकारात्मक ऊर्जा हर शब्द में हो। और वो वायब्रेशन हमारी हर एक रचना से आनी चाहिए। तभी तो हम सुस्वस्थ और श्रेष्ठ समाज का निर्माण कर सकेंगे और आने वाली पीढ़ी को एक सही दिशा देने में कामयाब होंगे।

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