पहला पाठ ही स्मृति का आधार

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परमात्मा ने हम सभी को पहला पाठ पढ़ाया, वो क्या है, मैं कौन हूँ! ये तीन शब्द हमारे जीवन को बदल देते हैं। हमारी वृत्ति को बदल देते हैं, हमारी दृष्टि को बदल देते हैं और हमारी यादों को भी बदल देते हैं। वृत्ति का मतलब हमारा नज़रिया किस बात का कि सामने वाला जो है वो एक आत्मा है और उसके अंदर सात मूल गुण विद्यमान हैं, इसके अलावा कुछ भी नहीं। दृष्टि अर्थात् शारीरिक दृष्टि से आत्मिक दृष्टि। मतलब किसी को देख करके हमारे अंदर एक ही भाव उत्पन्न होता है चाहे वो मेल हो या फीमेल हो। क्योंकि जब हमारी दृष्टि दैहिक होती है तो काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार पैदा होता है लेकिन जब दृष्टि आत्मिक होती है तो सद्गुण ही दिखते हैं। हमारे आदि पिता प्रजापिता ब्रह्मा बाबा ने इन दोनों को शुरू से अभ्यास कर-कर के पक्का किया। और जब कर्म में भी आये तो आत्मिक दृष्टि-वृत्ति से ही आये। कहते हैं, जो जैसा होता है वो वैसा देखता है। तो ब्रह्मा बाबा ने उस कार्य को समझने हेतु अपने ऊपर प्रयोग किया। प्रयोग क्या किया, कि मैं कितनी देर तक अपने कार्य को आत्मा के भाव से कर रहा हूँ, दूसरे को देखकर मेरी दृष्टि-वृत्ति में क्या परिवर्तन आता है। मैं आत्मा इन पाँचों इंद्रियों की मालिक हूँ, क्या ये पाँचों इंद्रियां मेरे हिसाब से कार्य करती हैं? अगर करती हैं तो मैं मालिक हूँ, नहीं करती हैं तो मैं गुलाम हूँ। आज हम सभी भी अपने जीवन को देखेंगे तो पायेेंगे कि हम भी इन पाँचों इंद्रियों के वश हैं। आँख, कान, नाक, त्वचा और जिह्वा, ये पाँचों इंद्रियां हमसे दूसरे कर्म करवा देती है जिसमें विकार होता है। विकार माना जिसको करने के बाद आपको खुशी ज़रूर होगी लेकिन क्षणिक खुशी होगी, क्षणिक संतुष्टि मिलेगी क्योंकि वो शारीरिक भाव से किया गया कर्म है। लेकिन जब वही कार्य आत्मिक भाव से किया जाता है तो उस कर्म से जो खुशी होगी वो परमानेंट होगी। आप इसको घर में प्रयोग भी कर सकते हैं कि मेरी खुशी क्षणिक है या परमानेंट है। आज सारे विश्व में ये सबसे बड़ी समस्या है कि सब लोग कार्य तो कर रहे हैं, धन भी कमा रहे हैं, मेहनत भी कर रहे हैं लेकिन शरीर समझकर कर रहे हैं। किंतु शरीर नश्वर है, क्षणिक है, खत्म होने वाला है, इसलिए वो खुशी भी दो मिनट में चली जाती है। हर दिन वो इसका प्रयास कर रहे हैं फिर भी असंतुष्ट हैं क्योंकि विधि सही नहीं है। एक है हम सबको इसकी जानकारी मिल जाना कि हम शरीर नहीं एक आत्मा हैं, दूसरा है उसके अनुभव में जीना। अब ये दोनों क्या है इसको समझ लेते हैं। जैसे आपको पता है कि आप एक पिता हैं और जब आपका बच्चा आपको पापा कहता है तो वो जो खुशी होती है वो अलग होती है और उसी अनुभव के आधार से आप उससे बात करते हुए कहते हैं कि मैं आपका पापा हूँ ना! आप सबके पापा तो नहीं हैं, इसलिए जब तक आप बच्चे से मिलते नहीं हैं तब तक वो भाव उमड़ता नहीं है। ऐसे ही जब हम आत्मा समझकर जीते हैं, शरीर को एक वस्त्र समझते हैं तो उस फीलिंग से कार्य करने के बाद हम फल की चिंता नहीं करते। क्योंकि मैं खुशी के लिए या प्यार के लिए या किसी चीज़ के लिए कर्म नहीं कर रहा हूँ, मैं खुशी से कर रहा हूँ, के लिए नहीं कर रहा हूँ। जब मैं खुशी के लिए कर्म करता हूँ तो दु:खी हो जाता हूँ क्योंकि मैं शारीरिक भाव से कर्म कर रहा हूँ, किसी व्यक्ति के लिए कर्म कर रहा हूँ, उसका भाव भी शारीरिक है। मेरी बेटी है, मेरा बच्चा है। लेकिन जब आत्मिक भाव से कार्य होता है तो उसमें पहले से ही खुशी, शांति, प्रेम, पवित्रता भरी पड़ी है। तो मैं किसी से कहूं भी न, तो भी उस व्यक्ति को शांति मिलेगी, प्रेम मिलेगा, सुख मिलेगा। तो ये है आत्मिक भाव का गहरा अर्थ। इसी को सिर्फ और सिर्फ ब्रह्मा बाबा ने अभ्यास में लाया। निरंतर खुद को देखा, परखा, जाँचा कि मैं किसी फल में, किसी व्यक्ति में, किसी वस्तु में फंस तो नहीं रहा हूँ! मैं सबसे आत्मिक व्यवहार कर रहा हूँ या किसी के पद से, पोज़ीशन से, रुतबे से बात कर रहा हूँ! जब मैं आत्मिक व्यवहार करूंगा तो सामने वाले को मेरे से मिलने का, बैठने का, बात करने का मन करेगा। लेकिन जब मैं उसके कर्म से बात करूंगा तो हममें देहभान पैदा होगा। यही निरंतर अभ्यास करके ब्रह्मा बाबा अव्यक्त हुए, फरिश्ता बने। इसी को अपने जीवन का अंग बनाया। तो हम सब भी क्यों न ऐसा अभ्यास करके सबके दिलों पर राज करें, जैसा ब्रह्मा बाबा कर रहे हैं।

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