देखो… व्यर्थ हमें कहाँ ले जा रहा…!

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हम कितने भाग्यशाली हैं जो संसार के ‘असार कुचक्र’ से छूट गये। हमने जन्म-जन्म इस कुचक्र से छूटने के न जाने कितने प्रयत्न किये, कितनी ही कोशिश की, किन्तु जितना ही उससे छूटने की कोशिश की उतना ही उस दलदल में और ही फंसते गये। न जाने हमने कितने पंडितों-विद्वानों के आगे चक्कर काटे होंगे, पर हमें असफलता ही हाथ लगी। इसका मतलब ये था कि जिस पर हमारी आस्था थी वे स्वयं ही इससे मुक्त नहीं थे। तो भला वे हमें कैसे मुक्त कर पाते! आज की एडवांस जनरेशन में इससे छूटने के लिए कई पॉज़ीटिव थिंकिंग का सहारा ले रहे हैं तो कई योगासन का। पर ये सब करते हुए भी पूर्णत: सफल नहीं हो पा रहे। हमने हाल ही में देखा कि एक मशहूर एक्टर जो रोज़ योगासन करता था, जिम में जाता था, शारीरिक रूप से हृष्ट-पुष्ट भी था, फिर भी हार्ट अटैक में अपनी जान गंवा दी। प्रयास तो करते हैं सभी अपने-अपने लेवल पर, पर फिर भी जीवन में कुछ न कुछ त्रुटियां रह ही जाती हैं। परिणामस्वरूप वे चाहते हुए भी उससे निजात नहीं पा सकते।
ऐसे वक्त में हम भाग्यशाली हैं कि हमें परमात्मा के द्वारा सत्य ज्ञान प्राप्त हुआ और हम उसी राह को चुनकर आगे बढ़ रहे हैं। उस राह को हमने ही चुना क्योंकि हमें पता है कि इससे ही हमारा जीवन सफल होगा। होगा भी क्यों ना! ये बात दूसरों के लिए साधारण हो सकती है किंतु ऐसे सांसारिक कुचक्र के मध्य में हमने उसको जाना भी और पहचाना भी। अब परमात्मा का कहना है कि बच्चे अब छोड़ो सब व्यर्थ की बातें, और छोड़ो दुर्गुण देखने की आदत को, इसमें ही आपका कल्याण है। इसके लिए कल्याणकारी प्रभु ने हमें अनेक विधियां, युक्तियां अथवा उपाय बताये हैं जिनसे आत्मा में घुसे हुए व्यर्थ व बुरे संस्कार बाहर निकल जाते हैं और उससे पीछा छूट जाता है। सब बातों का तो यहाँ उल्लेख करना संभव नहीं, परंतु एक ऐसी बात को हम यहाँ लिपिबद्ध करना चाहेंगे जो कि किसी अंश में हमारी दृष्टि-वृत्ति को विकृत होने से बचा सकती है।
वो ये है कि कई बार हम किसी व्यक्ति से किसी दूसरे की निंदा सुनकर, चुगली सुनकर, शिकायत सुनकर, अफवाहें सुनकर उसे तुरंत मान जाते हैं और यह सोचने लगते हैं, क्रअच्छा, वो व्यक्ति ऐसा निकृष्ट है! हमने तो उसके विषय में कभी ऐसा सोचा ही नहीं था।ञ्ज हम उस बात की जांच नहीं करते बल्कि यह देखकर कि कहने वाला व्यक्ति हमारा घनिष्ठ मित्र है, विश्वास पात्र है, हमारे निकटतम है, हम उस बात को दूसरे व्यक्ति की अनुपस्थिति में मान जाते हैं। गोया हम उसकी पीठ में छुरी घोंपते हैं। चाहे वो व्यक्ति निर्दोष ही हो, हम दूसरे के कहने में आकर मन ही मन उससे घृणा करने लगते हैं। जिसे हम अच्छा समझते थे, उसे अब घटिया मानने लगते हैं और कई बार तो दूसरों को कहने लगते हैं कि क्रअरे, तुम्हें मालूम है कि उस व्यक्ति को फलाने से लगाव-झुकाव है! वो झूठा है, ठग है, बेईमान है, वो केवल बाहर का दिखावा करता है। और वो बोलने में बड़ा चालाक है। बाकी उसमें ज्ञान-ध्यान कुछ नहीं है। तुम आगे से उससे बोलना छोड़ दो, उसका संग खराब है। मनुष्य कमर के साथ भारी पत्थर बांध कर पानी में उतरेगा तो डूबेगा ही। उसके संग वाले का भी ऐसा ही परिणाम होगा। सुना, तुम बचकर रहना।ञ्ज ऐसी मानसिकता वालों का हाल भला क्या होगा!
जब हमारी ऐसी दृष्टि-वृत्ति हो जाये तो मनुष्य की अपनी बुद्धि मारी जाती है क्योंकि वह स्वयं अपनी बुद्धि में कंकड़-पत्थर इकट्ठे करने लगता है। गोया अपने ही डूबने की तैयारी करने लगता है। अपने को जि़ंदा जलाने के लिए अपनी चिता की लकडिय़ां स्वयं चुनकर लाता है और उसकी सेज बनाता है। अपनी हत्या के लिए अग्नि स्वयं अपने हाथों से जगाता है। उसे किसी करनीघोर ब्राह्मण की आवश्यकता ही नहीं। शमशान पर जलाने की रस्म करने वाले जो पंडित होते हैं, उसकी भी उसे आवश्यकता नहीं। वो बिना मंत्र और रस्म के मर जाता है। किसी को उसका जनाज़ा उठाने की भी ज़रूरत नहीं। क्योंकि वह तो अपने आप ही चिता पर लेट जाता है। हाय! हाय! हम अपने जीवन से यह क्या करते हैं! जैसे कोई चंदन को जलाकर कोयला बना ले, वैसे ही हम अपने जीवन को भस्म कर लेते हैं। अब छोड़ो दुश्मनी को, उसके लिए छोड़ो नफरत को, नफरत को छोडऩे के लिए छोड़ो दूसरों की व्यर्थ बातों को सुनने और दूसरों के दुर्गुण देखने की आदत को। अगर यह एक बात भी हम पक्की कर लें तो भी हम उस रास्ते पर चल पड़ेंगे और खुशी, आनंद तथा मित्र भाव के झूले में झूलते रहेंगे। दृष्टि-वृत्ति को न बदला तो कृति नहीं बदलेगी। अगर कृति न बदली तो विकर्मों का बोझ बढ़ता जायेगा और पाप का घड़ा भरता जायेगा तथा जीवन दलदल में धंसता जायेगा। स्मृति-भं्रस हो जायेगी और जिसकी स्मृति-भ्रंस हो जाये तो गीता के महावाक्य हैं कि उसकी केवल लुटिया ही नहीं डूबती, उसका तो सर्वनाश हो जाता है। तो हे मानव! अपने जीवन को एक बार बैठकर देखो, कहीं हमारा जीवन भी ऐसी आदतों के वश तो नहीं! हम अपने पैर पर खुद ही तो कुल्हाड़ा नहीं मार रहे! सोचो, चिंतन करो और ऐसी आदतों की चिता को तिलांजलि दे दो।

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