कलियुग के अन्त में भगवान जब इस धरा पर आते हैं तो वे परमपिता के साथ परम शिक्षक और परम सद्गुरू बनकर अपने दिव्य कार्य करते हैं। क्योंकि उन्हें युग बदलना है, संसार बदलना है और संसार में स्त्री-पुरूष, बच्चे सब होते हैं। तो वे ऐसा मार्ग दिखाते हैं कि घर ग्रहस्थ में रहते हुए सभी पावन बन सकें। देवत्व को प्राप्त कर सकें। देखिए भारत में सन्यास की स्थापना हुई थी और सन्यास में पवित्रता का, ब्रह्मचर्य का बहुत बड़ा महत्त्व था। इसीलिए लोग घर छोड़कर जंगलों में जाते थे, गुफाओं में बैठकर तपस्या भी करते थे। उनकी तपस्या से उनकी प्युरिटी बहुत ही स्ट्रॉन्ग हो जाती थी। नैचुरल हो जाती थी। कर्मेन्द्रियां शीतल हो जाती थी। धीरे-धीरे सन्यासियों की भी तपस्या छुटी। विद्वता बढ़ी, शिष्य बढ़ाने की प्रथा बढ़ी। और बहुत सारे लोग उनमें उलझ कर रह गये। साधनायें, तपस्या वो पीछे छूट गई। तो प्युरिटी भी कमज़ोर पड़ती गई। हम देखते आये हैं इस बात को। ऐसे समय पर जब श्रेष्ठ धर्म की, सन्यास की, प्युरिटी कमज़ोर पड़ जाती है तब स्वयं भगवान आकर पवित्रता का मार्ग दिखाते हैं। और वो कहते हैं घर ग्रहस्थ में रहते हुए तुम पवित्र बनो। देखिए सन्यासियों के लिए ये बात शायद इम्पॉसिबल हो। पूछते भी थे हमसे लोग और अभी भी पूछते हैं कि हम सन्यास लेकर जंगल में रहकर भी प्युरिटी को कठिन समझते हैं और ये लोग घर ग्रहस्थ में रहते पवित्र कैसे रह सकते होंगे! बात तो उनकी बिल्कुल ठीक है। किसी ने कह दिया कि आग और कपास इक_ा रहेंगे तो आग तो लगेगी कपास को। लेकिन जब मनुष्य को श्रेष्ठ ज्ञान मिल जाता है, जब उसे पवित्र बनने की विधि का पता चल जाता है तो सबकुछ ठीक हो जाता है। एक समय था कैंसर का इलाज नहीं था, बहुत सारी बीमारियां हुई जो लाइलाज थी, इलाज निकल गये, लोग ठीक होने लगे। पवित्रता का मार्ग शिव बाबा ने स्वयं दिखाया और कहा तुम सभी आत्मायें हो। लेकिन लोगों ने एक बात फैला दी थी, अति कर दी थी ग्रहस्थ जीवन के लिए कि ग्रहस्थ जीवन तो है ही विषय-विकारों के लिए। स्त्री-पुरूष का नाता इसी काम के लिए तो है। लेकिन शुरू में आचार्यों ने विषय-विकारों को केवल संतान उत्पत्ति तक ही सीमित रखा था। अब इसका विकृत रूप हो गया। इससे तन, मन बुद्धि की शक्तियां नष्ट हो गई और मनुष्य तमोप्रधान स्थिति में आ गया। उसके सारे सद्गुण चले गए, मन-बुद्धि कमज़ोर हो गई। समस्यायें बढ़ गई, उलझ गया मनुष्य। आज ग्रहस्थ आश्रम नहीं रहा, ग्रहस्थ जंजाल बन गया। आश्रम अलग, ग्रहस्थ अलग। हमें ग्रहस्थ को आश्रम बनाना है। तो पवित्र बनने का संकल्प करना है। ब्रह्माकुमारीज़ के पास आने वाले लाखों ग्रहस्थ पवित्र जीवन व्यतीत कर रहे हैं। कुछ लोग फेल भी हुए, फिर शुरू किया फिर सफल हुए। कुछ लोग सदा से ही सफल हैं। जिन्होंने दृढ़ प्रतिज्ञा भी कर ली और जैसा मैंने कहा