इधर-उधर की बातों से अपने को बचायें

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रामायण के पात्र की आध्यात्मिकता को समझने की ज़रूरत है। जो भी पात्र हैं वो हमारे जीवन में आने वाली चुनौतियों व समस्याओं के रूपक हैं। यदि हम परचिन्तन, परदर्शन या इधर-उधर की बातों को ग्रहण करते हैं तो मानों कि ये मंथरा रूपी माया के वशीभूत हो गये। हमें ऐसी परिस्थितियों से खुद को बचाना है। 

जैसा कि इस लेख में शुरू से ही रामायण के किरदार कहें, या पार्टधारी उनके बारे में हम मार्मिक अर्थ से जान रहे हैं। अभी पिछले ही अंक में हमने जाना दशरथ के चार बेटे और संगमयुगी ब्राह्मण के चार बेटे के बारे में। तो अब हम इससे आगे बढ़ते हैं- ये ब्राह्मण जीवन जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, फिर तीसरी माया आती है ”मंथरा’। ब्राह्मण जीवन में चलते-चलते, हर कोई ये महसूस ज़रूर करता है। जैसा कि बाबा ने एक अव्यक्त मुरली में कहा कि उस ”घड़ी” को याद करो जिस दिन आप ज्ञान में आए, जिस घड़ी में आप ने ज्ञान को वरण किया अपने जीवन के अन्दर, वह ”घड़ी” कौन-सी थी? तो बाबा ने बहुत सुन्दर ये शब्द यूज़ किया, वो घड़ी बृहस्पति की दशा की घड़ी थी। जिस समय बृहस्पति का आशीर्वाद आपके ऊपर आया, उसकी छत्रछाया में आप आये, तो वो घड़ी कितनी श्रेष्ठ, कितनी महान् थी। इसीलिए उस घड़ी में, क्या से क्या बन गये। तो इसी तरह जैसे ही आज भी अगर याद करते हैं कि जिस दिन हम ज्ञान में आये थे, तो कितनी सुन्दर घड़ी थी। लेकिन चलते-चलते आज अगर पूछा जाये तो क्या हो गये? उमंग-उत्साह वही है, बढ़ा या कम हो गया? कम हुआ। क्यों कम हुआ? क्योंकि मंथरा आने लगी। और मंथरा माना क्या? परचिंतन, परदर्शन, परमत के प्रभाव में आये। तो जो बाबा कहते हैं — ”परचिन्तन पतन की जड़ है। और इसीलिए ब्राह्मण ही आपस में — सुना क्या हुआ? मधुबन में जाने के बाद भी ऐसा हुआ! अरे हमसे पुराना! हमसे सीनियर! टीचर है फिर भी ऐसा! इन बातों में कितना ” टेस्ट ”(मज़ा) आता है! ये संसार-समाचार सुनने में कितना आनंद आता है! तो ये मंथरा के परवश हुए कि नहीं हुए?
ब्राह्मण जीवन के लिए कहा जाता है कि ‘अप्राप्त नहीं कोई वस्तु ब्राह्मणों के खज़ाने में’। इतना बाबा अखुट देता है। लेकिन जब मंथरा के परवश होने लगते हैं, परचिन्तन, परदर्शन, परमत के प्रभाव में आने लगते हैं तो सारा नशा…. क्या होने लगा? सोडा वाटर होने लगा कि नहीं हुआ? तो इसीलिए वो खुशी नहीं है। जो खुशी पहले दिन की थी। जब ‘कैकेयी’ भी इस माया के परवश हुई, तो कहाँ पहुँच गई? ‘कोप भवन’ में पहुँच गई। ‘कोप भवन’ माना दु:खी, परेशान। दु:खी और परेशान हो गये कि बस मुझे चाहिए। ये चाहिए, माना कहीं-न-कहीं अप्राप्ति जो महसूस किया, उस अप्राप्ति की डिमांड शुरू हो गई। एकदम बाल-वाल सब बिखेर दिये, गहने सब उतार दिये। आत्मा इतनी कमज़ोर हो गयी, दशरथ इतना कमज़ोर हो गया कि उसका पिछले कर्मों का हिसाब सामने आ गया।
पिछले कर्मों का हिसाब हमारे सामने तब आयेगा जब हम परचिन्तन, परदर्शन, परमत के प्रभाव में आते हैं। दशरथ का भी पिछला कर्म कौन-सा था? श्रवण कुमार के प्राण जब गलती से भी लिये गये, एक ‘पाप कर्म’ जो हुआ; वो ‘पाप कर्म’ यानी उनके माता-पिता से जो श्राप मिला था, जब तक वो पॉवरफुल स्थिति में था, ‘ज्ञान-योग-धारणा-सेवा’ चारों ही सब्जेक्ट बैलेंस रूप में थे, तब तक पिछला कर्म उसके सामने नहीं आ सका। लेकिन जैसे ही आत्मा कमज़ोर हुई परचिन्तन के कारण, तो पिछला कर्म सामने खड़ा हो गया। अब हिसाब चुकाने में प्राण चले गये। कई बार ब्राह्मण जीवन से भी मर जाते हैं। वापस दुनिया में चले जाते हैं। इसीलिए बाबा हम बच्चों को इन दो बातों से सावधान रहने के लिए कहते हैं- पहली बात, बच्चे ‘झरमुई-झगमुई’ में मत जाओ। कितनी बार साकार मुरली में ये बात आती है – ‘झरमुई-झगमुई’ नहीं करो। ये धुतीपना नहीं करो। और दूसरा ‘परचिन्तन-परदर्शन-परमत’ के प्रभाव में नहीं आओ, पर-उपकारी बन जाओ। ज्ञान में इस माया को जीतना है तो पर उपकारी बन जाओ। लेकिन जो नहीं जीत पाया, ऐसे समय पर पर उपकारी नहीं बन सके, वो कमज़ोर हो गये और चले गये। उसके बाद जैसे ही चलते रहे ज्ञान में तो वन में चले गये। यानी एक प्रकार का वैराग भी आता है।
जो ज्ञान में चले, परदर्शन के मत में आए, परचिन्तन के प्रभाव में आये, परमत के प्रभाव में आए, तो फिर वो थोड़े समय के लिए टेम्पररी(अल्पकालिक) जंगल में चले जाते हैं। ज्ञान, धारणा और हमारी पवित्रता जैसे ढ़ीली हो जाती है। फिर जंगल में चौथी माया आई। कौन-सी माया आई? ‘शूर्पणखा’ आती है। शूर्पणखा माना कौन? दैहिक आकर्षण। सुपर्नखा इतना अपना दिव्य स्वरूप लेकर के आई, प्रभावित करने का प्रयत्न करने के लिए, किसको? ज्ञानी-तू-आत्मा को। इसीलिए बाबा कहते हैं देह सहित देह के सर्व सम्बन्ध भूल, दैहिक आकर्षण से अपनी बुद्धि को ऊपर उठाओ।

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