मैं कहती विघ्न आना इस संसार का नियम है। विघ्नों को विनाश करना मुझ असंसारी का नियम है। संसार के नियम को खुद का नियम नहीं समझो।
हम सभी अलौकिक बाप के बच्चे दुनिया से निराले हैं। पारलौकिक और अलौकिक बापदादा हमें यही पाठ पढ़ाते – तुम भाई-भाई व भाई-बहन हो तो खुद को क्या समझते हो कि दुनिया में हम अलौकिक हैं? खुद का नशा हमें क्या रहता? लौकिक हैं या अलौकिक हैं? दुनिया से निराले हैं? जब हम निराले हैं तो दुनिया से कोई प्रीत है? आकर्षण है? दुनिया में ऐसा कोई भी बच्चा नहीं जो सोचे मैं बहुत बड़ी अथॉरिटी का बच्चा हूँ, हम तो वल्र्ड ऑलमाइटी अथॉरिटी के बच्चे हैं, बाबा ने हमें बहुत बड़ी अथॉरिटी दी है। कोई-कोई कहते हैं हमारी जीवन में यह-यह विघ्न आते हैं। मैं कहती यह दुनिया है ही विघ्नों की। दुनिया माना ही कदम-कदम में विघ्न। जहाँ चलो वहाँ विघ्न ही विघ्न हैं। है ही कांटों का जंगल तो जहाँ चलेंगे वहाँ कांटा ही लगेगा। कोई कहते यह बड़े सहयोगी हैं, भल सहयोगी हैं लेकिन बाबा को नहीं जानते। तो वह सहयोग देते भी कई रूप से विघ्न रूप बनते हैं। चाहे कोई ज्ञान के खिलाफ बोलेगा, कोई कहेगा मैं तुम्हारे उद्देश्य को नहीं मानता। तुम्हारी नीति को नहीं मानता। न मानना ही माना हमारे लिए कोई न कोई विघ्न है। चाहे अपने माँ-बाप हों, चाहे दोस्त हों, चाहे व्यवहार में कोई हो। सब विघ्न रूप बन जाते हैं। कहेंगे अगर तुम ज्ञान में चलोगे तो नौकरी नहीं देंगेे। तो विघ्न अनेक हैं। अगर मैं सोचती रहूं विघ्न आया – मैं क्या करूँ! कईयों के दिल में आता है कि क्या ज्ञान लिया और ही मुसीबत पाई। ज्ञान शान्ति के लिए लिया लेकिन और ही टक्कर खानी पड़ती, सांस ही नहीं लेने देते। अब इसका जवाब क्या है? मैं कहती विघ्न आना इस संसार का नियम है। विघ्नों को विनाश करना मुझ असंसारी का नियम है। संसार के नियम को खुद का नियम नहीं समझो। संसार की रीति है टक्कर देना, विघ्न डालना, ग्लानि करना, गाली देना, विरोध करना, वैरी बनना… लेकिन हमें संसार की रीति को, संसार के नियम को खुद का नियम नहीं समझना है। मैं तो असंसारी हूँ क्योंकि मैं अलौकिक की बच्ची हूँ, वह संसार से निराला है। ब्राह्मण कुल में भी कोई-कोई एक दो के लिए विघ्न रूप बन पड़ते हैं। अगर आज मेरी कोई महिमा करते तो कल गाली भी दे सकते। आगे बढ़ता देखेंगे तो ईष्र्या करेंगे, आगे नहीं बढ़ेंगे तो ग्लानि करेंगे, कहेंगे यह तो है ही जैसे बुद्धू। हसूँगी तो कहेंगे चंचल है, चुप रहूँगी तो कहेंगे बुद्धू है। अगर सेन्टर पर काम करूंगी तो कहेंगे सारा दिन सेन्टर ही याद आता, घरबार कुछ नहीं। अगर नहीं करूंगी तो कहेंगे यज्ञ स्नेही थोड़े ही है। अगर अपना तन-मन-धन सफल करेंगे तो कहेंगे कुछ तो फ्यूचर का भी सोचना चाहिए। अगर नहीं करेंगे तो कहेंगे मनहूस है। अगर ज्ञान के नशे में सब कुछ भूले हुए होंगे तो कहेंगे इतना नशा थोड़े ही होना चाहिए। अगर नशा नहीं तो कहेंगे इसको तो बाबा पर निश्चय ही नहीं है। दोनों तरफ मुश्किल ही मुश्किल है। सिन्धी में कहावत है… चक्की का पुर नीचे का उठाओ तो भी भारी, ऊपर का उठाओ तो भी भारी। नहीं उठायेंगे तो पीस जायेंगे। अगर सिम्पल रहते तो कहेंगे यह सन्यासी बन गया। अगर ठीक-ठाक रहो तो कहेंगे इसे वैराग्य ही नहीं आया। आखिर क्या करूँ! कभी बाबा भी मुरली में कहता क्या नौकरी टोकरी करनी है, अगर नहीं करते तो कोई पूछता नहीं। अगर सीरियस रहते तो कहेंगे यह तो बहुत सीरियस हैं, अगर हल्के होकर रहते तो कहेंगे मर्यादा सीखो। जीवन भी एक नईया है, इसको चलाना एक होशियार मांझी(खिवैया) का काम है। इसके लिए पहली बात हमेशा समझो – जितना रुस्तम बनेंगे उतना रावण रुस्तम बनेगा।