हम सभी इस दुनिया में क्या चाहते हैं? कौन-सी ऐसी चीज़ है जो हम सबको एक सूत्र में बांध सकती है? वो है नि:स्वार्थ प्रेम। इस संसार की एक गतिविधि के रूप में ये चीज़ शामिल है और होनी भी चाहिए। और चलो गतिविधि भी नहीं है तो सबके ज़हन में एक बात है कि हमें अगर सच में सबको एकसूत्र में बांधना है तो उसके लिए सिर्फ एक नि:स्वार्थ प्रेम ही काम आ सकता है। अब हम सभी इस दुनिया को जिसमें हम रह रहे हैं और एक ऐसी दुनिया जिसमें हमको चलना है, जिसकी तैयारी हम सभी इतने सालों से कर रहे हैं। दोनों को अगर साक्षी होकर देखो तो सतयुग की जो परिभाषा है- जहाँ पर एक राज्य, एक भाषा, एक कुल, एक मत सबकुछ एक जैसा हो। वहीं आजकल कलियुग में जहाँ पर हम अभी हैं, छोटी-छोटी जो इकाइयां हैं, चाहे वो परिवार है, समुदाय है, समाज है, हर जगह हर एक छोटी बात में कोई न कोई ऐसी बात है जो एक-दूसरे से अलग है। सबका जाति, धर्म, भेद, रंग, भाषा सारा कुछ। आप अगर ध्यान से देखेंगे तो कितना अलग है।
कौन-सी चीज़ जो सबसे ज्य़ादा इसमें गायब है- वो है नि:स्वार्थ प्रेम। तो जो मेडिटेशन सिखाया जाता है, जो योग सिखाया जाता है परमात्मा की तरफ से, शिव बाबा ने हम सभी आत्माओं को एक जैसा, एक जैसी सोच के साथ जीना सिखाया। अब आत्मा के जो सातों गुण हैं, उन सातों गुणों को बड़े ध्यान से आप सुनेंगे तो उसमें आता है कि आपके अन्दर इस चीज़ के लिए समझ चाहिए। मतलब ज्ञान चाहिए। तो ज्ञान का भाव सिर्फ ये है कि आपको ये ज्ञान चाहिए कि हम सबका सबकुछ आर्टिफिशियल हो गया। माना सबकुछ बनावटी हो गया। प्रेम या पवित्रता जोकि नाममात्र हमारे अंदर है। उस चीज़ को बढ़ाने के लिए परमात्मा ने कहा कि यदि तुम अपने आप को पवित्र मानते हो, या पवित्र हो तो आपके अन्दर सबसे ज्य़ादा प्रेम पनपेगा।
उदाहरण के रूप में, छोटे बच्चे का है कि बच्चा इतना पवित्र होता है आज के समय में भी उसको देखकर नैचुरल नि:स्वार्थ प्रेम जागता है। तो हमसे नि:स्वार्थ प्रेम तब जागेगा जब हम उस पवित्रता को अपनायेंगे, जिसमें मेरापन नहीं है। जिसमें मैंपन भी नहीं है। मतलब ना उसको शरीर का भान है, ना उसको किसी जाति, धर्म, भाषा, भेद का ज्ञान है। ये दोनों ज्ञान की अनभिज्ञता, इन दोनों ज्ञान से बिल्कुल अपने को अलग मानने वाला नि:स्वार्थ प्रेम को पैदा करता है। तो वो वाली जो स्थिति है वो सतयुग में होगी, लेकिन वो वहाँ होगी, यहाँ हमको क्रियेट करनी होगी। रचना करनी होगी। उसको फिर से जमाना होगा, बनाना होगा। तब जाकर हम अपने आपको उस अवस्था तक ले जा पायेंगे। तो उसके लिए ही रोज़ यहाँ पर हम सबको खुद को क्योंकि आज जो हम सबके अन्दर की स्थिति है, वो थोड़ी-सी बदली हुई है। उसमें अध्यात्म को अपनाने के बावजूद भी उस पर्टिक्यूलर, उस विशेष चीज़ को हम अहमियत कम दे रहे हैं। मतलब ज्ञान-योग का पहला सार है स्वयं से प्यार, परिवार से प्यार और पूरे विश्व को एक जैसा देखने का भाव। ये चीज़ अगर हमारे अन्दर आनी शुरू हो जायेगी तो निश्चित रूप से हम यहीं सतयुग की फीलिंग में रहने लग जायेंगे।
हम सबको अपना-अपना सतयुग बनाना है। अपना-अपना अर्थ है कि हमारे आस-पास जो भी घर के चार सदस्य हैं, परिवार के चार सदस्य हैं उन सबके लिए भी क्या हमारे भाव एक जैसे हैं? चेक करने की आवश्यकता है। हम सभी आस-पास के जितने भी भाई-बहनें रहते हैं उन सबके लिए भी हमारे कैसे भाव हैं, चेक करें। इस तरह से आप पायेंगे कि आपका अपना निजी जो अनुभव होगा वो आपको उस सतयुग की जो कमी है उसको फील कराने में मदद करेगा कि जब मैं ही इन चार जनों के लिए नि:स्वार्थ प्रेम को पैदा नहीं कर पा रहा, अपने ऑफिस के लोगों के लिए नि:स्वार्थ प्रेम पैदा नहीं कर पा रहा, तो मैं सतयुग में कैसे जाऊंगा! या सतयुग की उस फीलिंग को, क्योंकि सतयुग में सिर्फ जाना ही नहीं है, वहाँ पर रहना भी है, इतने समय को बिताना भी है।
तो जितना समय हम यहाँ बितायेंगे, उस भाव में उतना समय हम वहाँ बितायेंगे। तो आजकल हम सबको इसपर बहुत काम करने की आवश्यकता है कि हम सभी प्रेम से भरे हुए हैं, थे और रहेंगे, लेकिन बस जागृति की कमी, अवेअरनेस की कमी, हमको इससे दूर करती जा रही है। तो क्यों न इस चीज़ को अपने जीवन का एक हिस्सा बना के सतयुग में जाने की तैयारी को यहीं पर अंजाम दें! जैसे ही आगाज़ बहुत सुन्दर होना शुरू होगा, तो निश्चित रूप से अज़ाम भी बहुत सुन्दर ही होगा। तो इस तरह से हम अपने आपको उस भाव में ले जायें और यहीं पर सतयुग बनाकर दिखायें।