जब तक इस शरीर में आत्मा जीव-आत्मा के रूप में है, तब तक कर्म तो कुछ न कुछ, सूक्ष्म व स्थूल होगा ही। बिना कर्म के रह नहीं सकते। अब कर्म करते भी न्यारा रहना, उसके प्रभाव से अलिप्त रहना, ये कैसे संभव है! कर्म भी करना और उसके प्रभाव से मुक्त भी रहना, इसका तात्पर्य क्या है, ये हमें किसी ने न सिखाया न समझाया। परिणामस्वरूप हमारे कर्म होते गए और हम किसी न किसी व्यक्ति, वस्तु, पदार्थ व वातावरण के प्रभाव में आते गये, हम भारी होते गये, बोझिल होतेे गये। क्योंकि हमें ये पता ही नहीं कि इसके प्रभाव से मुक्त कैसे रहा जा सकता है। कर्म भी करें और मुक्त भी रहें? हमें इस प्रश्न का कहीं से उत्तर नहीं मिला। हमें परमात्मा ने बताया कि कर्म करो लेकिन बंधन न हो। बंधन बोझिल बनाता, भले सेवा अर्थ सम्बंध हो लेकिन बंधन न हो। इसको हम थोड़ा समझते हैं। एक साधु राजा जनक के पास आया और उनसे कहा कि आप कारोबार करते भी विदेही कैसे रहते हैं? राजा जनक ने उस साधु को एक जलता हुआ दीपक दिया जो घृत से भरा हुआ था और कहा कि आप इस दीपक को लेकर पूरे राजमहल का भ्रमण कर अवलोकन करके आइये, कोना-कोना देखकर आइये और फिर मुझे बताइये कि आपने क्या-क्या देखा। लेकिन साथ ही इस बात का ध्यान रहे कि कहीं दीपक बुझ न जाये और घृत गिर न जाये। साधु उस दीपक को लेकर राजमहल देखने निकला। वो जब वापस आया राजा जनक के पास, तो राजा ने पूछा, आपने महल देखा? तो साधू ने कहा, कहाँ! मैंने तो कुछ नहीं देखा, मेरा ध्यान तो इस दीपक पर ही रहा कि कहीं ये बुझ न जाये और घृत गिर न जाये। राजा जनक ने कहा, उत्तर मिल गया ना! ऐसे ही हम शरीर में रहें लेकिन कोई भी बाह्य आकर्षण, वस्तु, पदार्थ, व्यक्ति से मुक्त रहें, इसी को कहते हैं विदेही अवस्था। परमात्मा ने हमें बताया और हमें कहा, देह में रहते भी देहभान के बंधन से मुक्त रहना है। रहना तो देह में है, लेकिन भान से मुक्त, कॉन्शियस से मुक्त रहना है। जीवन जीना है लेकिन उसे बंधन के बोझ से मुक्त रखना, सम्बंध में रहना। सम्बंध हल्का करता है, बंधन वश करता है। सम्बंध से शुद्ध स्नेह का सहयोग मिलता है। क्योंकि वहां आत्मा का आत्मा के रूप से सम्बंध है, न कि देह से सम्बंधित सम्बंध। अगर देह के वश होते हैं, परवश होते हैं तो वो बंधन मुक्त नहीं रह सकते। यह हमें चेक करना है, कोई भी कर्म करें, वहां हमें ध्यान रखना है कि हम देह के बंधन में तो नहीं! परमात्मा ने हमें अलौकिक ब्राह्मण जन्म दिया। ब्राह्मण माना ही जीवनमुक्त। कर्म तो करेंगे लेकिन बंधन के बोझ से मुक्त रहेंगे। कर्मेन्द्रियों का आधार लेकर करावनहार की स्मृति से कर्मेन्द्रियों द्वारा होने वाले कर्म से मुक्त रहेंगे। तो कर्मेन्द्रियां हमें बंधन में नहीं बांधेगी लेकिन हम ट्रस्टीपन के भाव से उससे कार्य करेंगे। हम परमात्मा की शिक्षाओं से कर्मबंधन मुक्त बनने की प्रैक्टिस करने वाले हैं क्योंकि हमें अभी बंधन में नहीं बंधना है। हमें अभी वापस जाना है। उसके लिए परमात्मा ने हमें एक बहुत सुंदर युक्ति बताई कि सर्व सम्बंध मुझ एक परमात्मा से जोड़ो। उसको अलग शब्द में भी बाबा ने कहा कि क्रमैंञ्ज और क्रमेराञ्ज एक शिव बाबा। क्योंकि मेरे-मेरे के बंधन बहुत हैं यहां। मेरा शरीर, मेरा कारोबार, मेरी वस्तु, ये मेरा-मेरा के बंधन से मुक्त होने के लिए मेरा तो एक शिव बाबा। सर्व अनेक मेरे-मेरे से छूटकर एक के साथ जुडऩा इज़ी है ना। बस यही ध्यान हर क्षण रखने की प्रैक्टिस करें, अटेंशन रखें तो हमें सहज ही बंधन मुक्त रहने की आदत पक्की होती जाएगी और हम बोझ से मुक्त रह सकेंगे। ऐसा नहीं कि मुक्ति और जीवनमुक्ति की अवस्था सतयुग में होगी। नहीं, यहीं ब्राह्मण जीवन में ये अनुभव करना है, अभ्यास करना है और अपने को हल्का रखना है।