जीवन में अति आवश्यक हैं ये दो गुण

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अपकारी पर भी उपकार की भावना बनाए रखना, निन्दक को भी स्नेह देना, शत्रु को भी गले लगाने की बात बाबा ने कही है। दूसरों की बुराइयों को न देख, उन द्वारा बुरा व्यवहार होने पर भी उन्हें क्षमा करने, उनके अवगुणों को चित्त पर न धरने, अपनी अवस्था को न्यारा और प्यारा बनाए रखने और सबको प्यार से अपना बनाने की बात भी बाबा ने समझाई हुई है।

जब किन्हीं दो व्यक्तियों में संघर्ष होता है तो उसका मूल कारण प्राय: दोनों में किसी ना किसी दिव्य गुण का अभाव होता है। परन्तु कई बार ऐसा भी होता है कि एक व्यक्ति में अधिक दिव्य गुणों का अभाव होता है और दूसरे में प्रथम की तुलना में केवल एक-आध दिव्य गुण का अभाव होता है। जैसे मान लीजिए कि एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से ईर्ष्या रखता है, दूसरे को मान मिलते हुए देखकर उसके मन में डाह(ईर्ष्या) उत्पन्न होता है। ईष्र्या से द्वेष, घृणा, कटुता, आक्रोश आदि उत्पन्न हो जाते हैं और इन सबका परिणाम यह होता है कि वह व्यक्ति उस दूसरे व्यक्ति से तेज-तर्रार शब्दों में बोलता है, उसकी हर बात से असहमति प्रगट करता है, उससे रुष्ट रहता है, उसे नीचा दिखाने की कोशिश में लगा रहता है और उसकी अगर थोड़ी भी कमी हो तो दूसरों को बढ़ा-चढ़ाकर उसके विषय में बताता है ताकि लोग जो उसका सम्मान करते हैं वो न किया करें। इस प्रकार स्नेह अथवा शुभभावना-शुभकामना रूपी दिव्य गुणों के अभाव के कारण इतने सारे आसुरी लक्षण पैदा हो जाते हैं और उन सबसे संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
दूसरे व्यक्ति में ईर्ष्या, द्वेष, आक्रोश आदि नहीं होते। वह प्रथम व्यक्ति के ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, आक्रोश, दुर्व्यवहार आदि को बर्दाश्त करता चला जाता है। वह गम्भीरता और सहनशीलता नामक दिव्य गुणों को व्यवहार में लाता है। चुप रहकर बात को पी जाता है। वह अपमान, दुव्र्यवहार इत्यादि की परवाह न करते हुए प्रभु भरोसे से चला चलता है। इस आशा से कि थोड़े समय में बुराई का अन्त हो जायेगा और सच्चाई तथा भलाई सामने आ जाएगी, वो मर्यादापूर्वक अपने व्यवहार को ठीक बनाए रखने की कोशिश करता है। परन्तु जब कई वर्षों तक ऐसी परिस्थिति बनी रहती है और न ही कोई आशा बंधाता है और न ही प्रथम व्यक्ति के अपने परिवर्तन के कोई चिन्ह दिखाई पड़ते हैं, बल्कि दिनोंदिन उसकी ईर्ष्या, महत्वाकांक्षा और उसके व्यवहार में अभद्रता बढ़ती ही जाती है, तब फिर दूसरे व्यक्ति को विचार आता है कि वो कब तक प्रथम व्यक्ति के अमानवीय व्यवहार को सहन करता जायेगा?
स्पष्ट है कि इस उपरोक्त उदाहरण में प्रथम व्यक्ति में अधिक दिव्य गुणों का अभाव है परन्तु दूसरे व्यक्ति के बारे में भी यह कहा जा सकता है कि यद्यपि वो सहन करता आया है परन्तु अब तो परिस्थिति उसकी सहनशीलता को पछाड़ रही है, अर्थात् अब तो उसके सहनशीलता रूपी दिव्य गुण में सीमा अथवा हद आने लगी है। इसे यदि ‘दिव्य गुण'(सहनशीलता) का अभाव न भी कहा जाए तो भी इसे सहनशीलता की महानतम पराकाष्ठा तो नहीं कहेंगे। इस प्रकार विश्लेषण से स्पष्ट है कि संघर्ष की सभी परिस्थितियों में धीरज और सहनशीलता की आवश्यकता होती है। इन दो दिव्य गुणों की हरेक की अपनी सीमा होने के कारण एक समय ऐसा आ पहुंचता है जबकि परिस्थिति विस्फोटक बिन्दु तक पहुँच जाती है।
संघर्ष की ऐसी स्थिति में क्या किया जाये? शिवबाबा ने तो यही शिक्षा दी है कि हमारी सहनशीलता और धीरज असीम होना चाहिए। हमारी योग की स्थिति एक तो उतनी श्रेष्ठ हो कि हम एक-दूसरे के विकराल दुव्र्यवहार को अपने ही पूर्व कर्मों का हिसाब-किताब मानते हुए उसे वर्षों तक भी सहन करते चले जाएं और अपनी योग की अव्यक्त अवस्था द्वारा हर्ष और उल्लास में बने रहें। शिवबाबा ने इसके लिए हमें अनेक अनमोल विधियाँ अथवा युक्तियां भी बतायी हैं। अपकारी पर भी उपकार की भावना बनाए रखना, निन्दक को भी स्नेह देना, शत्रु को भी गले लगाने की बात बाबा ने कही है। दूसरों की बुराइयों को न देख, उन द्वारा बुरा व्यवहार होने पर भी उन्हें क्षमा करने, उनके अवगुणों को चित्त पर न धरने, अपनी अवस्था को न्यारा और प्यारा बनाए रखने और सबको प्यार से अपना बनाने की बात भी बाबा ने समझाई हुई है।
अत: हर एक योगाभ्यासी अथवा श्रेष्ठ पुरुषार्थी का पहला कत्र्तव्य तो यह है कि वह इन अनमोल शिक्षाओं के अनुरूप अपना जीवन बनाते हुए अपने संघर्षों को समाप्त करने का यत्न करे। यदि इससे भी स्थिति में सुधार नहीं होता तो वह उस व्यक्ति से खुले मन से बात कर ले कि वो उससे क्यों रुष्ट है अथवा उसका क्यों विरोध करता है और उसके प्रति अपनी शुभभावना व्यक्त करे। परन्तु यदि वर्षों तक सज्जनतापूर्वक व्यवहार करने, गम्भीर रहने, सहन करते रहने और मन में क्षमाभाव बनाए रखने तथा उपरोक्त रीति से बात कर लेने के बावजूद भी परिस्थिति का हल होते दिखाई नहीं देता और ऐसा लगता है कि अपनी सहनशीलता और धैर्यता अपनी सीमा को पहुंच गए हैं, तो फिर ये तो किसी वरिष्ठ, योगयुक्त, दिव्यगुण सम्पन्न, मधुर भाषी, माननीय व्यक्ति के द्वारा परिस्थिति को सुधारने में सहयोग लेना चाहिए।

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