घर के गेट खोलने की चाबी… वैराग्य वृत्ति – राजयोगिनी ब्र.कु.जयंती दीदी,अतिरिक्त मुख्य प्रशासिका,ब्रह्माकुमारीज़

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अपना हठयोग का मार्ग नहीं है, राजयोग का मार्ग है। तो उसमें हम बहुत हठ करके भी पुरुषार्थ करते हैं तो वो भी बाबा नहीं चाहते। हाँ, दृढ़ संकल्प हो और उस दृढ़ता से हम आगे बढें। परंतु मीठा पुरुषार्थ हो, सहज पुरुषार्थ हो क्योंकि उसको हम अंत तक कायम रख सकेंगे।

संगमयुग बहुत मीठा लगता है ना, लेकिन इतना मीठा भी न लगे कि जो हम कहें कि बस संगमयुग ही चलता रहे। परंतु संगमयुग में अपना तीव्र पुरुषार्थ ऐसा चले जो जल्दी-जल्दी घर का दरवाजा भी खुल जाये और साथ-साथ स्वर्ग के भी गेट खुल जायें। क्यों? क्योंकि जब संसार की हालत देखते हैं तो देखते हैं कि मनुष्य आत्माओं को बहुत भिन्न-भिन्न प्रकार का दु:ख लगा हुआ है। उसका वर्णन मैं अभी नहीं करने जायेंगी। क्योंकि वो सब बातें तो आप सब जानते ही हैं। परंतु ये तो ज़रूर कहेंगे कि जो बाबा ने कहा, क्या आपको भक्तों का आवाज़ सुनाई नहीं देता, भक्त भगवान को ढूंढ रहे हैं। परंतु साथ-साथ अनेक आत्मायें भी बहुत दु:खी होकर सोच रहे हैं कि दु:ख का दरवाजा कब बंद होगा! तो बाबा के बच्चों की खुद की तो है पुरुषार्थ की बातें कि हम आगे कैसे बढ़ें। परंतु साथ-साथ ये भी संकल्प है कि ऐसे सेवा हो जो बाबा की प्रत्यक्षता हो जाये। बाबा को पहचानेंगे तो अपना जन्म सिद्ध अधिकार प्राप्त कर सकेंगे।
हम ये नहीं चाहते हैं कि पब्लिसिटी सिर्फ हो या एडवरटाइज़मेंट सिर्फ हो। हम ये चाहते हैं कि बाबा को हर आत्मा पहचाने क्योंकि आधा कल्प से हम सब बिछड़ गये थे। सतयुग-त्रेता में तो भगवान का जो वर्सा मिला उसी मौज में रहे। परंतु आधा कल्प तो पूरी तरह से खोज चलती रही। तो सब आत्माओं को भी बाबा की पहचान हो। और जो वो चाहते हैं शांति चाहते हैं तो शांति प्राप्त हो, सुख चाहते हैं तो सुख की भी प्राप्ति हो सके। तो किस तरह से हमारा पुरुषार्थ हो। जो दोनों द्वार खुल जायें मुक्ति और जीवनमुक्ति के।
चाबी है बेहद की वैराग्य वृत्ति और फिर प्रश्न आता कि बेहद की वैराग्य वृत्ति बनाने के लिए हमें क्या पुरुषार्थ करना होगा। तो आजकल जब मैं अव्यक्त मुरलियां देखती हूँ, पढ़ती हूँ तो बिल्कुल ऐसे लगता है बाबा कोई भी बात में हमें मेहनत का पुरुषार्थ नहीं दे रहे हैं। बाबा कहते कि मेहनत की बदली में मोहब्बत हो। मेहनत की बदली में मौज हो। अतीन्द्रिय सुख का मौज हो। परमआनंद का अनुभव हो। तो हाँ वैराग्य वृत्ति भी हो। साथ-साथ हमें दो बातों की याद रहती तो फिर वो हमारा पुरुषार्थ मीठा भी होता और सहज भी होता। मीठा पुरुषार्थ जो होता वो हम उसे स्थायी रूप से कर सकते। यदि पुरुषार्थ बहुत कठिन होता तो थोड़े समय के लिए तो हठयोग करके उसको चला सकते। परंतु अपना हठयोग का मार्ग नहीं है, राजयोग का मार्ग है। तो उसमें हम बहुत हठ करके भी पुरुषार्थ करते हैं तो वो भी बाबा नहीं चाहते। हाँ, दृढ़ संकल्प हो और उस दृढ़ता से हम आगे बढें। परंतु मीठा पुरुषार्थ हो, सहज पुरुषार्थ हो क्योंकि उसको हम अंत तक कायम रख सकेंगे।
जैसे बाबा ने साकार मुरलियों में कहा ना कि शमशानी वैराग्य। जब शमशान में जाते हैं तो उस समय वैराग आता है कि हाँ ये संसार में तो कुछ नहीं है। सम्बन्ध ही मीठे छूट जाते हैं। परंतु शहर में वापस लौटते हैं तो बाबा ने ये कहानी सुना दी कि फिर तो मन यहाँ-वहाँ भागता रहता है कि ये भी खाऊं, वो भी करूं, ये भी करूं। परंतु सच्चा वैराग्य एक तो हमें बाबा के द्वारा सर्व प्रकार की प्राप्ति हो। यदि आत्मा में कोई भी मिसिंग फीलिंग है, कोई भी बात में सोचते हैं कि अभी तक हमें ये नहीं मिला है, ये हमें चाहिए। तो जहाँ चाहिए का संकल्प आता वहाँ वैराग्य वृत्ति नहीं। जब चाहिए का संकल्प समाप्त हो जाता क्यों? क्योंकि बाबा ने हमें क्या नहीं दिया है, ये आप सोच लो। कुछ रहा हुआ है जो बाबा ने न दिया हो? कोई भी ऐसी बात नहीं रही है। तो जब ये संकल्प होता कि बाबा ने हमें सबकुछ दे दिया। ये न सिर्फ संकल्प की बात है बल्कि अनुभव की बात है। हमने जब अनुभव किया जो हम संकल्प रखते हैं बाबा न सिर्फ हमें देता परंतु बाबा दस गुणा ज्य़ादा उसे हमें दे देता।
बाबा के बच्चे बनने के बाद बाबा ने हमें इतना दिया है कि स्वप्न में भी नहीं था। जो बातें फिलॉस्फर नहीं जानते सृष्टि के आदि, मध्य, अंत की कहानी को, जो बातें भक्त नहीं जानते, एक-एक देवी-देवता की जीवन कहानी को, ऑक्यूपेशन को, जो साधु लोग बहुत कठिन तपस्या करने के बाद परमात्मा को नहीं जानते हमने सहज-सहज भगवान को जान लिया, स्वीकार कर लिया। परंतु सबसे बड़ी बात भगवान ने हमें भी अपने पास स्वीकार करके, अपना बना लिया। तो जबकि इतना सबकुछ मिला है चाहे ज्ञान कहो, चाहे प्यार कहो, लोग कहेंगे कि सागर की एक बूंद की हम प्यासी हैं। हम तो कहेंगे कि बाबा ने हमें भी मास्टर प्यार का सागर बना लिया, प्रेम स्वरूप बना दिया, ताकि अन्य आत्माओं को भी हम वो प्यार का अनुभव करा सकें। नि:स्वार्थ प्यार जिसमें हमें उन्हों से कुछ नहीं चाहिए। परंतु हम प्यार के सागर की लहरें उन्हों तक पहुंचाते रहें।

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