योग-साधना की इसके लिए बहुत ज़रूरत होती है। योग-साधना में हम सर्वशक्तिवान से अपना कनेक्शन जोड़ लेते हैं। उसकी शक्तियां हमें मिलती हैं। हमारा मन पॉवरफुल होता है। बुद्धि श्रेष्ठ बनती है और इन भावनाओं को, इन विषय-विकारों को कन्ट्रोल करने की पॉवर आ जाती है। दूसरी बात, हम पवित्रता के सागर परमात्मा से जब योग युक्त होते हैं तो उसकी पवित्रता की शक्ति हमें मिलने लगती है और हमारा पवित्रता का बल बढऩे लगता है। तीसरी बात, भगवान ने हमें स्मृति दिलाई कि तुम आत्मायें हो, इस शरीर से न्यारे हो, जितना हम अशरीरी होने का अभ्यास करते हैं, कर्र्मेन्द्रियों से विषय-विकारों की अग्नि शीतल होने लगती है। चौथी बात याद दिलाई कि तुम पवित्र देवी-देवता थे। बिल्कुल स्पष्ट दिखा दिया, साक्षात्कार करा दिया, गहन अनुभूति करा दी, तुम अनेक जन्म अढ़ाई साल पवित्र देवता थे। लोगों ने गलत स्मृतियां दिला दी थी। मनुष्य कभी पवित्र हो नहीं सकता। कलियुग में ब्रह्मचर्य कभी हो नहीं सकता। मन तक पवित्र हो ये इम्पॉसिबल है। लेकिन ये पॉसिबल है। हमारे में कई ऐसे हैं जो मन तक, स्वप्न तक भी पवित्र हो चुके हैं। तो ग्रहस्थ में रहते हुए अनेक सैम्पल, एग्ज़ाम्पल हमारे पास इस ईश्वरीय विश्व विद्यालय में हैं। और ये प्युरिटी संसार के लिए लाइट हाउस बन जाती है। तो मैं सभी को कहूँगा कि जो ग्रहस्थ व्यवहार में रहते हैं, अपने को बहुत चीज़ों से डिटैच करेंगे, थोड़ा कमल फूल के समान निर्लिप्त रहना सीखेंगे। क्योंकि वो कीचड़ में रहते भी उससे निर्लिप्त रहता है। भगवान के महावाक्य हैं कि ग्रहस्थ व्यवहार में रहते हुए तुम्हें कमाल करनी है। ग्रहस्थ में रहने वालों को कई बातें होती हैं, नॉ डाउट। लेकिन हमें अपनी अनासक्त वृत्ति को बढ़ाते चलना है। देखिए बहुत ही गुह्य बातें, और बहुत ही प्रैक्टिकल बातें कि सबको प्यार भी देना है परिवार में और निर्मोही भी बनना है। सब कार्य भी करने हैं लेकिन निर्लिप्त भी रहना है। ये बहुत सुन्दर बात स्वयं परम शिक्षक, भगवान ने सीखा दी। परम सद्गुरू ने राजयोग सिखाया और कहा सबको आत्मिक दृष्टि से देखो तो तुम्हारा प्यार सबको मिलता रहेगा और तुम निर्मोही भी होते जायेंगेे। तो सभी जो परिवार में रहते हैं उन्हें रोज़ अमृतवेले उठकर प्रभु मिलन का सुख लेना है। मैं बहुत जल्दी न कह के आपको कहूँगा कि चार बजे उठो। 3:30 बजे उठो। ये अभ्यास करना है। फिर ईश्वरीय महावाक्यों का श्रवण डेली, जिसे हम सत्संग भी कह सकते हैं। भगवान की वाणी हम सुनते हैं, बहुत सुन्दर अनुभूतियां होती हैं। इसपर हम आगे बढ़ेंगे तो हमारे विचार महान होंगे, हमें रोज़-रोज़ नई गाइड लाइन मिलेगी और हम ग्रहस्थ में रहते हुए कमल फूल समान पवित्र बन सकेंगे। और जो ऐसा बनेंगे कमाल करेंगे, और भविष्य भी बहुत सुन्दर होगा। तो संसार भी आपको फॉलो करेगा।