ऋषि और राजऋषि के बीच की स्थिति

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मान्यता है कि जब एक समय में व्यक्ति अपने आसपास के वातावरण से तंग होता है, तो वो सबकुछ छोडऩा चाहता है। और एक पहला ऐसा भी समय होता है जिसमें उसे सबकुछ चाहिए। व्यक्ति को हर पल एक चीज़ की तलाश है, वो है सुख, केवल सुख। व्यक्ति सुख से ही बना है, क्योंकि जो उपरोक्त दोनों चीज़ें हैं उसमें पकडऩा और छोडऩा, दोनों उसके सुख की ही निशानी है। एक समय में उसको सबकुछ चाहिए, एक समय में उसको कुछ नहीं चाहिए। और इस सुख की तलाश में ऋषि-मुनियों ने घर को त्यागा, तपस्वी बने लेकिन तपस्वी बनना सुख की निशानी ही है। परमात्मा निराकार शिव ब्रह्माकुमारीज़ में हम सबको इसी बात के लिए रोज़-रोज़ ज़ोर देते हैं कि आप सभी घर-गृहस्थ में रहते हुए, सारे कार्य करते हुए, सभी को सम्भालते हुए ऋषियों का जीवन जियो। शिव परमात्मा हमें सिखाते कि आप राजऋषि हो। राजऋषि का अर्थ बताते कि जो राजा भी हो और ऋषि भी हो। कार्य करते हुए अपनी इंद्रियों पर राज्य करना और ऋषि बनकर निरंतर परमात्मा की याद में खुद को रखना।
परमात्मा का ये कहना सत्य इसलिए भी है कि जिस चीज़ से हम भाग रहे हैं वो तो स्थूल चीज़ें हैं, जो हमको परेशान नहीं कर रही हैं, लेकिन उनको सम्भालने का, उनको देखने का, उनका ध्यान रखने का विचार हमको तंग कर रहा है। क्योंकि जंगल में कोई गैरंटी तो ऐसी दी नहीं गई है कि वहां पर हमको कोई तंग नहीं करेगा, वहां पर भी मक्खी-मच्छर होंगे, और भी जीव-जंतु हो सकते हैं। तो क्या आप वहां पर इन विचारों से खौफ नहीं खायेंगे! बल्कि घर में रहना, जिनके बीच में हम सालों से रह रहे थे, और ज्य़ादातर हम सबके संस्कारों को समझ भी गये थे, उनके साथ जीना क्या मुश्किल है! क्योंकि तपस्या उसे ही कहा जाता है, जिसमें व्यक्ति परिस्थितियों के बीच में रहे भी और उसपर उसका प्रभाव भी न पड़े। इसका बहुत सुंदर एक तरीका शिव बाबा हमको समझाते हैं कि आप सबके संस्कारों से बेपरवाह बनो। लेकिन कार्य के प्रति अलर्ट। माना कभी भी लापरवाह नहीं बनो। जैसे आपको पता है कि सुबह से लेकर शाम तक ये कार्य मैं अगर नहीं करूंगा या फिर छोड़ दूंगा तो ये ऐसे ही रह जायेगा। और ज्य़ादातर घर में, गृहस्थ में डिस्टर्ब होने का मात्र एक कारण है कि ‘मैं ही करूं’! अब आप नहीं करेंगे, कोई बात नहीं। लेकिन आप ये सोचें कि उस समय जो आपके व्यर्थ संकल्प चलेंगे उसका प्रभाव आपके ऊपर ही तो पड़ेगा। तो वो कार्य आप जल्दी से करके अन्य कार्यों में लगकर अपना समय और संकल्प दोनों बचा सकते हैं। तपस्या इसे ही कहा जाता है।
कोई व्यक्ति बाधा नहीं है लेकिन व्यक्ति के साथ जो हमारा सम्बंध है वो हमारे अंदर बाधा उत्पन्न करता है। मेरे को ही सब करना है, ऐसा सोच-सोच कर हम भारी हुए रहते हैं। कई बार हो सकता है कि जो बातें हमने बोलीं वो आपको फिट नहीं लग रही हों, लेकिन आप ही बताओ कि इसका कोई और उपाय है? फिर भी आप सोचते ही रहेंगे। बुद्धिमानी ये है कि मुझे अपने संकल्पों को बचाना है। क्योंकि आप जिसके साथ रह रहे हैं उसे आप छोड़ नहीं सकते, इस अर्थ में कि कोई बहुत अज़ीज़ है उसको हम कैसे छोड़ेंगे! तो इस अवस्था में हमको क्या करना चाहिए? जितना हो सकता है उतना करें और अपने संकल्पों को बचायें। इसका भक्ति में दिखाया है कि लोग परेशान हुए और घर छोड़कर चले गये। लेकिन हम लोगों के संस्कारों की परवाह न करते हुए जो शिव बाबा की श्रीमत है उस अनुसार घर का वातावरण बनाने के लिए कार्य करें और धीरे-धीरे हो सकता है कि उनके संस्कारों में भी वो बदलाव आये जैसा हम चाहते हैं। इसलिए तपस्या राजऋषि ही कर सकता है, जो अपनी इंद्रियों का राजा है, जिसके पास ये बुद्धिमानी है कि मुझे कार्य करके निकल जाना है। उदाहरण के लिए यदि आपके घर में कोई बच्चा कितने भी कड़े संस्कार वाला है, फिर भी आप उसको सम्भालते हुए कार्य करते हैं ना! उसी प्रकार हम ये मानकर चलें कि चाहे कोई बड़ी उम्र का है चाहे छोटी उम्र का है लेकिन उसकी स्थिति एक बच्चे जैसी ही है। उनके संस्कार अलग-अलग हैं। किसी का भाव-स्वभाव आपके प्यार को खत्म नहीं करे। प्यार अर्थात् शुभभावना ज़रूर हो। क्योंकि अगर परिवार में प्यार नहीं तो परिवार नहीं। इसलिए तपस्वी, राजऋषि बनने का सबसे सहज और आसान तरीका, संकल्पों को व्यर्थ जाने से बचाना है, कार्य करके निकल जाना है, और अपने पास जितना समय हो उसे ज्ञान और योग में लगाना है, तब बनेंगे सच्चे राजऋषि।

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